लगभग ४५ साल पहले की बात है। बचपन में गाली के रूप में एक लोक मुहावरा सुना था। जिसका अभिप्राय समझने में मुझे कई वर्ष लग गए । वह मुहावरा मुझे आज भी बखूबी याद है । दरसल उसे मुहावरा या लोकोक्ति कहना उचित नहीं होगा। विशुद्ध हिंदी में तो वह एक ऐंसी अपमानजनक ,हिंसक एवं अशालीन गाली है कि जिसमें न केवल किसी खास क्षेत्रीयता का , बल्कि व्याज - स्तुति में नारीमात्र की गरिमा का भी अपमान कूट-कूट कर भरा हुआ है। इस घातक और मारक 'गाली' में न केवल प्रतिपक्षी महिला के लिए बल्कि बंगाल की तो नारी मात्र के लिए एक किस्म का अपमानजनक अभिप्राय निहित है। गनीमत यही रही कि वह गाली बुंदेलखंड के अलावा और कहीं सुनने में कभी नहीं आई। इधर ४० साल से इंदौर में हूँ ,किन्तु वह गाली यहाँ भी कभी नहीं सुनी। यहां मालवी,राजस्थानी,गुजराती ,मराठी और उर्दू में भी एक से एक अश्लील, बहुश्रुत ,मारक -घातक गालियां हो सकतीं हैं ,किन्तु उस गाली की कोई बराबरी नहीं जिसे मैंने बचपन में सुना था। उस गाली को शब्दश : लिखना शोभनीय नहीं है ,किन्तु इतनी बड़ी भूमिका के बाद पाठकों के धैर्य का भी ध्यान रखना भी जरुरी है। उस गाली को सम्भाषण में प्रयुक्त किये बिना उसकी शब्दशक्ति की क्षमता आंकना भी असंभव है।
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'क ' नामक महिला को 'पनघट' पर खबर मिली कि उसका पति किसी 'ख' नामक महिला से यारी -दोस्ती का या प्यार -मोहब्बत का टाँका भिड़ाने में मशगूल है। इसी बीच 'ख' भी पनघट पर आ गयी। 'क' ने उसको कुछ हल्की फुलकी गालियाँ दीं। 'ख' ने जब कोई जबाब नहीं दिया तो 'क' ने गुस्से में जोर से कहा "अरी राँड तेरा खसम क्या खसुआ है जो मेरे मरद पर डोरे डालने चली ?" 'ख' ने चुपचाप अपने हंडे -घड़े भरे और चल दी। लगा कि 'ग' का अब धैर्य छूट गया और वह चिल्लाकर बोली -' कुतिया … छिनाल…… बंगालन …! हरामजादी…।
इस शब्द विन्यास का न तो अर्थ मालूम था और न ही उस किशोरवय में मुझे कोई आपत्ति ही थी। किन्तु अब चूँकि उन शब्दों के न केवल अर्थ बल्कि निहितार्थ भी मुझे बोधगम्य हैं अतः उन गालियों की मारक शक्ति का अंदाज लगा सकता हूँ। उस एक खास शब्द'बंगालन' पर मेरी चेतना को तब- तब और ज्यादा 'पेनीट्रेशन' मिलता है जब-जब ममता बनर्जी की निंदनीय हरकतें और उसका पाखंडपूर्ण नाटकीय राजनैतिक व्यक्तित्व जनता के समक्ष प्रदर्शित हुआ करता है।
एक ख्याल भी महिलाएं गाय करतीं -
बंगालो रे जादू अधकार …… माहो न जइयो मोरे बलमवा हो ! !!
अर्थात:- हे प्रीतम बंगाल की महिलायें जादू जानतीं हैं। इसलिए तुम यदि विदेश जाओ तो बंगाल से होकर मत जाना या आना।
न केवल लोक गीतों में बल्कि मुहावरों और 'कहावतों' में भी इसी तरह की जनश्रुति का चलन हजारों साल से चला आ रहा है। अभी भी उस पर कोई फर्क नहीं आया है। सामंत युग की ही नहीं बल्कि इस उत्तर आधुनिक युग की कतिपय सास माँयें भी जब अपनी बहु को भला -बुरा कहती या कोसती है तो सुंदर सुशील गौरवर्णीय उच्च सुशिक्षित बहु भी अपना धीरज खोने लगती हैं। शुरुआत में वह मन-ही मन कहती - 'बुढ़ापे में सठिया गईं हैं सासुजी !'जब शीतयुध्द से आगे बात बढ़ती है तब स्टार वार शुरू होता है। स्वाभाविक है कि गालियों के आग्नेय और परमाण्विक अश्त्रों का भण्डार तो पेंटागन रुपी सासुजी के पास ही होगा। उधर नए -नवेले उदीयमान सोवियत ,वियतनाम,क्यूबा या या भारत जैसे राष्ट्रों की तरह निरीह किन्तु आशावान सकारात्मक सोच वाली बहुरानियों को इस तरह की गालियां उनके मायके में सिखाई ही नहीं गईं ! वेशक सासुओं के इस पारम्परिक और दैनिक प्रशिक्षण की बदौलत बहुत संभावना है कि वक्त आने पर वे भी जब कभी भविष्य में 'सास' की हैसियत में होंगीं तब अपनी बहु को गालियों से विभूषित करने की कला में पी एच डी हो चुकी होंगीं। एक दूसरे को शर्मिंदा करने या नीचा दिखाने की इस तरह की बानगी तो सब जगह सुनी देखी जा सकती है. किन्तु अपनी बहु को पराजित करने के लिए कोई सास यदि पतन की पराकाष्ठा को लांघ जाए तो मामला संगीन हो जाता है। जब गालियाँ -गोलियों में बदल जातीं हैं। अपनी बहु से कहे कि 'तूँ रांड हो जा ' तो बहु के वैधब्य की कामना रखने वाली वह सास क्रोध में यह भूल गई कि प्रकारांतर से वह अपने ही बेटे की मौत की तमन्ना ही जाहिर कर रही है.
इस नकारात्मक और वीभत्स गाली विमर्श से भले ही कुछ सभ्रांत नारियों या पुरुषों को कोई विजुगप्सा हो किन्तु कतिपय मर्दानियों या बेंडिट क्वीन जैसी नारियों की सेहतमंदी और उनके नारीत्व' का अलंकार तथा आभूषण भी यह गाली मर्मज्ञता ही है। कई वर्षों तक मुझे यही आत्मश्लाघी भरम कष्ट देता रहा कि हिंदी की खड़ी बोली और उसके इर्द-गिर्द वाले इलाकों रुहेलखण्ड ,बुंदेलखंड ,महाकौशल , या पछाँह में ही ये अशालीन गालियां क्यों प्रचलित हैं ? कालांतर में जब अखिल भारतीय अधिवेशनों के निमित्त मेरा जब चेन्नई ,त्रिवेन्द्रम , मुंबई , अमृतसर जैसे शहरों में जाना हुआ या अन्य गैर हिंदी भाषी साहित्यकारों से मिलना जुलना हुआ तो मुझे यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ की यह एक गाली ही नहीं बल्कि अधिकांस गालियाँ इन भाषाओँ में भी मौजूद हैं। अहा ! क्या साम्य है ? भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए ये अपावन और अशालीन गालियाँ न केवल हिंदी में बल्कि अन्य भाषाओँ में भी हूबहू उसी भावार्थ और उसी तेवर के साथ उसी संहारक क्षमता के साथ मौजूद हैं। यह सुनकर कलेजा ठंडा हो गया। क्षेत्रीय और भाषायी अपराधबोध से मुक्त होकर मैं यह दावा कर सकता हूँ कि' शायद अशालीन गालियों में एकता ही हमारी भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है '
मसल मशहूर है कि बन्दुक से निकली गोली और जुबान से निकली बोली वापिस नहीं आती। शब्दों या ध्वनियों से निर्मित मन्त्रों में कोई शक्ति निहित है या नहीं यह तो वैज्ञानिक शोध का विषय अभी भी है। किन्तु गाली में प्रयुक्त शब्दों की ताकत को खुद आजमा कर कोई भी जब चाहे देख सकता है।
यह सिर्फ एक गली या मोहल्ले की बात नहीं बल्कि पूरी दुनिया ही इस गाली-फोबिया से पीड़ित है। क्रिकेट का खेल तो बिना गालियों के कभी भी पूरा नहीं होता। आस्ट्रेलिया ,पाकिस्तान ,न्यूजीलैंड ,श्रीलंका के खिलाडी ही नहीं अपितु भारत और इंग्लैड के तथाकथित सभ्रांत खिलाड़ी भी बिना गाली दिए घर नहीं लौटते। हमारे बुंदेलखंड में तो दो दोस्त भी अपनी दोस्ती का इजहार भी बिना गाली दिए नहीं कर सकते।हमारे रज्जु कक्का और उनका पडोसी दोस्त तो सुबह की राम-राम की जगह गाली से 'गुड मॉर्निग ' किया करते थे।
रज्जु कक्का याने राजाराम पटेल। हमारे ही गाँव के थे। गाँव के नाते वे हमारे काका जैसे ही थे। गाँव में उनकी बड़ी उपजाऊ जमीन थी। उन्होंने सागर शहर के पास भी कई एकड़ जमीन खरीद कर फार्म हॉउस बनाकर मय बाल बच्चों के वे सागर शहर में ही रहा करते थे। तब मेरे गाँव में ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सभी जाति के लोगों के पास अच्छी जमीने थी , जो आज भी हैं। गाँव में ब्राह्मण ४२ परिवार थे। कथा -पूजन-हवन से एक का ही पेट नहीं भरता तो बाकी के परिवार क्या करते। इसीलिये कुछ तो काशी -बनारस चले गए ,कुछ महेश योगी गुरुकुल में चले गए जहाँ खाना और पढ़ना भी सम्भव हो। चूँकि मुझे हायर सेकंडरी में साइंस विषयों में फर्स्ट ग्रडिंग मिली थी और मेरिट स्कालर का इंतजाम हो गया था इसलिए घर की आर्थिक स्थति खराब होने के वावजूद मैं और मेरा एक सहपाठी शहर से दूर बिना बिजली के इस फार्म हाउस में जा टिके। जो की रज्जु कक्का के हरे-भरे 'कछवारे' [सब्जी-भाजी के खेत] के बीचों बीच उस वीराने में अवस्थित था। मैं और मेरा सहपाठी महेश मकान के एक कमरे में रहकर साइंस विषयों का अध्यन करने लगे । मैं सुबह -सुबह नहा -धोकर रामचरितमानस और गीता का सस्वर पाठ किया करता । अक्सर रहीम ,कबीर , बिहारी के दोहे या सूर ,तुलसी,मीरा के भजन गाते-गाते ही ईंटों के चूल्हे पर मोटे-मोटे चार टिक्क्ड़ बना लिया करते । अव्वल तो शुद्ध शाकाहारी सदाचारी निर्धन ब्राह्मण, दूसरे संस्कृत वांग्मय तथा हिंदी महाकाव्यों के सस्वर पाठ करने की मेरी नैसर्गिक क्षमता इस सद प्रवृत्ति से प्रशन्न होकर मकान मालिक ने मेरा मकान किराया ही माफ़ कर दिया । इतना ही नहीं उन्होंने मुझे यह छूट भी दे रखी थी कि मैं उनके 'कछवारे' से कोई भी सब्जी कभी भी मुफ्त में ले सकता हूँ। इसके अलावा उन्होंने खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी सोने के लिए एक कमरा और कुछ बर्तन भी दे रखे थे। इस के अलावा अमावस्या-पूर्णिमा को भी उन्होंने श्रद्धापूर्वक 'सीधा' दिए जाने का इंतजाम भी किया।
चूँकि उनके पास शहर की सीमा से लगी वेश्कीमती कई एकड़ जमीन थी. इसलिए वे तथाकथित 'पिछड़े'' वर्ग के होते हुए भी हर तरह से असली 'अगड़े'थे । इस सम्पन्नता की चकाचौंध में भी उनके पैर सदा जमीन पर ही रहे। उ नके लड़के -लड़कियाँ हालाँकि मुझे याने तथाकथित 'उच्चवर्ण' के निर्धन को उपेक्षा और हीनता की नजर से देखते थे। किन्तु रज्जु काका उम्र में मुझसे ४० साल बड़े होते हुए भी रोज सुबह उठकर सबसे पहले 'पंडितजी पायँलागूं ' कहकर मेरे पैर छूकर आशीर्वाद माँगा करते थे । वे शायद वर्ण व्यवस्था और जातीय परम्परा के जीवंत हस्ताक्षर थे। वे परम आस्तिक प्रवृत्ति के सम्पन्न गृहस्थ थे। लेकिन जब कभी कोई गलत काम करता या गलत बात करता तो वे गुस्से में आकर बहुत अशालीन गालियों का प्रयोग करने लगते। मुझे याने 'द्विज' याने गरीब ब्राह्मण को छोड़कर बाकी सभी पर गालियों की बाण बरसा किए करते। उनकी गालियों में न केवल साहित्यिक सौंदर्य बल्कि भदेसीपन भी हुआ करता। जब मैंने उनसे गाली नहीं बकने का नि वेदन किया तो उन्होंने कहा 'हम कहाँ गाली देत हैं पंडितजी ,ये तो ससुरी सरसुती [सरस्वती] ही है जो हमाये मौ से जो सब कुवात हैं '।
श्रीराम तिवारी
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