भारत में आजादी के बाद के शरूआती सालों में कांग्रेस सत्ताधारी* दल हुआ करता था और तब विपक्ष में केवल *भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी* हुआ करती थी। तब जनसंघ का 'दीपक' केवल चंद राजे रजवाड़ों और साधु संतों तक सीमित हुआ करता था।1976-77 में जेपी के नेतत्व में जब जनता पार्टी बनी तबभी वामपंथ तीसरे नंबर पर हुआ करता था।
देश के विभिन्न प्रातों में जब सपा वसपा,तेलगू देशम,जदयू जैसे बदनाम जातिवादी क्षेत्रिय दलों की गाजरघांस उगी तो बाह्य परिस्थितियों द्वारा वामपंथ चौथे नंबर पर धकेल दिया गया!जब देश की साम्प्रदायिक ताकतों और विदेशी घुसपैठियों ने ममता बैनर्जी को बंगाल की सत्ता सौंपी तो वामपंथ को इकदम हासिये पर धकेल दिया गया!इसलिये मेरी नजर में भाजपा और कांग्रेस की बनिस्पत तमाम क्षेत्रिय दल और ममता बैनर्जी की त्रणमूल ज्यादा खतरनाक है! गठबंधन के अनुभव बताते हैं कि भाजपा और कांग्रेस से अधिक हानिकारक तो क्षेत्रिय दलों का अलायन्स ही है। अतः वामपंथियों को चाहिए कि क्षेत्रिय दलों के व्यामोह में उलझने सत्ता संघर्ष के एरिना में सपोर्ट बल्कि वर्ग संघर्ष के महासंग्राम की निरंतर तैयारी नखरे
वामपंथ को पूंजीवाद या सामंतवाद ने आगे बढ़ने से उतना नही रोका,जितना इन क्षेत्रिय दलों और जातिवादी राजनेताओं ने सर्वहारा की लड़ाई को हासिये पर धकेला है.अत: वामपंथी दलों को चाहिए कि भाजपा और कांग्रेस दोनों से बराबर दूरी बनाए रखें। चाहे संसदीय और विधान सभा का जरिया हो, चाहे ट्रेड यूनियनों के माध्यम से आर्थिक सुधारों पर नियंत्रण हो,चाहे जन संगठनों के माध्यम से अपना खुद का तयशुदा वर्ग संघर्ष का रास्ता हो,हर मैदान सर्वहारा क्रान्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए, किसी विवादास्पद परिवार विशेष के हाथों भारत की सत्ता सौंपने के अभियान या अलायन्स का हिस्सा नही बनना चाहिए। याद रहे ज्यों ज्यों समय बीतता जा रहा है, विभिन्न अलायन्स से संबद्धताके कारण भारत में वामपंथ का क्षरण तेजी से होता जा रहा है यह अटल सत्य है।
See insights
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें