संघर्ष की आग में तपकर ही इंसान सुर्खुरू होता है "
=====================
आधुनिक साइंस और टेक्नॉलॉजी ने,सूचना एवं संचार क्रांति ने तथा अधुनातन मेडिकल साइंस ने, न केवल मौजूदा विश्व की आवादी को अपितु वर्तमान मानव की सकल - औसत -दीर्घजीविता को भी अपने अतीत के किसी भी पूर्ववर्ती काल खण्ड के सापेक्ष बेहतरीन बनाया है। प्रत्येक दौर के श्रेष्ठतम मानवों ने अपने त्याग,तपस्या, बलिदान और संघर्ष से सार्वभौमिक हितों के बरक्स -भावी पीढ़ियों को न केवल सर्व -साधन- सम्पन्न बनाया अपितु 'सितारों से आगे' जाने का मार्ग भी प्रशस्त किया है।
सहज मानवीय जिजीविषा ,प्रकृति से तादात्म्य और अदम्य साहस की अनवरत यात्रा से मानव मात्र ने पाया कि 'संघर्ष ही जीवन है' इसी सिद्धांत से आधुनिक दुनिया का निर्माण हुआ है। आदिकाल से अब तक की तमाम मानवीय उपलब्धियों के मूल में इस द्वंद्वात्मक 'संघर्ष' का ही बोलबाला रहा है उसी से मानव सभ्यताओं का यह सब संभव हुआ है।
मानव की इस संघर्ष शील बौद्धिक चेतना ने ही उसकी आवश्यकताओं को साधा है।मानवीय संघर्ष ने सभ्यताओं के विकास के हर दौर में अपनी भावी पीढ़ी को न केवल सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुंचाया बल्कि *सितारों से आगे जहां और भी हैं* जैसी धारणाओं को जानने -समझने की क्षमता भी विकसित की है। इसमें कोई शक नहीं है कि मानवीय चेतना,अविरल संघर्ष और श्रम शक्ति ने ही प्रकृति पर इंसान को बेहतरीन बढ़त हासिल कराई है। प्रत्येक संघर्षशील और क्षमतावान व्यक्ति ने श्रेष्ठतम मानवों के समूह ने,सभ्य समाजों ने और भारत जैसे जीवंत राष्ट्रों ने न केवल अपनी असीम संभावनाओं को तराशा है बल्कि शेष विश्व को भी अपने ज्ञान और संघर्ष की समष्टिगत चेतना से आप्लावित किया है।
जिन व्यक्तियों ने ,समाजों ने और राष्ट्रों ने अपने पवित्र 'साध्य' के निमित्त 'साधनों' की शुचिता का और संघर्ष के स्वरूप की विशालता का ध्यान रखा है ,वे सभ्य संसार के लिए आज भी वंदनीय हैं।उनके संघर्षों के अवदान आज भी पथप्रदर्शक हैं और आइन्दा भी प्ररेणा देते रहेंगे।
जिन्होंने उच्चतम मानवीय मूल्यों की स्थापना का स्वमेव निर्धारण किया वे क्रांतिकारी महामानव आज भी इतिहास के पन्नों पर प्रदीप्त -स्वर्णाक्षरों में शिखर पर देदीप्यमान हो रहे हैं।
वेशक व्यवस्थाओं के विद्रूपण,राजसत्तात्मक विचलन,निहित स्वार्थ तथा धनबल- बाहुबल- जनबल के दुरूपयोग से कुछ खास चुनिंदा नर- नारी बिना संघर्ष किये ही किसी शॉर्टकिट मार्फ़त अपने हिस्से से ज्यादा का,अपनी वैयक्तिक योग्यता से अधिक का-आसमान हवा,पानी और सूरज हड़प लिया करते हैं!यही असली शोषक वर्ग है । ये न केवल मानवता के दुश्मन हैं ; बल्कि प्रकृति बनाम ईश्वरीय आदेशों के भी शत्रु हैं।जो साहसी और बलिदानी मनुष्य इनसे संघर्ष करते हैं वही सच्चे क्रांतिकारी कहलाते हैं।
बहुधा ऐंसा भी पाया जा सकता है कि अनथक संघर्ष-त्याग, बलिदान के बावजूद किसी व्यक्ति विशेष को उसकी मेहनत तथा योग्यता का बाजिब या अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाता । यदि वह मनुष्य परिस्थितियों से समझौता कर दासत्व भाव स्वीकार कर लेता है तो वह आत्महंता और कायर है। लेकिन यदि उसने संघर्षों के रास्ते पर चलने का प्रण लिया तो तत्काल भले ही उसे कोई सुख या उपलब्धि न मिल सके किन्तु अंततोगत्वा उसके संघर्ष की कीर्ति पताका फहराने के लिए सारा आसमान मौजूद रहेगा । बिना संघर्ष वाला 'शार्ट कट ' तो फिर भी घातक जहर ही है। जो किसी को भी सार्थक जीवन नहीं दे सकता। बाज मर्तवा तो जेल की दीवारें उन्हें अपने आगोश में पनाह देने को बाध्य हुआ करती हैं। जिन्होंने 'मेहनत की रोटी' के संघर्ष का सबक नहीं सीखा ,जिन्होंने दासता से मुक्ति के संघर्ष का अनुशीलन नहीं किया या जिन्होंने जीवन के कठिन संघर्ष से सदैव पलायन किया या जिन्होंने सिर्फ अपना स्वार्थ साधा वे न केवल जहालत-गुलामी के हकदार रहे बल्कि उनकी कायराना जिंदगी भी शोषित-वंचित की मानिंद वियावान में दम तोड़ते रहने को अभिशप्त रही है ।
न केवल सफल इंसान के लिए ,न केवल सफल परिवार के लिए बल्कि सम्पूर्ण कौम और राष्ट्र के लिए भी जीवन का एक मात्र मूल मन्त्र 'संघर्ष' ही है। स्वामी विवेकानंद,महर्षि अरविंदोे,महात्मा गांधी,डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन डॉ.भीमराव् आंबेडकर,कार्ल मार्क्स,लेनिन,भगतसिंह, चंद्र शेखर आजाद जैसे अनेकों संघर्ष शील महा मानवों ने न केवल वैयक्तिक सफलता के लिए 'चरैवेति-चरैवेति' का संधान किया बल्कि "उत्तिष्ठत प्राप्य वरान्निवोधत" का नारा भी बुलंद किया। संघर्ष के नायकों ने ही 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' और दुनिया भर की तमाम क्रांतियों सहित राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के लिए सामूहिक संघर्ष का सिद्धांत भी पेश किया।
मध्ययुगीन बर्बर गुलामी के बंधनॉ से तथा साम्राज्यवाद के चंगुल से विभिन्न गुलाम राष्ट्रों की मुक्ति का और कालजयी प्रजातांत्रिक क्रांतियों का सूत्रपात भी इन्ही बेहतरीन संघर्षों और श्रेष्ठतम मानवीय विचारधारा के अनुशीलन का परिणाम है।वैसे तो इस धरती पर संघर्ष की नकारात्मक तस्वीर भी मौजूद है। इस आधुनिक और वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में शक्तशाली व्यक्तियों ने,सबल समाजों ने तथा सबल राष्ट्रों ने छल-बल के संघर्ष से निर्बल व्यक्तियों,निर्धन- असंगठित समाजों और पिछड़े ऋणग्रस्त राष्ट्रों को प्रतिस्पर्धा के 'नॉन यूनिफॉर्म लेवॅल प्लेइंग फील्ड'में जबरन धकेल दिया है । 'सभ्यताओं के संघर्ष' के बहाने तमाम वंचित मानव समाजों और राष्ट्रों के समक्ष 'धर्म-मजहब की अफीम' परोसी जा रही है।
राष्ट्रीय और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए और अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिए दुनिया भर के तमाम 'मौत के सौदागर ' हथियारों के निर्माता और पेट्रोलियम'पर काबिज शक्तियाँ आधुनिक युवाओं को नकारात्मक संघर्ष के लिए लामबंद किये जा रहे हैं। जो संघर्ष मानव से मानव के शोषण से मुक्ति के लिए किया जाना चाहिए था, जो संघर्ष जल-जंगल-जमीन और अवसरों की समानता के लिए किया जाना चाहिए था ,जो संघर्ष प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनों के न्याय संगत वटवारे के लिए किया जाना चाहिए था वो संघर्ष-वैश्वीकरण-बाजारीकरण -आधुनिकीकरण की चपेट में आकर इतिहास के किसी अँधेरे कोने में घायल सा पड़ा है ।
आज 'हैव्स एंड हैव्स नाट' के लिए संघर्ष की कोई चर्चा नहीं होती। जबकि इसका दायरा न केवल बिकराल हुआ है बल्कि उसका चेहरा और भी ज्यादा आदमखोर और खूखार ही हुआ है। यह नव्य उदारवाद कहता है 'वही जियेगा जो शक्तिशाली है , वही जीतेगा जो ताकतवर है ' 'कर लो दुनिया मुठ्ठी में' ''छू लो आसमान को '' इत्यादि अनुत्पादक और सफेदपोश - प्रबंधकीय नारों के कोलाहल में कमजोर वर्गों के आधुनिक युवाओं की वास्तविक संघर्ष क्षमता को सस्ते में खरीदा जा रहा है। उनके निजी और पारिवारिक भविष्य को अनिश्चितता की अँधेरी सुरंग में धकेला जा रहा है। सभ्रांत लोक के भारतीय युवाओं की ऊर्जा अर्थात वास्तविक प्रतिभा अमेरिका ,इंग्लैंड और विदेशों में खपने को उद्द्यत रहा करती है।जबकि दूसरी ओर नकारात्मकता के संघर्ष में राजनैतिक भृष्टाचार उत्प्रेरक का काम कर रहा है।
उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में ही विगत १० सालों में हजारों योग्य,परिश्रमी और संघर्षशील युवाओं को उनके हिस्से का हक नहीं मिल पाया है , जिन्हें कोई आरक्षण नहीं ,जिनका कोई 'पौआ' नहीं उन बेहतरीन योग्य और मेघावी युवाओं की संघर्ष क्षमता को निजी क्षेत्र में १२-१२ घंटे खपकर सस्ते में समेटा जा रहा है। अयोग्य,मुन्ना भाई ,रिश्वत देने की क्षमता वाले - अयोग्य और बदमाश किस्म के लोग आरक्षण की वैशाखी या सत्ता का प्रसाद पाकर अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाया करते हैं। भृष्टाचार के ' गर्दभ ' पर सवार निक्म्मे लोग जब डॉ,इंजीनियर,पुलिस, प्रोफ़ेसर,शासक-प्रशासक, प्रोफेसनल्स ,खिलाडी या नेता होंगे तो देश और समाज की बदहाली पर आंसू बहाने का नाटक क्यों ?
व्यवस्था के उतार या 'मूल्यों की गिरावट' पर इतना कुकरहाव क्यों?भृष्ट अफसर ,मंत्री,नेताओं के निठल्ले-अकर्मण्य रिस्तेदार ही जब पूरे सिस्टम पर काबिज हो चुके हों तो ईमानदार, योग्य और चरित्रवान युवाओं के समक्ष संगठित 'संघर्ष' के अलावा कोई रास्ता नहीं। मध्यप्रदेश में 'व्यापम' भृष्टाचार की अनुगूंज या यूपीए सरकार के जमाने में भृष्ट जज की न्युक्ति का रखुलासा तो देशकी भृष्टतम व्यवस्था की हाँडी के एक-दो चावल मात्र हैं। कैरियर निर्माण के व्यक्तिगत संघर्ष में सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार पूर्णतः तिरोहित होते ही जा रहे हैं ,साथ ही मौजूदा नई दुनिया का उत्तर आधुनिक ग्लोबल युवा -अपने पूर्वजों से भी ज्यादा असंरक्षित ,धर्मभीरु,लम्पट और दिशाहीन होता जा रहा है। धूर्त शासक वर्ग द्वारा उसे प्रतिस्पर्धा की अँधेरी सुरंग में धकेला जा रहा है। उसे भौतिक और निजी सम्पन्नता की मरुभूमि में नख्लिस्तान बनाकर दिखाने और कार्पोरेट जगत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। उसके हाथ पैर बांधकर गहरे कुँए में फेंककर तैरने और सबसे पहले आत्मउत्सर्ग के लिए हकाला जा रहा है। शातिर स्वार्थी प्रभू वर्ग का कहना है ' की बहाव के विपरीत तैरकर जो पहले बाहर आएगा उसे 'सफलता ' की सुंदरी वरमाला पहनायेगी। व्यक्तिगत आकाँक्षा की मृगमरीचिका के मकड़ जाल में फंसे हुए युवाओं को यह समझने का अवसर ही नहीं दिया जा रहा कि उनके नैसर्गिक -प्राकृतिक संसाधन जीवकोपार्जन के संसाधन शैक्षणिक-प्रशिक्षिणक सुविधाएँ,प्रोन्नति के अवसर,जीवन यापन की मानवीय शैली और अभिरुचियाँ उनसे कोसों दूर होतीं चलीं जा रहीं हैं। उसे नहीं मालूम की उनके लिए नैगमिक और राज्य सत्तात्मक संरक्षण का अनुपात किस हालात में है?
उत्तर भारत में और खास तौर से हरियाणा -पंजाब में स्त्री -पुरुष के लेंगिक अनुपात के क्षरण की ही तरह आधुनिक युवा पीढ़ी के लिए भी राज्यसत्ता के संरक्षण का अनुपात अर्थात संवैधानिक अधिकारों -अवसरों का अनुपात दयनीय है। जिस तरह इंदौर सराफा बाजार की गन्दी नालियों से कुछ निर्धन और वेरोजगार युवा-नर -नारी बाल्टियों में कीचड भरभर कर अपने झोपड़ों में ले जाते हैं,ताकि ये तथाकथित धूलधोये* उसमें 'संघर्ष' करते हुए गोल्ड' का कोई टुकड़ा या कण उन्हें मिल जाए। इसी तरह की हालात जिजीविषा के लिए संघर्षरत आधुनिक सम्मान आक्षांक्षी युवा पीढ़ी की है, जो अपराध जगत को पसंद नहीं करते ,जिन्हे शार्ट कट पसंद नहीं वे ही निरीह और मेघावी युवा प्रतिस्पर्धा की भट्टी में झोंके जा रहे हैं। ये युवा न केवल भारत में बल्कि दुनिया के उन तमाम राष्ट्रों में भी संघर्ष कर रहे हैं , जहाँ उनके किशोर हाथों में बन्दुक पकड़ाई जा रही है। उनके खून के प्यासे सिर्फ मजहबी उन्मादी ही नहीं हैं बल्कि वे भी हैं जो बाजारीकरण -वैष्वीकरण, निगमीकरण के तलबगार हैं.उन्हें यह जानने की फुर्सत ही नहीं कि इस तरह के संघर्ष से इंसान नहीं हैवान पैदा हुआ करते हैं।
वामपंथ की विचारधारा को न समझने वाले उजड्ड दक्षिणपंथी आलोचकों की मूर्खता के कारण वामपंथ को समझने वाले वामपंथी समालोचकों की व्यथा भारतीय दिग्भ्रमित समाज के नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसी हो गई है।
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें