आज विश्व शोक दिवस है ! आज ही के दिन मानवता के महान सपूत मोहनदास करम चंद गांधी की निरशंस -जघन्य हत्या हुई थी। नाथूराम गोडसे तो निमित्त मात्र था। बापू के असली कातिल तो आज भी जिन्दा हैं।वे बापू को मारने के बाद उनके विचारों की हत्या के षड्यंत्रों में जुटे हैं। उनके मुख में राम है किन्तु बगल में छुरी है। वे भारतीय संविधान को नहीं मानते। उनका अपना विधान है। उस विधान में लोकतंत्र ,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को कोई स्थान नहीं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि उनके इस सामंतयुगीन अवैज्ञानिक विधान के कारण ही भारत सदियों तक गुलाम रहा है। वे अतीत के आक्रमणकारी शासकों के गुनाहों का बदला मौजूदा पीढ़ी से लेने के लिए उतावले हो रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता पर हमला करने वाले शायद भूल रहे हैं कि भारत में इसी धर्मनिरपेक्षता की बदौलत लोकतंत्र ज़िंदा है। वे लोकतंत्र के जिस वृक्ष को काटने पर आमादा हैं उसी की बदौलत आज सत्ता में हैं। यह भारत की जनता का दुर्भाग्य है की संविधान की रक्षा का दायित्व उनको दे दिया जो उसे 'हलाक' करने की फ़िराक में हैं !
प्रायः संसार की सभी सभ्यताओं -धर्म -मजहबों और विचारधाराओं में यह सर्वमान्य स्थापना है कि किसी निर्दोष की हत्या करना पाप है। किसी महापुरुष की हत्या तो और भी बड़ा महापाप है। महापुरुषों के पवित्र विचारों की हत्या उससे भी जघन्य और कृतघ्नतापूर्ण अपराध है। भारतीय दर्शनों में - वैष्णव ,बौद्ध तथा जैन वाङ्ग्मय में तो जीव मात्र की हिंसा वर्जित है। जैन दर्शन के एक सूत्र - " किसी भी मनुष्य को मानसिक कष्ट पहुँचाना भी हिंसा ही है '' - इस उच्चतम मानवीय संवेदना के आह्वान को यदि वाल्तेयर ने जाना होता तो शायद वो भी शरमा जाता। किन्तु भारत में एक विशेष साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग यह सब जानते हुए भी 'कृत संकल्पित' हैं कि " हम नहीं सुधरेंगे''। वे उस महापुरुष के विचारों की हत्या पर उतारू हैं जिसे गोडसे ने आज ३० जनवरी के ही दिन गोलियों से भून दिया था।
गांधी जी की हत्या हुई ,कोई नयी बात नहीं। दुनिया में अनंतकाल से ये हिंसक अमानवीय सिलसिला चला आ रहा है। देशभक्तों की हत्या दुश्मनों के हाथों तो आज भी जारी है। शहीद कर्नल एमएन राय को तो गणतंत्र दिवस में सम्मानित होने के दूसरे रोज ही सीमाओं पर दुश्मन के नापाक हाथों अपनी शहादत देनी पडी। किन्तु यह तो युद्धजनित वीरगति का ही हिस्सा है। अमर शहीद ने देश के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया। उसे क्रांतिकारी सलाम ! यह सौभाग्य भी विरलों को ही मिलता है। इसमें दुःख के आंसू नहीं होते। बल्कि शौर्य और वीरता का राष्ट्रीय गौरव परिलक्षित हुआ करता है। शोक तो उस हिंसा का मनाया जाना चाहिए कि जो देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराये उसे अपने ही 'सपूतों' के हाथों शहीद होना पड़े ! अकेले एक गोडसे के हाथ गांधी के खून से रँगे हों तो भी सब्र किया जा सकता है। शायद एक ' ब्राह्मण' के हाथों 'सद्गति' मिली है गांधी को। संघ के अनुसार तो पतितपावन ब्राह्मण के हाथों 'गांधी बध ' हुआ है। उनके अनुसार -विप्र के हाथों 'हिंसा -हिंसा न भवति' !
किसी मुहम्मद ,किसी 'खान' ने गांधी को मारा होता तो "दईया रे दईया ' अनंत काल तक उसे महा रौरव नरक में सड़ना पड़ता ! गांधी को मारने के बाद अब गांधीं के उसूलों एवं सिद्धांतों याने धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र की बारी है। वेशक फासिस्ट तत्वों ने अभी तो अंगड़ाई ही ली है। उनका मानना है कि आगे और लड़ाई है। इन्ही मंसूबों के मद्देनजर भारत सरकार ने इस दफे गणतंत्र दिवस - २६ जनवरी को कोई विज्ञापन जारी किया। जिसमें भारतीय संविधान की अधूरी प्रस्तावना प्रकाशित की गई। समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जानबूझकर हटा दिए गए। देश के तमाम बुद्धिजीवी और राजनैतिक विपक्ष ने इसकी आलोचना की है। शिव सेना ने समर्थन किया है। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद जी ने आग में घी डाल दिया है । उन्होंने इस विषय पर 'बहस' की मांग की है।
बहस से वो घबराते हैं जो कच्चे - पाखंडी गुरुओं के चेले होते हैं। बहस से वे धबराते हैं जो रूप सौंदर्य जवानी या नकली मार्कशीट के बल पर मंत्री बन जाते हैं। इन्ही के कुछ पूर्वज अतीत में भी इन्ही सवालों पर गांधी जी से तर्क या बहस में नहीं जीत सके, इसीलिये उन्होंने गांधी जी को गोलियों से भून दिया। बहस में कुतर्क दिया जा सकता है कि ४२ वां संविधान संशोधन -गांधी जी या अम्बेडकर जी ने थोड़े ही किया था ! कुतर्क दिया जा सकता है कि भारतीय संविधान का ९९ % तो विदेशो संविधानों से ही उधार लिया गया है। इन कुतर्कवादियों को याद रखना होगा कि उनके हाथ में मौजूद मोबाईल ,कम्प्यूटर ,लेपटाप ,घड़ी ,पेन से लेकर चश्मा ,स्कूटर कार ,हवाई जहाज सब के सब विदेशी हैं। रेल -डाक-तार औरवह एटॉमिकसंसाधन भी विदेशी ही होंगे जिनके लिए मोदी जी अमेरिका ,आस्ट्रेलिया जापान के चक्कर लगा रहे हैं।
भारतीय धर्मग्रंथों में भले ही बड़ी -बड़ी बातें लिखी हों. ब्रह्मज्ञान लिखा हो ! मोक्ष या बैकुंठ प्राप्ति के साधन बातये गए हों किन्तु गैस का चूल्हा हो ,या चावल पकाने का कूकर हो ,सबके सब विदेशी तकनीक हैं। वेशक वेद ,गीता ,गाय ,गंगा ,तुलसी ,कुम्भ मेला जैसी स्वदेशी चीजें जरूर हमारे पास हमेशा रहीं हैं किन्तु टॉयलेट के लिए ,शुद्ध पेय जल के लिए या बिजली -ऊर्जा के लिए मोदी सरकार द्वारा भी विदेश का ही अनुगमन किया जा रहा है। क्यों ? क्यों भारत के प्रधान मंत्री जी दुनिया में घूमकर विदेशी पूँजी -विदेशी टेक्नालाजी के लिए लालायित हैं। आप अपना प्राचीन ब्रह्मज्ञान इस्तेमाल कीजिये न ! यदि कोई संघी भाई बाकई पूर्ण स्वदेशी वस्तएं या पूर्ण स्वदेशी संविधान चाहता है तो उसे 'दिगंबर' हो ना पडेगा । इसके आलावा उसके समक्ष कोई दूसरा रास्ता नहीं। क्योंकि एकमात्र यही अवस्था है जब मनुष्य स्वदेशी-विदेशी के चक्रव्यूह से बाहर हो जाता है।
वास्तव में भारत जैसे गतिशील , प्रवाहमान ,बहुसंस्कृतिकताधर्मी ,बहुदर्शनाभिलाषी बहुभाषी एवं जीवंत राष्ट्र के सत्तारूढ़ नेतत्व से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह धर्मनिरपेक्षता या समाजवाद जैसे सार्वभौम सत्य पर बहस के बहाने शीर्षासन करने लगे। क्या 'सत्यमेव जयते ' या 'जयहिंद' पर वहस की कोई गुंजाइस है ? ठीक उसी तरह धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद भी भारतीय अस्मिता के प्राण तत्व हैं। जिन्हें इनसे तकलीफ है उनसे पूंछा जाना चाहिए कि तुम्हारे शरीर में 'आत्मा' की क्या जरुरत है ? जिस प्रकार गांधी , गंगा, हिमालय, भगतसिंह ,या भीमराव आंबेडकर के नाम मात्र से भारतीयता के गौरव का संचार होता है। उसी तरह भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के ध्वनित होने मात्र से उसकी वैचारिक समृद्धि और जीवंतता का बोध होता है।इसी की बदौलत ही तो भारत अकेले ही चीन और पाकिस्तान को यूएनओ में ललकारने की क्षमता रखता है।
जब किसी विषय पर विमर्श या बहस की माँग उठती है तो उसके दो प्रमुख निहतार्थ होते हैं। एक तो उस विषयवस्तु के वैज्ञानिक विश्लेषण -अनुसंधान और तदनुरूप मानवीयकरण के निमित्त प्रयोजन। दूसरा -चूँकि वह विषयवस्तु पसंद नहीं इसलिए उस पर रायता ढोलने के निमित्त वहस के बहाने ऑब्जेक्ट का बंध्याकरण। किसी व्यक्ति , विचार ,सिद्धांत या दर्शन से असहमति होना कोई बेजा बात नहीं। किन्तु उसका सम्पूर्ण राष्ट्र पर थोपना या राष्ट्र के सामूहिक हितों पर कुछ लोगों के निहित स्वार्थों को बढ़त दिलाने की कोशिश को 'असहमति का विमर्श' या शुद्ध सात्विक वहस नहीं कहा जा सकता।
भूमंडलीकरण , वैश्वीकरण और बाजारीकरण के ८० % परिणाम यदि भारत के खिलाफ जाते हैं तो २० % उसके लिए शायनिंग और फीलगुड वाले भी हैं। पेट्रोलियम उत्पादक देशों की आपसी मारामारी से प्राकृतिक कच्चे तेल के भाव बहरहाल बहुत नीचे चले गए हैं। चूँकि भारत को पहले के मुताबिक अभी तो निर्यात खर्च में कुछ राहत है। दुनिया भर में भारत को सस्ते श्रम और अन्य संसाधनों के निमित्त उभरते विकाशशील बाजार का उत्प्रेरक माना जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने चीन और भारत को भविष्य में विश्व की तीसरी अर्थ व्यवस्था का पारस्परिक प्रतिद्व्दी माना है। उनका आकलन है कि आगामी २० साल बाद भारत की अर्थ व्यवस्था चीन से आगे होगी। चीन की तारीफ तो आज सारी दुनिया ही कर रही है ! सभी उसकी विराट शक्ति से आक्रान्त हैं ! अमेरिका सहित समस्त विश्व पूंजीवाद को चीन की यह बढ़त पसंद नहीं है। इसलिए एक षड्यंत्र के तहत भारत को चीन के खिलाफ जान बूझकर प्रतिद्व्न्दी बनाकर खड़ा किया जा रहा है। बहरहाल जब विश्व बैंक के प्रवक्ता से पूंछा गया कि भारत में ऐंसी क्या खासियत है कि वह चीन से आगे बढ़ सकता है ? तो उस प्रवक्ता का जबाब था कि भारत में लोकतंत्र है ,भारत में धर्मनिरपेक्षता है। अब मोदी जी ,रविशंकर प्रसाद को यदि यकीन है कि वे लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता की हत्या करके चीन पर बढ़त बना सकते हैं तो मेरी शुभकामनाएं ! तब ओबामा जी , साथ देंगे यह भी 'श्वेत भवन' से अवश्य पूंछ लें। बिना लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता के पंखहीन भारत हो जाएगा। ऐसे हालत में यह चीन की बराबरी १०० साल तक भी नहीं कर पायेगा।यह धर्मनिरपेक्षता ही है ,यह लोकतंत्र ही है और यह समाजवाद की आकांक्षा ही है जो भारत की जनता को जोड़े हुए है। इसी में उसका उज्जवल भविष्य सुरक्षित है। आमीन !
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें