भारत में 'फूट डालो -राज करो' के सिद्धांत का आरोप अक्सर अंग्रेजों पर शायद इसलिए लगाया जाता रहा है। जबकि यह एक तोता रटंत अर्धसत्य ही है। भारत को गुलाम बनाने के लिए ,भारत में जातीयतावाद बढ़ाने के लिए , भारत में आधुनिक किस्म की हिंसक साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए न तो भारत का तत्कालीन हिन्दू समाज जिम्मेदार है और न ही ब्रिटिश साम्राज्य की 'फूट डालो राज करो की नीति '। वास्तव में अंग्रेजों ने तो भारतीय महिलाओं को पर्दा प्रथा ,सती प्रथा , जौहर इत्यादि कुरीतियों से मुक्त करने मेंहर संभव मदद ही की थी। उन्होंने तो राजा राम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, केशवचन्द सेन जैसे अन्य अनेक समाज सुधारकों को पूरा-पूरा सहयोग और सम्मान ही दिया था। तब सवाल ये है कि भारत में कुप्रथाओं के लिए ,जातीयतावाद के लिए, साम्प्रदायिक उन्माद के लिए जिम्मेदार कौन था ?
खबर है कि बहुमत के घमंड और सत्ता के मद चूर वर्तमान भारतीय सत्तासीन नेतत्व की भारतीय संविधान पर 'बक्रदृष्टि ' पड़ चुकी है। वे बहरहाल तो अपने प्रथम चरण में 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' पर हमला करने जा रहे हैं। भारतीय जनता जनार्दन की कृपा रही और यदि कांग्रेस तथा अन्य पार्टियां इसी तरह अपने आपको शुतुरमुर्ग बना कर काम करती रही तो २०१९ से २०२४ के कार्यकाल में भारतीय संविधान से ' लोकतंत्र' भी दफा कर दिया जाएगा।
वेशक जिस तरह सामाजिक क्रांति के बरक्स लोहिया या जयप्रकाशनारायण का विचार अंतिम सत्य नहीं है। जिस तरह रामराज्य की अवधारणा के लिए 'गांधीवाद' अंतिम सत्य नहीं है ,जिस तरह दलित शोषित समाज के हितों की रक्षा के लिए कासीराम और मायावती का दृष्टिकोण अंतिम सत्य नहीं उसी तरह पंडित नेहरू ,सरदार पटेल , मौलाना आजाद ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और बाबा साहिब आम्बेडकर प्रणीत भारतीय संविधान भी अंतिम सत्य नहीं हो सकता ! किन्तु भारत में लोकतंत्र रहे न रहे , भारत में समाजवाद आये या न आये , परन्तु भारत में 'धर्मनिरपेक्षता ' अंतिम सत्य है। इसे यदि वर्तमान शासक 'टच' भी करते हैं तो ये- न केवल बाबा साहिब का अपमान है ,जिन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की प्राण प्रतिष्ठा की। बल्कि शहीद भगतसिंह , शहीद उधमसिंग अशफाकुल्लाह खान और देश के उन लाखों शहीदों का अपमान है जिन्होंने भारत में लोकतंत्र ,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया। भारत के सिख , बौद्ध ,जैन ,पारसी ,ईसाई या मुसलमान भी यदि कबूल कर लें कि भारतीय संविधान से 'धर्मनिरपेक्षता' पर काली स्याही फेर दो तब भी भारत के अधिकांस उदारपंथी हिन्दू -करोड़ों मेहनतकश मजदूर , ट्रेडयूनियंस और करोड़ों प्रगतिशील -जनवादी युवा एकजुट होकर भारतीय संविधान की और उसमें निहित 'धर्मनिरपेक्षता ' की प्राण पण से हिफाजत करेंगे।
दरशल जो तत्व अभी इस दौर में साम्प्रदायिक विभीषिका और सामाजिक असमानता के लिए जिम्मेदार हैं, अतीत में भी इन्ही के पूर्वज इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं । देश काल और परिस्थिति के अनुरूप हर जाती- हर मजहब और हर समाज में शोषणकारियों ,अनुशानहींन तत्वों और शक्तिशाली व्यक्तियों की दवंगई के प्रमाण मौजूद हैं। केवल सवर्ण समाज को गरियाकर लालू यादव ,नीतीश ,शरद या मुलायम जयादा दिन राजनीती नहीं कर सकेंगे। राजनैतिक स्वार्थ के लिए या अपने आर्थिक स्वार्थ के लिए कोई समाज ,खाप ,जाति या मजहब के लोग संगठित रूप से वोट बैंक बनाकर यदि चुनावों के मार्फ़त निहित स्वार्थ साधा जाता है तो उसके खिलाफ आवाज उठाना क्रांतिकारी कदम है।
अभी हैं यह अभी भी शोध का विषय है कि लिए न तो हिन्दुओं ने अंग्रेजों ने नहीं किया था। और दिल्ली के कुख्यात नौचंदी मेले के मार्फ़त को इस निकृष्ट सिद्धांत का प्रयोग हर उस हमलावर विदेशी आक्रांता ने किया है जो भारत को रंचमात्र भी गुलाम बनाने में सफल हुआ है। भारत में आर्यों, शक-हूणो-कुषाणों के यायावर -आक्रमण जब कभी हुए तब भारतीय समाज में केंद्रीय सत्ता या राष्ट्र राज्य का संगठित प्रतिरोध नदारद था। इसलिए ये विदेशी हमलावर भारतीय रीतियों,परम्पराओं और धर्म में दीक्षित होकर यहीं वश गए। किन्तु इनके हजारों साल बाद जो फारसी ,तुर्क, कज्जाक ,गुलाम,ख़िलजी, उजवेग , मंगोल - मुग़ल , अफगान- पठान -बलोच इत्यादि जो-जो भी भारतीय उपमहाद्वीप में आये,क्या उनके 'दाँतों में तिनका और हाथों में जैतून की टहनी ' हुआ करती थी?
अयोध्या नरेश श्रीराम चन्द्र ,द्वारकाधीश श्रीकृष्णचन्द्र ,हिंदू ह्रदय सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ,बर्धमान याने भगवान महावीर ,सिद्धार्थ गौतम याने महात्मा बुद्ध ,राजा राम मोहन राय ,स्वामी विवेकानद ,देवी अहिल्या बाई होल्कर, महारानी दुर्गावती , छत्रपति शिवाजी ,राणाप्रताप ,छत्रसाल बुंदेला , ख्वाजा शेख सलीम चिस्ती ,अमीर खुसरो ,ख्वाजा मोइनुद्दीन चिस्ती , दाराशिकोह, शेख फरीद,गुरु नानक ,रैदास ,रहीम,मौलाना आजाद , एम सी छागला ,डॉ राही मासूम रजा , भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ,उस्ताद बिस्मिल्ला खान ,उस्ताद अमजद अली खान ,उस्ताद बड़े गुलाम अली खान,सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान , कैफ़ी आजमी, रानी झलकारीबाई,मीरा बाई ,सूरदास ,कबीर,महात्मा गांधी,सुभाषचन्द्र बोस , बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर शहीद -ऐ-आजम भगतसिंग इत्यादि में से कोई भी जन्मना ब्राह्मण नहीं थे। किन्तु इन लोगों ने जिन मूल्यों के लिए बलिदान दिया ,जिन मानवीय गरिमाओं और मूल्यों को जमीन पर उकेरा -वे किसी भी जन्मजात कुलीन आदर्श ब्राह्मण के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं। वेशक उपरोक्त महान द्विजेतर विभूतियों के उत्सर्ग में जो कुछ दृष्टिगोचर हुआ है दरसल वही 'ब्राह्मणत्व' है। भारतीय परम्पराओं में, भारतीय दार्शनिक ग्रंथों में, संस्कृत वांग्मय में,प्राकृतिक ,पाली ,अपभृंश और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में 'ब्राह्मण' शब्द की अनेक परिभाषायें प्रचलित हैं उनमें से कुछ ही इस आलेख में प्रस्तुत की गईं हैं। यथा ;-
धृतिः क्षमा दमोअस्तेयम ,शुचतेन्द्रिय निग्रह।
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विद्द्या बुद्धि च अक्रोधम ,एषः ब्राह्मण लक्षणम्।। [स्त्रोत -अज्ञात]
या
ब्रह्मों जानाति स: ब्राह्मण : [अज्ञात ]
या
विद्या विनय सम्पन्ने,ब्राह्मणे गविहस्तनि।
शुनिचेव स्वपाके च ,पण्डितः समदर्शिनः।। [भगवद्गीता]
या
विप्रवंश के अस प्रभुताई। अभय होय जो तुमहिं डराई।। [रामचरितमानस]
या
विशुध्द हिंदी में
ब्राह्मण पैठ पाताल छलो,बलि ब्राह्मण साठ हजार को जारे।
ब्राह्मण सोखि समुद्र लियो,ब्राह्मण छत्रन के दल मारे।।
ब्राह्मण लात हनी हरि के तन,ब्राह्मण ही यदुवंश उजारे।
ब्राह्मण से जिन बैर करो कोउ ,ब्राह्मण से परमेश्वर हारे।।
भारतीय सभ्यता के प्रारम्भ में और खास तौर से उत्तर वैदिक काल की समाज व्यवस्था में कोई शूद्र या उंच-नीच नहीं हुआ करता था। कबीलाइ समाज में कार्य विभाजन के आधार पर पुरोहित,रक्षक,वणिक और दास जरूर हुआ करते थे। कभी-कभी दास वर्ण समेत अन्य वर्णों का आपस में अपवादस्वरूप अदल- बदल भी होता रहता था। सभ्यता ज्यों-ज्यों विकसित हुई स्वार्थजन्य कारणों से इस वर्ण विस्थापन्न पर रोक लगा दी गई। यही वजह है कि ब्राह्मणों बनाम क्षत्रियों और आर्य बनाम दासों के बीच ततकालीन समाज में निरंतर द्वन्द चलता रहा। जब कभी दासों-किसानों -कारीगरों का जन आक्रोश संगठित होता तो ब्राह्मण क्षत्रिय उस आंदोलन का दमन करने के लिए एकजुट हो जाय करते थे। महापद्मनंद को खत्म करने में चन्द्रगुप्त और चाणक्य की जोड़ी केवल दो व्यक्तियों के साहचर्य का इतिहास नहीं है। बल्कि यह उच्च वर्ण बनाम निम्न वर्ण के बीच का द्वन्द ही है। रत्नाकर डाकू को बाल्मीकि जैसा ब्राह्मणत्व प्रदान किया गया ,दासी पुत्र नारद या दासी पुत्र विदुर को उनके आर्यतुल्य पांडित्य को देखते हुए ब्राह्मण वर्ण में शामिल किया गया। बुद्ध को भी उनके वोधत्व उपरान्त ब्राह्मण समाज ने अपने 'दशावतार' में भी शामिल कर लिया। अभिप्राय यह है कि भारतीय पुरातन समाज की जाति -वर्ण व्यवस्था की कटटरता उतनी बिकराल नहीं थी जितनी कि कुछ इतिहासकारों और
उपरोक्त परिभाषाओं के मानकीकरण में यदि कहीं कोई जन्मना गैर ब्राह्मण भी फिट होता है तो उसे भी ब्राह्मण माना जाना चाहिए।जो जन्मना ब्राह्मण है और यदि वह उपरोक्त मूल्यों में से किसी में भी फिट नहीं है तो उसे ही शूद्र कहा गया। कुछ ऐंसे भी महापुरुष हुए हैं जो जाति से जन्मना ब्राह्मण थे और उन्होंने मानवता के लिए सहर्ष अपना बलिदान दिया। हो सकता है महर्षि दधीचि , वेद व्यास , परशुराम यमदग्नि अंगिरा,शिवि,अत्रि,अगस्त,लोमश,नचिकेता,नारद या आरुणि जैसे पौराणिक ब्राह्मण पात्र केवल 'मिथक' ही हों ! किन्तु समर्थ रामदास , रामकृष्ण परमहन्स ,लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ,गोखले ,विद्द्यासागर,महर्षि अरविन्द और रवीन्द्रनाथ ठाकुर तो असल इतिहास ही हैं। इन्होने ऐंसा क्या किया जो सावित करे कि इन्होने अपने ब्राह्मणत्व का दुरूपयोग कर किसी विजातीय को कष्ट पहुँचाया हो? यदि इन महापुरषों को केवल ब्राह्मण ही श्रद्धा सुमन अर्पित करें तो कोई कमाल नहीं किन्तु यदि कोई द्विजेतर -गैरब्राह्मण इन महापुरुषों का सम्मान करे तो अवश्य यह उसकी उच्चतर मानवीय गुणवत्ता है।
मध्यप्रदेश और छग के स्थानीय हिंदी अखवारों में एक बड़ी अजीब किस्म की सनसनीखेज खबर छपी है। छत्तीसगढ़ के कृषि एवं धार्मिक मामलों के मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल जी ने एक आम सभा में खुले मंच से कहा है कि "भारतीय संस्कृति को पतन से केवल ब्राह्मण ही बचा सकते हैं। " उन्होंने दुहराया कि "हर एक बुद्धिजीवी जिसे धर्म और संस्कृति की चिंता है ,वह जानता है कि सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण समुदाय ही भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को आगे बढ़ाने में सक्षम है " उन्होंने जोर देकर और बड़े आत्मविश्वाश के साथ सार्वजनिक तौर पर कहा कि "हमारी रस्में ,परम्पराएँ ,और प्राचीन संस्कृति का ह्रास हो रहा है ऐंसे बुरे बक्त में केवल ब्राह्मण समाज ही हमारी आशाओं का केंद्र है " यदि सतयुग होता तो मैं कहता कि -समस्त ब्राह्मण जाति [जन्मना] को बधाई ! श्री बृजमोहन अग्रवाल को आशीर्वाद स्वरूप एक दोहा पेश है ,जो एक ब्राह्मण[तुलसीदास] ने लगभग ५०० साल पहले लिखा था :-
जरा मरण दुःख रहित तनु, समर जिते जनि कोय।
एक छत्र रिपु हींन मही , राज कल्प शत होय।।
अर्थ :- हे बृजमोहन अग्रवाल ! हे वैश्य कुल श्रेष्ठ ! मुख्यमंत्री[छग का ] भव, तुम्हें कभी कोई बीमारी न हो ! तुम सदा जवान रहो ! तुम्हें कोई भी [डॉ रमन भी नहीं ] पराजित न कर सके ! तुम अजातशत्रु भव ! सौ साल तक राज करो !
श्री बृजमोहन अग्रवाल जी की इस परम पवित्र लोकोत्तर- आकाशवाणी को उनका राजनैतिक ब्रह्माश्त्र कहा जाए ? जातीय गौरव के कुम्भीपाक में प्रतिगामी गोता लगाना कहा जाए ? विशुद्ध देवोपम - सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आराधना के निमत्त उस दिवंगत जातिवादी सामन्तकालीन व्यवस्था का नॉस्टेलजिया कहा जाये ? जाति -मजहब -धर्म के नाम पर पेट पालने वालों के विमर्श का जीर्णोद्धार कहा जाए ? वर्ग संघर्ष की वैज्ञानिक और क्षीण संभावनाओं पर पुरोगामी अंधश्रद्धा और अंध सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ओलावृष्टि कहा जाए ? मेरा अनुरोध है कि जो लोग 'संघ' के या श्री बृजमोहन जी अग्रवाल के मन्तब्य को स्वीकार् करने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका नजरिया भी सामने आना चाहिये । बृजमोहन जी द्वारा वर्णित ब्राह्मणत्व महिमामंडन के वास्तविक निहतार्थ तो वे ही जाने। किन्तु उनके स्वर्णिम शब्द मृगजाल में मोहित होने वाले ब्राह्मण बंधुओं और खपा होने वाले गैर ब्राह्मण बंधुओं से निवेदन है कि वे भी इस विमर्श में पूरी तार्किकता ,वैज्ञानिकता ,आधुनिकता और प्रसांगिकता से हस्तक्षेप करें। वेशक कुछ लोगों को लगता होगा कि मंत्री जी कि इस फ़ोकट की वयानबाजी से किसी का भी कुछ हित -अनहित नहीं होने वाला । किन्तु बृजमोहनजी जिस भारतीय संस्कृति ,वैल्यूज ,परम्परा और रस्मो-रिवाज के लिए इतने दुबले हो रहे हैं उसका खुलासा तो अवश्य ही होना चाहिए । इस पर भी चर्चा होनी चाहिए कि उस तथाकथित ' मूल्यहीनता ' के लिए कौन जिम्मेदार है यह भी तय होना चाहिए। क्या सिर्फ जन्मना होने मात्र से कोई ब्राह्मण हो जाता है ? क्या किसी गैर ब्राह्मण जाति के स्त्री-पुरुष ने देश ,समाज और उसकी संस्कृति के लिए कुछ नहीं किया ? देवी अहिल्या बाई होल्कर पिछड़े वर्ग की थी। झलकारी बाई लोधी थी। रानी दुर्गावती आदिवासी गोंड थी अब्दुल रहीम और रसखान मुसलमान थे। इन्होने जो किया वो क्या किसी ब्राह्मण से कमतर था ? वैश्विक पूँजीवाद ने द्विजेतर जातियों की प्रतिभाओं को पर्याप्त अवसर दिए किन्तु जिस तरह हिमालय को विंध्याचल नहीं बनाया जा सकता ,जिस् तरह गटर को गंगा नहीं बनाया जा सकता , जिस तरह किसी जन्मना शाकाहारी जैन को जबरन मांसाहारी नहीं बनाया जा सकता उसे तरह मांसाहारियों को रातओं रात शुद्ध शाकाहारी नहीं बनाया जा सकता।
बहुत शानदार
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