6-7 साल पहले ऋषि पंचमी के अवसर पर निमाड़ [मध्यप्रदेश] के 'टांडा 'ग्राम में गायत्री परिवार द्वारा एक विचित्र किन्तु अद्व्तीय सामाजिक -सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था! यह कार्यक्रम पूर्णतः प्रबुद्घ *आदिवासियों का ,आदिवासियों के द्वारा ,आदिवासियों के लिए* ही सम्पन्न किया गया था!
इस कार्यक्रम में यूपी राजस्थान छग, झाबुआ निमाड़ और मालवा के लगभग पांच हजार आदिवासी शामिल हुए थे सभी का विधिवत यगोपवीत संस्कार किया गया था! मुंडन ,जनेऊ , कुश -आशन एवं अधोवस्त्र इत्यादि समस्त 'ब्राह्मण' प्रतीकों से सुसज्जित इन सहस्त्रों 'वटुकों ' की ग्रुप फोटो 'नई दुनिया 'के रविवारीय अंक में प्रकशित हुई थी
यह दृश्य देखकर कई कुलीन ब्राह्मणों को ईर्ष्या हुई! वे कहते पाए गये कि " हम वंशानुगत कुलीन ब्राह्मण हैं, और इस तरह विधि विधान से हम में से कई एक का यज्ञोपवीत संस्कार इस तरह भव्य आयोजन से नही हो पाया! आयोजन का आँखों देखा वर्णन निम्नाकिंत है! :-
आयोजन में शामिल आदिवासियों के 'संत' श्री डेमिन भाई डाबर ने वहाँ स्वस्तिवाचन किया। तमाम आदिवासियों को वैदिक सूक्तियों के उद्धरणों से परम अभिषिक्त किया गया! उन्हें बताया गया कि
"जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्चते ''
अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य एक जैसे 'असंस्कृत' ही हुआ करते हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों कोई मनुष्य उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की ,समाज की ,देश की और विश्व कल्याण की भावनाओं को अंगीकृत करते हुए 'सुसंस्कृत' होता जाता है, त्यों-त्यों वह मनुष्यत्व के उच्चतर शिखर पर प्रतिष्ठित होता जाता है। तब वह 'विप्र' हो जाता है।" इस कार्यक्रम में आदिवासियों के अलावा और भी बहुत सारे स्थानीय पिछड़े -दलित और कास्तकार जन भी उपस्थित रहे।
आदिवासी 'संत' डोमिन भाई*के इन विचारों को सिरे से ख़ारिज तो नहीं किया जा सकता। किन्तु उन्हें यथावत स्वीकृति भी नहीं दी जा सकती। उनके इस उपक्रम को 'नवब्राह्णणवाद' कहें या क्रांतिकारी परिवर्तन यह निर्णय हर कोई एरा- गैरा -नत्थुखेरा नहीं कर सकता। बल्कि इसका फैसला सिर्फ वही लोग कर सकते हैं ,जिन्हे भारत के आदिवासियों की आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन यात्रा का सम्पूर्ण ज्ञान है। जिन्हे भारतीय सनातन संस्कृति के साथ साथ राष्ट्रीय एकता और सामाजिक एकीकरण की प्रक्रिया का वास्तविक इतिहास मालूम है। और जिन्हे आधुनिक दुनियावी वैज्ञानिक-विकासवादी सिलसिले का यथासंभव ज्ञान है। इस विमर्श में हस्तक्षेप से पहले हम संछिप्त विषय प्रवर्तन भी किये देते हैं।
दुनिया की किसी भी सभ्यता और संस्कृति का नकारात्मक विकास साधारण मनुष्यों द्वारा या आदिवासियों द्वारा नहीं हुआ। और यह सिलसिला धरती की सेहत के लिए भी अच्छा ही था। क्योंकि आदिवासी बड़े 'प्रकृति-पारखी ' हुआ करते हैं। भले ही वे खुले आसमान के नीचे - झोपड़ों में गुजर-बसर करते रहे ,किन्तु किसी नदी , तालाब ,वन -उपवन ,पर्वत - झील की शक्ल सूरत उन्होंने कहीं -कभी नहीं बिगाड़ी । आदिवासी जानते और मानते रहे हैं कि "चींटियाँ घर बनाती हैं और साँप उसमें रहने आ जाते हैं ! " शायद इसीलिये प्राग ऐतिहासिक काल से ही आदिवासी सारी दुनिया में ऊँचे-ऊँचे महल ,बड़े-बड़े पुल ,हजारों मील लम्बे राजमार्ग और बड़ी-बड़ी नहरें तो बनाते रहे। किन्तु भारतीय गिरमिटियों की तरह इन अफ़्रीकी अश्वेतों[आदिवासियों] ने भी पश्चिम के श्वेत प्रभु वर्ग को वह सब सृजन करके दिया जो पौराणिक और परी कथाओं में केवल जिन्न ही कर सकते हैं। साइंस और टेक्नॉलॉजी के चरम विकास ने , विभिन्न क्रांतियों ने और राष्ट्रों के लोकतंत्रीकरण ने शिद्द्त से यह सुनिश्चित कर दिया है ,कि आधुनिक दुनिया के हर महाद्वीप के आदिवासी आइन्दा अपनी खुद की ही आदि - पुरातन संस्कृति को टाटा-बाय-बाय कर 'सभ्रांत' वर्ग की नकल शुरू कर दें । भारत के छग,झारखंड , झाबुआ - निमाड़ में यही सब हो रहा है।
कहा जा सकता है कि किसी अति -उन्नत नगरीय सभ्यता का विकास आदिवासियों ने नहीं किया। मानव इतिहास में न केवल आदिवासी बल्कि अन्य आमजन की भी कहीं कोई उल्लेख नहीं है,कि इस वर्ग ने किसी नयी सभ्यता या संस्कृति का सृजन किया हो। बल्कि इस वर्ग के द्वारा 'सभ्रांत वर्ग'का सिर्फ अनुपालित ही किया जाता रहा है। अर्थात सभ्यताओं का उत्थान-पतन 'लोक' के द्वारा नहीं बल्कि ' राज्य सत्ताओं',सबलवर्ग ऐतिहासिक युद्धों -बड़ी लड़ाईयों ,महाँन क्रांतियों और कुर्बानियों की बदौलत ही आधुनिक सभ्यताएं परवान चढ़ी हैं। वेशक यह सभ्यता और संस्कृति परिष्करण आदिवासियों ,कारगर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के श्रम की बदौलत ही संभव हुआ है। उत्तर -दक्षिण अमेरिका , आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड , अफ़्रीकी महाद्वीप व समस्त 'गुलाम सन्सार' का कायाकल्प साधारण लोगों ने नहीं किया। बल्कि वे तो सत्ता के निर्जीव औजार मात्र रहे हैं। वेशक सम्पूर्ण श्रम तो आदिवासियों और आम साधारण इंसान का ही रहा है किन्तु नए सन्सार की खोज और साइंस के आविष्कार तो -कोलंबस ,वास्कोडिगामा,टॉमस -रो ,थॉमस अल्वा एडिसन ,न्यूटन और गैलीलियो जैसे वैज्ञानिकों और यायावर महा नाविकों ने ही की है। नयी दुनिया की खोज करने के लिए, पानी के बड़े जहाज और खाना -खर्चा तो ततकालीन राज्य सत्ताओं द्वारा ही मुहैया किया जाता रहा है।
भारत के आदिवासी यदि उच्च वर्ण या सभ्रांत लोक का अनुसरण करते हैं तो यह भारत के लिए और भारत के आदिवासियों के लिए कुछ हद तक मुफीद हो सकता है। किन्तु उन्हें सोचना चाहिए कि जब किसी मुल्क में एक अनार और सौ बीमार हों ,जब एक बस में ५० सीटें हों और यात्री १०० हों ,जब एक ट्रेन की यात्री क्षमता ३०० हो और उसमें १००० यात्री चढ़ जायँ , और जब चपरासी की नौकरी के लिए २०० पद ही रिक्त हों और तीन लाख युवा ग्रजुऐट चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन करने लगें , तो हिन्दुत्ववादियों ,गायत्री परिवार वालों और 'सनातन परम्परा 'वालों को अपने इस 'दीक्षांत समारोह' पर पुनर्विचार करना होगा। और आदिवासियों के आधुनिक सनातनी नेता -संत 'डोमिन भाई को , अन्य मजहबी नेताओं को भी सोचना पडेगा कि केवल जनेऊ - यगोपवीत धरण करने से ,कुशाशन पर बैठकर लोम-विलोम करने से 'सभ्रांत लोक' की मुख्यधारा में शामिल नहीं हुआ जा सकता । वैसे भी यह सभ्रांत लोक तो मनुवादी कहकर दुत्कारा जा चुका है। जब बाबा साहेब श्री भीमराव अम्बेडकर जी ,श्री कासीराम जी ,श्री जगजीवनराम जी और अन्नादुराई को यह सभ्रांत लोक पसंद नहीं आया तो उनके आधुनिक सजातीय बंधू क्यों 'दंड-कमंडल'और जनेऊ धारण के लिए हलकान हो रहे हैं ?
वेशक हर दौर की सभ्यता और संस्कृति भी उस दौर की भाषा और वैज्ञानिक तकनीकी के अनुरूप लोकोपकारी रही होगी। किन्तु इस आधुनिक डिजिटलाइज युग में ,भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के युग में आदिवासियों को साइंस और टेक्नॉलॉजी से सुसज्जित करने और उन्हें आर्थिक रूप से सबल बनाने की जरुरत है। केवल पुरातन सांस्कृतिक रूपांतरण से रोटी-कपड़ा और मकान तो क्या आदिवासी को केवल वामनों कीतरह लंगोटी ही हाँथ आएंगी।
श्रीराम तिवारी
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