बचपन से बिहार उड़ीसा के बारे में सुनता आ रहा हूँ कि उस राज्य की राजनीति में पिछड़ेपन के अलावा कुछ खास नहीं है! बिहार में वही राज कर सकता है जो *राग पिछड़ापन*गाते हुए बिहार को कंगाली की खाई में धकेल दे !
बिहार में विगत 45 साल से पिछड़ा या दलित ही मुख्यमंत्री बनता रहा है! किंतु न तो बिहार का पिछाड़ापन खत्म हुआ और न ही तथाकथित पिछड़े वर्ग के विकास पुरुषों और चाराखोर नेताओं की मानसिकता में कोई सकारात्मक परिवर्तन हो सका है!
बेशक बिहार में एक दो जातियों का आर्थिक पिछड़ापन तो दूर हो गया है,किंतु सत्ता में बने रहने के लिये उन जातियों के भ्रस्ट दबंग नेताओं का मानसिक पिछड़ापन अभी तक दूर नही हुआ! बिहारी राजनीति ने जातिवाद को सबसे महत्वपूर्ण बना दिया है? वहाँ शिक्षा स्वास्थ्य, पेयजल,बाढ़ की विभीषिका रोकने के स्थाई निदान के लायक मानसिक चेतना का कोई चिन्ह दिखाई नही दे रहा है?
बिहार के जातीय समाज का चेहरा पहले से ज्यादा वीभत्स और कुरूप हो चुका है!
बिहार से इतर भारतीय समाज में पटेल-पाटीदार,प्रधान, पोद्दार,मुखिया,मौरूसी, लम्बरदार,जमींदार, सेठ ,साव ,साहू और चौधरी ये सब जाति,वर्ण या गोत्र नहीं हैं। बल्कि ये सब तो भारत की सामंकालीन शासन व्यवस्था के अंग हुआ करते थे! ये सभी शक्तिशाली पद युगों युगों तक सबल और सक्षम समाज की पदवियाँ रहे हैं। मंडल आयोग ने इन सबको पिछड़ा घोषित कर कोई उपकार नही किया. बल्कि आरक्षण के नाम पर सदा सदा के लिये पिछड़ेपन का दाग लगाकर कलंकित किया है!
मध्युग में व्यवस्था संचालन के लिए राजे -रजवाड़े अपने हाकिम -कारकुन रखते थे। जाहिर है कि उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। प्रस्तुत पदवीधारी समाज खाते -पीते खास लोगों का ही हुआ करता था। अब यदि ये सनातन से सम्पन्न समाज भी मौजूदा दौर में आरक्षण मांगने की दयनीय अवस्था में आ चूका है तो उनका क्या हाल होगा ? जिनके पूर्वज पहले सिर्फ आम आदमी हुआ करते थे!
और उनका क्या होगा जो जाति से तो ऊँचे थे, किंतु पेट भरने के लिये भीख मांगा करते थे!यदि पिछड़े नेताओं के दबाव में पी एम मोदीजी ने जातीय जनगणना का प्रस्ताव मान लिया तो हिंदू समाज आपस में उलझ कर कमजोर हो जाएगा और यह आत्मघाती कदम भारत को पुन: गुलामी की माँद में धकेल सकता है!
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