जब कोई भी इतिहासकार कहता है कि श्रीराम ,लक्ष्मण , हनुमान, कृष्ण बलराम अर्जुन तो मिथ हैं , १२ वीं सदी के आल्हा उदल मिथ हैं ,१५वीं सदी के हेमचंद्र विक्रमादित्य* मिथ हैं, मेवाड़ की जौहरवती रानी पद्मावती या पदमिनी मिथ हैं,तो इसके दो ही मायने हो सकते हैं। एक तो यह कि वह नितान्त जड़मति मूर्ख नकलपट्टी करके इतिहास का प्रोफेसर बना होगा। दूसरा कारण यह हो सकता है कि उस इतिहासकार के मन में हिन्दू प्रतीकों और हिन्दू सभ्यता संस्कृति के प्रति अगाध घृणा भरी होगी।
जो व्यक्ति सच्चा प्रगतिशील -सच्चा धर्मनिरपेक्ष होगा, वह कभी भी कल्पना अथवा झूँठ का सहारा नहीं लेगा। इतिहास का ककहरा जानने वाला भी जानता है कि हर दौर में आक्रान्ताओं ने अपने पक्ष का इतिहास लिखवाया है।जो व्यक्ति यह मानता है कि इब्ने बतूता,अलबरूनी, बाबर,हुमायूँ ,अबुलफजल, जहांगीर रोशनआरा ने जो कुछ लिखा वो सब सच है। तो उस व्यक्ति को यह भी मानना होगा कि यह सच केवल उनका था जिन्होंने लिखा है। जब तक इतिहास को निरपेक्ष सर्वधर्म समभाव से नही लिखा पढ़ा जाता, तब तक सामाजिक सद्भाव और राष्ट्र में स्थाई शांति का हमारा लक्ष्य दिवास्वप्न ही है!
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