सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्थान स्थान पर ११ मई १८५७ से ३१ मई १८५७ तक क्रांति की ज्वालाएँ भड़क उठीं थीं। मेरठ के क्रान्तिकारी ११ मई १८५७ को सुबह दिल्ली पहुँचे। वहाँ दिल्ली के क्रांतिकारियों ने उनका स्वागत किया और सभी ने मिलकर सर्वप्रथम लाल किले पर कब्जा किया। लाल किले में घुसकर क्रान्तिकारियों ने मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र को इक्कीस तोपों की सलामी दी और सम्राट से क्रांति का नेतृत्व करने की प्रार्थना की। १३ मई को सम्राट बहादुर शाह के नेतृत्व में दिल्ली पूरी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के राज से मुक्त हो गयी।
दिल्ली-विजय के समाचार मथुरा जनपद में १४ मई को प्राप्त हो गये। इस समाचार से मथुरा जनपद के क्रान्तिकारियों में भी हलचल तीव्र हो गयीं । १४ मई को ही मथुरा के कलैक्टर थाॅर्नहिल को सूचना मिली कि दिल्ली को स्वतंत्र करवाने के बाद क्रान्तिकारी मथुरा की ओर बढ़ रहे हैं। परिस्थिति की गम्भीरता को समझ कर मथुरा के कलैक्टर मार्क थाॅर्नहिल ने भरतपुर के मजिस्ट्रेट से सैन्य सहायता माँगी। १६ मई को कैप्टन निक्सन तीन हजार सैनिकों की एक सेना लेकर मथुरा आगया, मथुरा आने पर उसे ज्ञात हुआ कि क्रांतिकारियों के मथुरा आने की सूचना ग़लत है तब १९ मई को उसने मथुरा से दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। निक्सन के साथ थाॅर्नहिल भी कोसी तक गया वहाँ दोनों ने पड़ाव डाला।
२० मई को मथुरा जनपद की सीमा से लगे हुए अलीगढ़ जनपद में, सेना की ९ नम्बर कम्पनी के मुख्यालय में, तीन अंग्रेज सैनिकों की मुखबरी पर, क्रांति के प्रचार एक ब्राह्मण को भारतीय सैनिकों के समक्ष फाँसी पर लटका दिया गया। अंग्रेजों की इस हरकत से भारतीय सैनिकों को क्रोध आगया। एक सैनिक ने अपनी तलवार निकाल कर, ब्राह्मण के उस लटकते हुए शरीर की ओर संकेत करते हुए कहा, " भाइयो ! यह शहीद हमारे लिए फाँसी पर लटक गया और हम तमाशा देख रहे हैं।" इस पर भारतीय सैनिक भड़क उठे, उन्होंने विद्रोह का शंखनाद कर दिया और अंग्रेजों को तत्काल अलीगढ़ छोड़ कर जाने के लिए कहा, परिस्थिति की गम्भीरता को भाँप कर भयभीत अंग्रेजों ने तुरन्त अलीगढ़ छोड़ दिया और २० मई की अर्द्धरात्रि से पूर्व ही स्वतंत्रता का हरा झण्डा अलीगढ़ पर फहराने लगा। क्रान्तिकारी बहुत-सा ख़ज़ाना और अस्त्र-शस्त्र लेकर अलीगढ़ से दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गये।
२१ मई की सुबह तक अलीगढ़ के ये समाचार, अलीगढ़ की सीमा से लगे हुए मथुरा जनपद के माँट और नौहझील परगनों में पहुँच गये। परिणाम स्वरूप माँट और नौहझील के क्षेत्र में क्रांति की लपटें तीव्र हो गयीं। नौहझील में कई अंग्रेज भक्तों को क्रान्तिकारियों ने मौत के घाट उतार दिया और अन्य अनेक घटनाओं को अंजाम दिया। माँट क्षेत्र में राया और उसके आसपास के गाँव तो पहले से ही धधक रहे थे।
राया के निकट अँचरू गाँव के राजा देवीसिंह, सम्पूर्ण मथुरा जनपद के क्रांतिकारियों के अग्रणीय नेता थे। सम्राट बहादुर शाह जफ़र ने बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह की सलाह से देवीसिंह को राया क्षेत्र के १४ गाँवों का राजा घोषित किया था। दिल्ली सम्राट के साथ अंग्रेजों के दुर्व्यवहार से देवीसिंह पहले से ही क्रोध में थे। देवीसिंह के नेतृत्व में राया के थाने को आठ दिन तक घेर कर रखा गया। पुलिस वाले और थानेदार अपनी जान बचाकर वहाँ से भागे। क्रान्तिकारियों ने थाना और थाने के काग़ज़ात पूरी तरह अग्नि की भेंट कर दिये। देवीसिंह अंग्रेजी राज के कट्टर शत्रु हो चुके थे। उन्होंने राया और आसपास के ग्रामीणों को संगठित कर क्रान्तिकारियों की एक सेना तैयार करली और उसे भारतीय सैनिकों से प्रशिक्षित भी करवाया।
२५ मई को मथुरा के कलैक्टर थाॅर्नहिल को कोसी में यह समाचार मिला कि मथुरा जनपद के ग्रामीण अंचलों में क्रन्ति की चिंगारियाँ उठ रही हैं। उस समय कलैक्टर थाॅर्नहिल ने कैप्टन निक्सन के साथ कोसी में पड़ाव डाल रखा था। कैप्टन निक्सन ने रधुनाथ सिंह के नेतृत्व में ३०० सैनिकों की भरतपुर की सेना और दो तोपें थाॅर्नहिल को सहायता के लिए सोंपीं और स्वयं दिल्ली की ओर बढ़ गया।
मथुरा के कलैक्टर रहे अंग्रेज, एफ. एस. ग्राउस ने अपनी पुस्तक 'मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मैमोयर' में लिखा है कि राजा देवीसिंह ने रधुनाथ सिंह नामक अपने एक गुप्तचर को निक्सन के तीन सौ सैनिक और सेठों द्वारा दी गयी दो तोपें, लेने का काम सोंप कर मथुरा भेजा था। रघुनाथ सिंह ने निक्सन की सेना में भर्ती हो कर तीन सौ सैनिक और तोपों पर अधिकार प्राप्त करने में सफलता भी प्राप्त करली थी। इतिहासकारों ने लिखा कि मथुरा की सुरक्षा के लिए मथुरा के तत्कालीन नगर-श्रेष्ठी सेठ राधाकिशन और सेठ गोविंददास ने ये ३०० सैनिक अपने खर्चे से निक्सन की सेना में भर्ती करवाये थे और ये दो पीतल की तोपें भी इन्हीं सेठों ने दी थीं।
इस समय तक मथुरा जनपद में विदेशी शासन की स्थिति बहुत कमजोर हो चुकी थी। अंग्रेज अधिकारियों को ख़ज़ाने की चिंता हो रही थी। उस समय मथुरा के ख़ज़ाने में ६ लाख २५ हजार चाँदी के रुपये थे। कलैक्टर थाॅर्नहिल ने लैफ्टीनेण्ट गवर्नर काॅलविन से ख़ज़ाने को आगरा पहुँचाने की स्वीकृति माँगी। ( आगामी कड़ी : ख़ज़ाने की लूट)
Sabhar ;डॉ.नटवर नागर
वैदिक आचार्य, साहित्यकार, पत्रकार एवं शिक्षाविद
इतिहास संकलन समिति ब्रजप्रान्त, मथुरा (उ.प्र.)
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