रविवार, 11 सितंबर 2022

*वैज्ञानिक साम्यवाद *की अंतिम परिणति

 जो लोग वैज्ञानिक भौतिकवाद संबंधी मार्क्स ऐंगेल्स की सैद्धांतिक स्थापनाओं पर सवाल उठाते हैं और जो लोग वेदांत दर्शन *ब्रह्म सूत्रों* पर सवाल उठाते हैं, वे पशुवत निरीह प्राणी हैं! अधकचरे प्रश्नकर्ताओं के अपरिपक्व प्रश्नों के उत्तर तो साधारण समझ वाला दार्शनिक भी नहीं देता! हालाँकि यदि कोई गंभीर अध्येता समालोचनात्मक प्रश्न करेगा तो उसके जबाब महर्षि अरविंदो के दर्शन अतिमानववाद *में निहित है!

अन्यथा जिन लोगों ने भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन -खास तौर से जर्मन दर्शन का सांगोपांग अध्ययन किया है, वे इन सवालों के जबाब बखूबी जानते हैं! कुछ विद्वान उसे एक साथ द्वंदात्मक भौतिकवाद और महर्षि अरविंदो के अतिमानवतावाद में देखते हैं!
केवल आलोचना के वशीभूत होकर बड़े से बड़ा जातिवादी नेता, केवल थोथा चना बाजे घना...! जो लोग जीवन पर्यंत दूसरों की रेखा मिटाकर अपनी रेखा बढ़ाने का दुष्कर्म करते रहे,वे हीगेल के भाववादी दर्शन की द्वंद्वात्मकता और मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन के विकास क्रम में साम्यवादी अवस्था(व्यवस्था नही) की ऐतिहासिक भूमिका का महत्व स्वीकार करते हैं! किंतु इस *क्रांति दर क्रांति*सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक क्रमिक विकास को जाने बिना, उपरोक्त अवैज्ञानिक सवालों को ढोते रहने के लिए अभिशप्त रहते हैं!
यदि किसी को यह साधारण ज्ञान न हो कि *वैज्ञानिक साम्यवाद *की अंतिम परिणति *वर्गविहीन,राज्यविहीन,समाजवादी समाज* व्यवस्था है, और उसके आगे के कालक्रम में पुन: आदिम साम्यवादी व्यवस्था, फिर सामंती व्यवस्था, फिर पूँजीवाद और नव्य क्रोनी पूँजीवाद और फिर यही सवाल कि ढाक के तीन पात क्यों? जो इस रहस्य को भारतीय वेदांत दर्शन के चश्में से जानता है तद्नुसार वही ब्रह्मज्ञानी है !और जो पाश्चात्य भौतिकवादी द्वन्दात्मक दर्शन के अनुसार इस रहस्य को जानते हैं, वे सच्चे साम्यवादी या मार्क्सवादी हैं! किंतु जो न तो वेदांत दर्शन को जानते हैं, और जो न ऐतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद को जानते हैं, वे अज्ञानता के बिजूके हैं! श्रीराम तिवारी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें