वर्तमान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को धन्यवाद कि उनके मार्फ़त देश और दुनिया में 'श्रीमद्भगवद्गीता' की हैसियत के बारे में नया विमर्श जारी है। वेशक स्वामी विवेकानंद , जे कृष्ण मूर्ति ,शिवानंद योगी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक , गोखले , लाला लाजपत राय ,गांधी , चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव ,रामप्रसाद बिस्मिल ,भगतसिंग ,आचार्य कृपलानी, अरविन्द, गोविंदबल्ल्भ पंत , बिनोबा ,जयप्रकाशनारायण, और पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे अनेकों राष्ट्रसन्तों और क्रांतिकारियों ने इस गीता के अध्यन -मनन से अपने व्यक्तित्व को निखारा था।
इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए लॉगऑन करें -http//janwadi.blogspot.in
उपरोक्त में से कुछ तो परम्परागत पैदायशी संत थे. सो उन्होंने यदि गीता की महिमा का बखान किया तो कोई बेजा बड़ी बात नहीं है ? यह तो आध्यात्मिक जगत की स्वाभाविक परम्परा है। भारत के सभी धर्मोपदेशकों और दार्शनिकों के लिए गीता एक मार्ग दर्शक की तरह रही है। किन्तु जब रजनीपाम दत्त , मानवेन्द्र नाथ राय , महापंडित राहुल सांकृत्यायन ,रवीन्द्रनाथ टैगोर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, स्वामी श्रद्धानन्द ,जार्ज बर्नाड शा , गणेशशंकर विद्द्यार्थी, मुक्तीबोध , दुष्यंतकुमार ,लोहिया जैसे प्रगतिशील - क्रांतिकारी कवियों,शायरों, चिंतकों -लेखकों से लेकर श्रीपाद अमृत डांगे, ए. के.गोपालन ,ई एम एस नम्बूदिरीपाद और ज्योति वसु जैसे खाँटी साम्यवादी विचारकों ने भी भगवद्गीता को मानवतावादी और अन्याय के खिलाफ संघर्ष के लिए उपयोगी ग्रन्थ माना है. तब यह एक अनोखी बात हो सकती है। डॉ अल्लामा इकबाल , डॉ रामविलास शर्मा और डॉ राही मासूम रजा जैसे अधिकांस भारतीय वामपंथी लेखक ,बुद्धिजीवी अपने लेखन में ही नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी भगवद्गीता को 'वर्ग संघर्ष' के निमित्त अनुकूल पाते रहे हैं।
जिस तरह कार्ल मार्क्स की शिक्षाएं केवल किसी खास कम्युनिस्ट पार्टी या किसी खास देश के लिए नहीं हैं, उसी तरह गीता के अठारह अध्याय केवल भारत के लिए या हिन्दुओं के लिए ही सम्बोधित नहीं किये गए बल्कि वे समूची मानवता के लिए 'संहिताबद्द' किये गए हैं। यह महान तम विज्ञानमय कोष न सिर्फ हिन्दुओं की , न सिर्फ संघ परिवार 'की, न सिर्फ भारतियों की ,न सिर्फ धार्मिक या आस्तिकों की बल्कि यह तो सारे संसार की धरोहर है।
दुनिया के सभी धर्मों,मजहबों,के महानतम पवित्र और दिव्य ग्रन्थ है । सभी सबके लिए हैं। सभी का उद्देश्य मानव कल्याण है। सभी का घोर दुरूपयोग भी हुआ है। अब भी हो रहा है। सुषमा स्वराज या अशोक सिंघल ही नहीं और भी हैं जो नाहक गीता के लिए 'हलकान' हो रहे हैं। 'संघ परिवार' की यह सदिच्छा हो सकती है कि भगवद्गीता को भारत का राष्ट्रीय ग्रन्थ होना चाहिए। लेकिन यह महज एक राजनैतिक शोशेबाजी है। जो लोग सुषमा स्वराज के इस वयान से इत्तफाक रखते हैं वे शायद गीता को ठीक से पढ़े ही नहीं हैं। जो सिर्फ इसलिए खफा हैं कि उन्हें इस वयान में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता की बू आ रही है, वे स्वनामधन्य धर्मनिरपेक्षतावादी भी केवल सनातन अंध विरोध के सिंड्रोम से पीड़ित हैं. वे गीता के बारे में या उस की क्रांतिकारी शिक्षाओं के बारे में कुछ नहीं जानते। जो लोग सुषमा स्वराज के बयान से प्रशन्न हैं या गदगदायमान हो रहे हैं , वे तो केवल हिंदुत्व के नास्ट्रेलजिया के और अंधश्रद्धा रुपी फोबिया के शिकार हैं।
वास्तव में भगवद्गीता की आध्यात्मिक समृद्धि केवल ज्ञानयोग,कर्मयोग,सांख्ययोग या 'तस्मात योगी भवार्जुन' तक ही सीमित नहीं है। बल्कि उसमें वो सब कुछ है जो अन्याय ,शोषण ,उत्पीड़न , असमानता और अभाव को परास्त करने के लिए जरुरी है। उसमें न केवल कार्ल मार्क्स ,न केवल बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर, न केवल सामाजिक ,न केवल आर्थिक ,बल्कि हर किस्म की असमानता के विरुद्ध संघर्षशीलता के मूल्य और सिद्धांत मौजूद हैं। महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने प्रकारांतर से जिस वेदांत दर्शन और उपनिषदों के सारतत्व का भगवद्गीता के रूप में पुनर्सम्पादन किया है. उसे उनसे भी पूर्व राजा जनक के गुरु ' अष्टाबक्र' जी कर भली भाँति प्रकाशित कर चुके थे। कालांतर में वेद व्यास ने या उनके पुत्र शुकदेव ने इस 'गीता' को 'महाभारत ' के भीष्म पर्व में समाहित किया है। व्यास जी ने अपने स्वरचित महाकाव्य 'महाभारत' में सन्निहित इस 'भगवद्गीता' के उद्घोषणा का श्रेय 'वासुदेव श्रीकृष्ण' को दिया है। बकौल उनके -श्रीकृष्ण के द्वारा ही -१८ दिन चले उस राष्ट्रव्यापी महाभीषण युद्ध के रक्तपात और स्वजनों की हिंसा से दुखी - विरक्त अर्जुन को अन्याय से लड़ने के लिए इस गीता के माध्यम से 'पेनिट्रेट' किया गया है । विश्व के सभी धर्मों के अधिकांस ग्रन्थ जिन मूल्यों और सिद्धांतों की पैरवी करते हैं ,गीता में भी वही सब बेहतरीन और सुसंस्कृत ढंग से छन्दोबद्धय किया गया है। गीता तो अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथ है । गीता का राष्ट्रीयकरण या भारतीयकरण करने का प्रयास निंदनीय है। श्रीमद भगवद्गीता तो अंध श्रद्धा और अकर्मण्यता के खिलाफ अचूक अश्त्र है। दुनिया में शायद यही एक ऐंसा ग्रन्थ है जो संकीर्णता ,कूपमंडूकता ,जातिवाद तथा अवैज्ञानिक अवधारणों को नष्ट करने में सक्षम है।
जो -जो भगवद गीता में लिखा है वही सब कुछ कार्ल मार्क्स ,लेंनिन ,गोर्की, स्टालिन, रोजा लक्जमवर्ग ,हो चिन्ह -मिन्ह , फीदेल कास्त्रो और चे गुवेरा इत्यादि क्रांतिकारियों ने भी अपने शब्दों में न केवल दुहराया है, बल्कि अनुशरण भी किया है। हम भारतीय तो केवल उसका सस्वर पाठ ही किया करते हैं। दुनिया की अनेक हस्तियों और सभ्यताओं ने तो गीता से बहुत कुछ सीखा है। चीन , जापान जर्मनी और रूस के विश्व विद्यालयों में दर्जनों नहीं सैकड़ों लड़के लड़कियां मिल जायँगे जो गीता पर अपना शोध प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त हैं। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत के साम्प्रदायिक नेता गण गीता को हिंदुत्व की राजनीति में याने वोट की राजनीति में घसीट रहे हैं। कुछ प्रगतिशील तत्व -भाजपा की राष्ट्र विरोधी नीतियों ,साम्प्रदायिक धूर्तता , पूँजीवादी चाल , हिंसक चेहरा और दूषित चरित्र से देश को बचाने के बजाय गीता की 'महत्ता' को ही आनन-फानन अस्वीकार करने में जुट जाते हैं।
यह मान्यता कोई कपोल कल्पना नहीं है कि पूर्व वैदिक काल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था मौजूद थी। भगवद्गीता चूँकि वेदांत याने उपनिषदों का सार तत्व है इसलिए वह साम्यवादी दर्शन के बहुत करीब है। कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में जो कुछ भी कार्ल मार्क्स द्वारा सम्पादित किया गया है वह सब कुछ गीता में भी है। फर्क इतना है कि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो सारे संसार में क्रांति और संघर्ष के लिए सहज सुलभ है। उसी की वजह से दुनिया के मजदूर वर्ग को अन्याय से लड़ने का एक शसक्त ओजार मिला है। जबकि गीता सदियों तक एक खास वर्ग के पास केवल पूजा -आरती की आराध्या ही बनी रही । उसे शोषण से मुक्ति का ओजार नहीं बनने दिया गया। न केवल व्यक्तिगत बल्कि समस्त वैश्विक मानवीय मूल्यों और संघर्षों के निमित्त अधिकांस वैज्ञानिक सूत्र कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और 'भगवद्गीता' में सामान रूप से उल्लेखित है। जिन्हे कोई शक हो वे इन दोनों को एक साथ - एक बार अवश्य पढ़ें। वेशक गीता , कुरआन ,बाइबिल ,जेंदावेस्ता और गुरुग्रंथ साहिब इत्यादि सभी महान पावन ग्रन्थ है। किन्तु इसके वावजूद किसी भी देश का 'राष्ट्रीय ग्रन्थ ' तो उसका संविधान ही हो सकता है। जो लोग सुषमा स्वराज के बयान से इसलिए अभिभूत हैं कि यह सब उनके 'गुप्त अजेंडे' के अनुसार हो रहा है। उन्हें यह जान लेना चाहिए कि वे अपनी संकीर्ण मानसिकता के वशीभूत होकर ही 'भगवद्गीता' जैसे धर्मनिरपेक्ष ग्रन्थ को केवल हिन्दुओं ,केवल आस्तिकों या केवल भारतीयों तक ही सीमित करने का महापाप कर रहे हैं। गीता का इस तरह राजनैतिक दुरूपयोग कदापि स्वीकार्य नहीं बल्कि घोर निंदनीय और अमानवीय।
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें