शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

सलमान रश्दी पर कातिलाना हमला :


सर्वविदित है कि न्यूयार्क के एक सभागार में अंग्रेजी लेखक सलमान रश्दी के ऊपर उस वक़्त कातिलाना हमला हुआ, जब वह बोलने केलिए मंच पर आए. तीन दशक से भी अधिक से रश्दी अपने एक उपन्यास केलिए मुस्लिम कट्टरवादियों के निशाने पर हैं. राजीव गांधी के शासनकाल में जब उनके विवादित उपन्यास पर भारत में प्रतिबंध लगाया गया,तब मैंने अपना विरोध प्रदर्शित किया था. क्योंकि मेरी दृष्टि से किसी किताब को पढ़े बिना प्रतिबंधित करना एक जाहिलाना हरकत है.
भारत में राम -कृष्ण की पूजा भी हुई है और उनकी पर्याप्त आलोचना भी हुई है. वेदों की भी प्रतिष्ठा और प्रतिरोध साथ -साथ हुए हैं. हमारी दार्शनिक परंपरा में यदि आस्तिक पक्ष है तो नास्तिक पक्ष भी है. यह वैचारिक वैविध्य ही हमारी परंपरा की पहचान है ,उसका अभिराम पक्ष भी यही है. हम तो यही मानते हैं कि किसी को आलोचना से परेशानी होती है,तब इसका अर्थ है वह गलत रास्ते पर है.
1920 के दशक में भारत में ऐसी ही हरकत हुई थी. हालांकि वह अर्द्ध साहित्यिक प्रसंग था. सत्यार्थ -प्रकाश आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द की चर्चित पुस्तक है. इसमें ब्राह्मण धर्म सहित सभी प्रचलित धर्मों यथा इस्लाम ,बौद्ध, इसाई आदि की आलोचना उन्नीसवीं सदी की शैली में की गई है. इससे क्षुब्ध एक कट्टर मुसलमान ने दयानन्द और कृष्ण की निंदा करते हुए 1923 में दो पुस्तिकाएं लिखी. इन दोनों पुस्तिकाओं के जवाब में एक आर्यसमाजी चमूपति ने एक किताब मुहम्मद की आलोचना में लिखी. चमूपति की किताब पर गांधी जी का निन्दा लेख प्रकाशित हुआ. इससे मामले ने इतना तूल पकड़ा कि पुस्तक के प्रकाशक राजपाल जी जब अपनी दुकान में बैठे हुए थे, तब एक कट्टर मुसलमान ने छूरा घोंपकर उनकी हत्या कर दी. यह घटना 6 अप्रैल 1929 की है . पंजाब के लाहौर की है, जो तब भारत का हिस्सा था.
अंग्रेजी राज था . कातिल पकड़ा गया . जानकारी की बात यह कि जिन्ना उस कातिल के वकील बने . हालांकि उसे फांसी की सजा हुई . हैरान करने वाला तथ्य यह कि मशहूर शायर अल्लामा इकबाल उस कातिल के जनाज़े में शामिल हुए. मैं स्वयं इकबाल की काव्य -प्रतिभा का कायल हूँ ;लेकिन उनके इस कृत्य की निन्दा भी करता हूँ. गांधी के हत्यारे नाथूराम का पक्ष लेने वालों की ही तरह जिन्ना और इकबाल भी थे. इनमें अंतर कहाँ है ?
कट्टरता चाहे जहाँ और जिस स्तर पर हो , हमें उससे परहेज करना ही होगा. दूसरों को समझना और सुनना आधुनिक और सभ्य समाज की पहली शर्त होती है. लेकिन कुछ लोग हैं कि दूसरों से तो सभ्यता की अपेक्षा करते हैं और अपनी बर्बरता भी कायम रखना चाहते हैं .क्योंकि इस बर्बरता के बूते उनका वर्चस्व बना रहता है. इस्लामी सोच के साथ परेशानी यह है कि वह समय के साथ बदलना नहीं चाहता. पूरी दुनिया से उन्हें लोकतान्त्रिक व्यवहार की दरकार होती है और अपनी जड़ें सातवीं सदी के अरबिया हालात में ही रखना चाहते हैं. ऐसी ही समझ कुछ कट्टर हिन्दुओं की भी है ; जो हिंदुत्व को इस्लामी कट्टरता से संवारना चाहते हैं. म्यांमार का एक बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म को कट्टरता से संवारना चाहता है. दरअसल कट्टरता एक व्याधि है ,जो अनेक धर्मों , अनेक मुल्कों और अनेक वैचारिक पंथों में कायम है. कट्टर गांधीवादी, कट्टर मार्क्सवादी , कट्टर हिन्दू ,मुस्लिम या सिक्ख सबकी जमात एक ही है. कट्टर जातिवादी और यहाँ तक कि कट्टर देशभक्त भी उसी जमात के हैं. यही कारण था कि नोबेल पुरस्कार मिलने के तुरत बाद जब रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दुनिया के अनेक देशों की यात्रा की तब उन्होंने हर जगह उस वक़्त उभरते राष्ट्रवाद की आलोचना की . इसी राष्ट्रवादी खयालातों के आधार पर प्रथम विश्वयुद्ध हुआ था. हमारे कवि ने हर जगह मानवतावाद को रेखांकित किया था.
हमारे देश में हमारे कई मित्र हिन्दू -मुस्लिम एकता की वकालत करते हैं. दरअसल यह दो सौ साल पुरानी अवधारणा है. आज तो हमें मानवीय एकता की कोशिश करनी है. मजहबी एकता फालतू किस्म की चीज है. अव्वल तो यह कि मजहब घरेलु दायरे से बाहर जानी ही नहीं चाहिए. हमें अधिक से अधिक वैज्ञानिक नजरिए के साथ होना होगा. सेकुलर होने का अर्थ अधिक से अधिक लौकिक अर्थात दुनियादार बनना है. मेलजोल की कोशिशें मजहब को एक किनारे रख कर होनी चाहिए. हमारी यह दुनिया पूरे अंतरिक्ष का एक बहुत छोटा हिस्सा है. यह ज़िंदगी मजहबों के हवाले नहीं, खूबसूरत ख्यालों के हवाले हो ताकि हम इस दुनिया और अपनी ज़िंदगी को खूबसूरत बना सकें . यही आज का सबसे बड़ा धर्म है. यदि कोई चीज हमें नफरत , हिंसा और वर्चस्व के नजदीक लाता है तो वह त्याज्य होना चाहिए. मुल्लों ,पादरियों, पंडितों और धर्मग्रंथों की गुलामी से इस दुनिया को आज़ाद करना आज का सबसे जरूरी टास्क होना चाहिए.
मैं व्यक्तिगत स्तर पर रश्दी के लेखन का बहुत कायल नहीं हूँ; लेकिन उनपर हुए कातिलाना हमले की भर्त्सना करता हूँ.

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