भारत सदियों तक गुलाम क्यों रहा ? क्या उपाय किया जाए की आइन्दा ये नौबत ही न आये ? इन दो सवालों के उत्तर खोजने वालों को ही देशभक्त कहलाने का हक है। मुझे तो इन सवालों के जो उत्तर सूझ पड़े वे इस प्रकार हैं। पहले का जबाब है कि समष्टि चेतना ने रूप- आकार या व्यक्ति की पूजा को ही अपनी मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति का साधन बना लिया है। जहाँ सभी को केवल अपना निजी 'शुभ लाभ' या निजी कल्याण की फ़िक्र होगी तो राष्ट्र की फ़िक्र कौन करेगा ? गुलामी का क्या भरोसा ? दरवाजा खुला है तो वो कभी भी कहीं से भी आ जाएगी। दूसरे सवाल का जवाव ये है कि पहले से सबक सीखा जाए ! न केवल सबक सीखा जाए बल्कि शासक वर्ग पर , जनता की 'पकड़' हमेशा रहे यह इंतजाम भी किया जाए !
यह सर्वमान्य तथ्य है कि यूनान -अरब-फारस या मध्य एशिया के यायावर विदेशी आक्रमणों से पूर्व 'अखण्ड भारत' नाम का कोई 'राष्ट्र' धरती पर नहीं था। सिकंदर और उसके बाद के मजहबी आक्रमणकारियों के पूर्व तक भी इस भारतीय महाद्वीप या तथाकथित 'जम्बूदीप' का कोई एक सत्ता केंद्र नहीं था। इतिहासकार मानते हैं कि उत्तर में - उत्तरापथ या आर्यावर्त था। पश्चिम में पंचनद प्रदेश ,सिंधु, सौवीर,यवन प्रदेश,काबुल कंधार,प्रागज्योतिषपुर ,गुर्जर और राष्ट्रकूट थे। पूर्व में अंग-बंग -कलिंग ,मगध,और तथाकथित सोलह 'स्वतंत्र जनपद' थे। दक्षिण में चोल,चेर,पाण्डय , सातवाहन और आंध्र थे। इसके अलावा भी हजारों नामी-गिरामी -भोग विलासी राजे-रजवाड़े हुआ करते थे। अधिकांस राजा -रजवाड़े अपने आप को सूर्यवंशी ,चंद्रवंशी ,हैहयवंशी ,यदुवंशी,रघुवंशी ,गुप्तवंशी ,मौर्यवंशी और न जाने कौन -कौन से वंश का बताते थे। दस - बीस गाँव का मालगुजार या जमींदार भी अपने आपको स्वयंभू चक्रवर्ती सम्राट ही समझता था । अधिकांस सामंत और जागीरदार घोर निरंकुशता , ऐयाशी और 'राजमद' से पीड़ित हुआ करते थे। उनका आप्त वचन [नारा] था :-
"जा घर तिरिया सुंदर देखि ,ता घर धाय धरी तलवार "
[ जगनिक कृत -परिमाल रासो से उद्धृत]
अर्थ :- कोई भी राजा यदि किसी घर में ,खेत में ,खलिहान में व्याहता या कुवारी कोई सुंदर युवती देखे -तो तलवार लेकर उसका हरण करना ,उसको अपने रनिवास [अन्तःपुर] में घसीट लाना,उसे अपनी भोग्या बनाना राजा का परम कर्तव्य माना गया है। यही उसके शौर्य और प्रतिष्ठा की निशानी है। क्या यही हिन्दुत्ववादी दर्शन है ?
क्या इसी निकृष्ट आचरण के कारण ततकालीन 'अखंड भारत' के तमाम चक्रवर्ती सम्राट धूलधूसरित नहीं हुए ? क्या यह सच नहीं है कि जब मुहम्मद गौरी युद्ध पर युद्ध किये जा रहा था , हारकर भी चुप नहीं बैठा था ,तब पृथ्वीराज चौहान अपनी मौसेरी बहिन संयोगिता के अपहरण का शौर्य दिखा रहा था? क्या यह सच नहीं है कि जब मेहमूद गजनबी सोमनाथ का ध्वंश कर देवगिरि की ओर बढ़ रहा था तब पश्चिम के गुर्जर,राष्टकूट और राजपूत राजा या तो रंगरेलियों में मस्त थे या ' अहिंसा परमोधर्म :' का तोता रटंत जाप करने वाले 'नंग-धड़ंग' मुनियो -साधुओं के आदर-सत्कार में व्यस्त थे? क्या यह सच नहीं है कि जब तुर्कों, खिलजियों ,अबासियों , उम्मेदियों ,उजवेगों ,मुगलों या पठानों ने इन भारतीय -हिन्दू राजाओं पर हमले किये तो वे अपनी बहु -बेटियां -लड़कियाँ आक्रान्ताओं को समर्पित कर अपना राज्य और जान बचाने की जुगत भिड़ाते रहे? जब अंग्रेज आये तो सबसे पहले इन्ही राजे- रजवाड़ों ने अंग्रेजों के चरणों में भी अ पना सर रख दिया। सेठों साहूकारों ने -किसान मजदूरों ने या कारीगरों ने गुलामी सहज ही स्वीकार नहीं की होगी। 'यथा -राजा तथा प्रजा' का सूक्त वाक्य ऐंसे हो तो प्रचलन में नहीं आया होगा ?
वेशक अतीत के सामंती क्रूर दौर में या उससे पूर्व पौराणिक काल में भी कुछ अपवाद तो अवश्य ही रहे होंगे। मानवीय मूल्यों के क्षरण का श्रेय केवल आधुनिक वैज्ञानिक या पूँजीवादी दौर को ही नहीं दिया जाना चाहिए। यह याद रखा जाना चाहिए कि मुठ्ठी भर बलिदानियों ने ही हर दौर में विदेशी आक्रान्ताओं का वास्तव में डटकर मुकाबला किया है। बाकी तो सब बक्त आने पर 'रिपट पड़े तो हर-हर गंगे' होते गए। कुछ ने तो हर दौर में छींका टूटने का ही इन्तजार किया। इतिहास के प्रत्येक दौर में क़ुरबानी का सिलसिला जारी रहता है। भारतीय मानसिकता की समष्टिगत कमजोरी है कि लोग बलिदान जनित उदात्त मूल्यों और आदर्शों को भूलकर 'व्यक्तिपूजा' में जुट जाते हैं ! जैसे कि आज का कुंठाग्रस्त हिन्दू समाज और बिजनेस क्लास 'मोदी ' भजन में लींन हो रहा है। यही लोग कल तक मनमोहन ,सोनिया और राहुल को भज रहे थे। कुछ लोग आजीवन जयप्रकाश नारायण को भजते रहे ,कुछ लोहिया को ,कुछ गांधी ,नेहरू ,पटेल और शाश्त्री को भजते रहे। को भज रहे थे।
वेशक हरिश्चंद्र ,श्रीराम ,लक्ष्मण ,जनक जैसे पौराणिक आर्य राजाओं के द्वारा स्थापित सर्वकालिक मानवीय मूल्य और आदर्श मानव मात्र के लिए अनुकरणीय हैं। चूँकि वे धीर-उदात्त चरित्र के प्रतीक थे इसीलिये शायद भारत के सभी पंथों -समाजों और सभ्यताओं ने उन्हें ईश्वर तुल्य माना है। इन अपवादों की आरती -स्तुति में समय जाया न करते हुए हमें इनके आदर्शों को समझने और उनके अनुशीलन करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु जो लोग उनके नाम की राजनीति कर रहे हैं ,उनके मंदिर बनाने का संकल्प लेकर सत्ता में आये हैं वे ही अब राम या हरिश्चंद्र की नहीं बल्कि रावण की ,शकुनि की और दुर्योधन की भाषा बोल रहे हैं। अशोक सिंघल को ,साक्षी महाराज को ,तोगड़ियाजी को या'संघ ' के बहुसन्तति आकांक्षी नेताओं को यदि भगवान श्रीराम का ,राजा हरिश्चंद्र का या राजा जनक का अनुगमन करना चाहिए। 'हम दो -हमारे दो ' तो फिर भी ठीक है,किन्तु ये हिन्दुत्ववादी तो रावण ,धृतराष्ट्र कौरवों का अनुकरण करने का आह्वान किये जा रहे हैं। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी कृष्ण से सहायता में उनकी २३ अक्षौहणी सेना नहीं बल्कि सिर्फ अकेले श्रीकृष्ण का सहयोग ही चाहा था। नतीजा क्या हुआ ? पांचपाण्डव जीत गए। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र याने कौरव हार गए। राम-लक्ष्मण जीत गए ! रावण के 'एक लख पूत सवा लख नाती हार गए। 'गीदड़ों की संख्या बढ़ाने की बजाय आप हर हिन्दू को भगतसिंह बनाने की बात क्यों नहीं करते। न केवल हिन्दू , न केवल मुसलमान बल्कि हर पंथ मजहब और कौम जाति का इंसान भगतसिंह जैसा सोचने लगे ,लेनिन जैसा सोचने लगे ,हो-चीं मिन्ह जैसा सोचने लगे चे -गुएवेरा जैसा सोचने लगे तो किसी धर्म -मजहब को किसी अन्य धर्म मजहब से कोई खतरा ही नहीं रहेगा। अंधाधुंध जनसंख्या बढ़ाने की पैरवी इस दौर में बेहद डरावनी है।
जो कनक-कामनी-कंचन- की उपासना से फुर्सत मिलने पर कभी-कभार आपस में दो-दो हाथ तलवारों के भी कर लिया करते थे। जो जनता का शोषण करने और अपने आपको विष्णु से कम नहीं समझते थे वे तो जबरिया ही जनता के आराध्य बना दिए गए। स्कंदगुप्त विक्रमादित्य , भोज परमार , राजेन्द्र चोल , जैजाक्भुक्ति के चन्देल और इनके जैसे अनेक राजा जिन्होंने सरस्वती की उपासना की और साहित्य -कला - संगीत को उत्कृश्टता प्रदान की वे भले ही कितने ही प्रजावत्सल रहे हों किन्तु इनके मानवीय योगदान को आज का युवा कितना जानता है ? इन दस-बीस राजाओं के अलावा जनता जनार्दन ने अतीत में जो कुछ त्याग और कुरवानियाँ दीं होंगी उनका भी इतिहास कहाँ लिखा गया ?
आज जो लोग केवल मोदी- मोदी कर रहे हैं या केवल 'संघम शरणम गच्छामि ' हो रहे हैं वे भी वही ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं। अतीत की तरह आज भी बड़े-बड़े -दानवीर ,दयालु,धर्मात्मा और मानवमात्र के 'विश्वामित्र' मौजूद हैं। कैलाश सत्यार्थी ,सफ़दर हाश्मी के नाम तो तब ही जनता को मालूम पड़ते हैं जब उन्हें कोई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिलता है या सफ़दर हाशमी की तरह नापाक तत्वों द्वारा मार दिए जाते हैं। आज भी -राष्ट्रीय ,मानवीय और सामाजिक क्षेत्रों में अनेक 'अनाम' शख्सियतें हैं जो इंसानियत के लिए समर्पित हैं। किन्तु उनके आदर्शों और मूल्यों की मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती। आज फिर लबारियों गप्पाड़ियों -ढपोरशंखियों -चारणों -भाटों दौर है। आज फिर आश्था के धूलधूसरित किये जाने का दौर है। नकली गांधीवादियों द्वारा लिखित 'दरवारी साहित्य' में 'भारत राष्ट्र ' का ,शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों का कोई खास इतिहास नहीं लिखा गया। उसी तरह सर्वहारा के संघर्षों का और देशभक्त साम्यवादियों की क़ुरबानी की हर दौर में अवहेलना की जाती रही है ।
सतयुग,त्रेता,द्वापर की ही तरह हर युग में न केवल काल्पनिक -मिथकीय अवतारों की पूजा अर्चना की गई बल्कि उनको ही प्रथम पूज्य माना गया जो किसी 'गाड़ फादर' के खास थे। जो स्वामी कार्तिकेय की तरह निश्छल और असल शूरवीर थे वे कुटम्ब से ,समाज से और 'आराधना' के पवित्र 'वलय ' से बर्खास्त किये जाते रहे हैं। भारतीय और सनातन हिन्दू समाज में व्यक्तिपूजा का चलन ही भारतीय गुलामी का प्रमुख तत्व रहा है। कुछ दासता पीड़ित तो उनकी भी पूजा में लीन रहे जो देश , समाज और मानवता को बर्बाद करने में अव्वल रहे। मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम जैसे धीरोदात्त वीरों को भगवान मानकर पूजना अच्छा है किन्तु उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को आत्मसात करना या उनकी आराधना करना सर्वोत्तम पूजा है।
इसीलिये पंडित श्रीराम तिवारी का कहना है कि हे भारत वासियो ! हे दलबदलुओं ! हे सत्ता -पिपासुओं ! मेरी आवाज सुनों ! मोदी जी की या किसी अन्य खास व्यक्ति की चाटुकारी या चरणभक्ति से बेहतर है उच्चतर मानवीय मूल्यों की ,मानवता के सार्वभौमिक सिद्धांतों- लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद की तहेदिल से आराधना करो।
व्यक्ति पूजा निकृष्ट्म , निहित स्वार्थी होय ।
मूल्य आराधना जो करे ,पंडित ज्ञानी सोय।।
श्रीराम तिवारी
यह सर्वमान्य तथ्य है कि यूनान -अरब-फारस या मध्य एशिया के यायावर विदेशी आक्रमणों से पूर्व 'अखण्ड भारत' नाम का कोई 'राष्ट्र' धरती पर नहीं था। सिकंदर और उसके बाद के मजहबी आक्रमणकारियों के पूर्व तक भी इस भारतीय महाद्वीप या तथाकथित 'जम्बूदीप' का कोई एक सत्ता केंद्र नहीं था। इतिहासकार मानते हैं कि उत्तर में - उत्तरापथ या आर्यावर्त था। पश्चिम में पंचनद प्रदेश ,सिंधु, सौवीर,यवन प्रदेश,काबुल कंधार,प्रागज्योतिषपुर ,गुर्जर और राष्ट्रकूट थे। पूर्व में अंग-बंग -कलिंग ,मगध,और तथाकथित सोलह 'स्वतंत्र जनपद' थे। दक्षिण में चोल,चेर,पाण्डय , सातवाहन और आंध्र थे। इसके अलावा भी हजारों नामी-गिरामी -भोग विलासी राजे-रजवाड़े हुआ करते थे। अधिकांस राजा -रजवाड़े अपने आप को सूर्यवंशी ,चंद्रवंशी ,हैहयवंशी ,यदुवंशी,रघुवंशी ,गुप्तवंशी ,मौर्यवंशी और न जाने कौन -कौन से वंश का बताते थे। दस - बीस गाँव का मालगुजार या जमींदार भी अपने आपको स्वयंभू चक्रवर्ती सम्राट ही समझता था । अधिकांस सामंत और जागीरदार घोर निरंकुशता , ऐयाशी और 'राजमद' से पीड़ित हुआ करते थे। उनका आप्त वचन [नारा] था :-
"जा घर तिरिया सुंदर देखि ,ता घर धाय धरी तलवार "
[ जगनिक कृत -परिमाल रासो से उद्धृत]
अर्थ :- कोई भी राजा यदि किसी घर में ,खेत में ,खलिहान में व्याहता या कुवारी कोई सुंदर युवती देखे -तो तलवार लेकर उसका हरण करना ,उसको अपने रनिवास [अन्तःपुर] में घसीट लाना,उसे अपनी भोग्या बनाना राजा का परम कर्तव्य माना गया है। यही उसके शौर्य और प्रतिष्ठा की निशानी है। क्या यही हिन्दुत्ववादी दर्शन है ?
क्या इसी निकृष्ट आचरण के कारण ततकालीन 'अखंड भारत' के तमाम चक्रवर्ती सम्राट धूलधूसरित नहीं हुए ? क्या यह सच नहीं है कि जब मुहम्मद गौरी युद्ध पर युद्ध किये जा रहा था , हारकर भी चुप नहीं बैठा था ,तब पृथ्वीराज चौहान अपनी मौसेरी बहिन संयोगिता के अपहरण का शौर्य दिखा रहा था? क्या यह सच नहीं है कि जब मेहमूद गजनबी सोमनाथ का ध्वंश कर देवगिरि की ओर बढ़ रहा था तब पश्चिम के गुर्जर,राष्टकूट और राजपूत राजा या तो रंगरेलियों में मस्त थे या ' अहिंसा परमोधर्म :' का तोता रटंत जाप करने वाले 'नंग-धड़ंग' मुनियो -साधुओं के आदर-सत्कार में व्यस्त थे? क्या यह सच नहीं है कि जब तुर्कों, खिलजियों ,अबासियों , उम्मेदियों ,उजवेगों ,मुगलों या पठानों ने इन भारतीय -हिन्दू राजाओं पर हमले किये तो वे अपनी बहु -बेटियां -लड़कियाँ आक्रान्ताओं को समर्पित कर अपना राज्य और जान बचाने की जुगत भिड़ाते रहे? जब अंग्रेज आये तो सबसे पहले इन्ही राजे- रजवाड़ों ने अंग्रेजों के चरणों में भी अ पना सर रख दिया। सेठों साहूकारों ने -किसान मजदूरों ने या कारीगरों ने गुलामी सहज ही स्वीकार नहीं की होगी। 'यथा -राजा तथा प्रजा' का सूक्त वाक्य ऐंसे हो तो प्रचलन में नहीं आया होगा ?
वेशक अतीत के सामंती क्रूर दौर में या उससे पूर्व पौराणिक काल में भी कुछ अपवाद तो अवश्य ही रहे होंगे। मानवीय मूल्यों के क्षरण का श्रेय केवल आधुनिक वैज्ञानिक या पूँजीवादी दौर को ही नहीं दिया जाना चाहिए। यह याद रखा जाना चाहिए कि मुठ्ठी भर बलिदानियों ने ही हर दौर में विदेशी आक्रान्ताओं का वास्तव में डटकर मुकाबला किया है। बाकी तो सब बक्त आने पर 'रिपट पड़े तो हर-हर गंगे' होते गए। कुछ ने तो हर दौर में छींका टूटने का ही इन्तजार किया। इतिहास के प्रत्येक दौर में क़ुरबानी का सिलसिला जारी रहता है। भारतीय मानसिकता की समष्टिगत कमजोरी है कि लोग बलिदान जनित उदात्त मूल्यों और आदर्शों को भूलकर 'व्यक्तिपूजा' में जुट जाते हैं ! जैसे कि आज का कुंठाग्रस्त हिन्दू समाज और बिजनेस क्लास 'मोदी ' भजन में लींन हो रहा है। यही लोग कल तक मनमोहन ,सोनिया और राहुल को भज रहे थे। कुछ लोग आजीवन जयप्रकाश नारायण को भजते रहे ,कुछ लोहिया को ,कुछ गांधी ,नेहरू ,पटेल और शाश्त्री को भजते रहे। को भज रहे थे।
वेशक हरिश्चंद्र ,श्रीराम ,लक्ष्मण ,जनक जैसे पौराणिक आर्य राजाओं के द्वारा स्थापित सर्वकालिक मानवीय मूल्य और आदर्श मानव मात्र के लिए अनुकरणीय हैं। चूँकि वे धीर-उदात्त चरित्र के प्रतीक थे इसीलिये शायद भारत के सभी पंथों -समाजों और सभ्यताओं ने उन्हें ईश्वर तुल्य माना है। इन अपवादों की आरती -स्तुति में समय जाया न करते हुए हमें इनके आदर्शों को समझने और उनके अनुशीलन करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु जो लोग उनके नाम की राजनीति कर रहे हैं ,उनके मंदिर बनाने का संकल्प लेकर सत्ता में आये हैं वे ही अब राम या हरिश्चंद्र की नहीं बल्कि रावण की ,शकुनि की और दुर्योधन की भाषा बोल रहे हैं। अशोक सिंघल को ,साक्षी महाराज को ,तोगड़ियाजी को या'संघ ' के बहुसन्तति आकांक्षी नेताओं को यदि भगवान श्रीराम का ,राजा हरिश्चंद्र का या राजा जनक का अनुगमन करना चाहिए। 'हम दो -हमारे दो ' तो फिर भी ठीक है,किन्तु ये हिन्दुत्ववादी तो रावण ,धृतराष्ट्र कौरवों का अनुकरण करने का आह्वान किये जा रहे हैं। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी कृष्ण से सहायता में उनकी २३ अक्षौहणी सेना नहीं बल्कि सिर्फ अकेले श्रीकृष्ण का सहयोग ही चाहा था। नतीजा क्या हुआ ? पांचपाण्डव जीत गए। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र याने कौरव हार गए। राम-लक्ष्मण जीत गए ! रावण के 'एक लख पूत सवा लख नाती हार गए। 'गीदड़ों की संख्या बढ़ाने की बजाय आप हर हिन्दू को भगतसिंह बनाने की बात क्यों नहीं करते। न केवल हिन्दू , न केवल मुसलमान बल्कि हर पंथ मजहब और कौम जाति का इंसान भगतसिंह जैसा सोचने लगे ,लेनिन जैसा सोचने लगे ,हो-चीं मिन्ह जैसा सोचने लगे चे -गुएवेरा जैसा सोचने लगे तो किसी धर्म -मजहब को किसी अन्य धर्म मजहब से कोई खतरा ही नहीं रहेगा। अंधाधुंध जनसंख्या बढ़ाने की पैरवी इस दौर में बेहद डरावनी है।
जो कनक-कामनी-कंचन- की उपासना से फुर्सत मिलने पर कभी-कभार आपस में दो-दो हाथ तलवारों के भी कर लिया करते थे। जो जनता का शोषण करने और अपने आपको विष्णु से कम नहीं समझते थे वे तो जबरिया ही जनता के आराध्य बना दिए गए। स्कंदगुप्त विक्रमादित्य , भोज परमार , राजेन्द्र चोल , जैजाक्भुक्ति के चन्देल और इनके जैसे अनेक राजा जिन्होंने सरस्वती की उपासना की और साहित्य -कला - संगीत को उत्कृश्टता प्रदान की वे भले ही कितने ही प्रजावत्सल रहे हों किन्तु इनके मानवीय योगदान को आज का युवा कितना जानता है ? इन दस-बीस राजाओं के अलावा जनता जनार्दन ने अतीत में जो कुछ त्याग और कुरवानियाँ दीं होंगी उनका भी इतिहास कहाँ लिखा गया ?
आज जो लोग केवल मोदी- मोदी कर रहे हैं या केवल 'संघम शरणम गच्छामि ' हो रहे हैं वे भी वही ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं। अतीत की तरह आज भी बड़े-बड़े -दानवीर ,दयालु,धर्मात्मा और मानवमात्र के 'विश्वामित्र' मौजूद हैं। कैलाश सत्यार्थी ,सफ़दर हाश्मी के नाम तो तब ही जनता को मालूम पड़ते हैं जब उन्हें कोई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिलता है या सफ़दर हाशमी की तरह नापाक तत्वों द्वारा मार दिए जाते हैं। आज भी -राष्ट्रीय ,मानवीय और सामाजिक क्षेत्रों में अनेक 'अनाम' शख्सियतें हैं जो इंसानियत के लिए समर्पित हैं। किन्तु उनके आदर्शों और मूल्यों की मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती। आज फिर लबारियों गप्पाड़ियों -ढपोरशंखियों -चारणों -भाटों दौर है। आज फिर आश्था के धूलधूसरित किये जाने का दौर है। नकली गांधीवादियों द्वारा लिखित 'दरवारी साहित्य' में 'भारत राष्ट्र ' का ,शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों का कोई खास इतिहास नहीं लिखा गया। उसी तरह सर्वहारा के संघर्षों का और देशभक्त साम्यवादियों की क़ुरबानी की हर दौर में अवहेलना की जाती रही है ।
सतयुग,त्रेता,द्वापर की ही तरह हर युग में न केवल काल्पनिक -मिथकीय अवतारों की पूजा अर्चना की गई बल्कि उनको ही प्रथम पूज्य माना गया जो किसी 'गाड़ फादर' के खास थे। जो स्वामी कार्तिकेय की तरह निश्छल और असल शूरवीर थे वे कुटम्ब से ,समाज से और 'आराधना' के पवित्र 'वलय ' से बर्खास्त किये जाते रहे हैं। भारतीय और सनातन हिन्दू समाज में व्यक्तिपूजा का चलन ही भारतीय गुलामी का प्रमुख तत्व रहा है। कुछ दासता पीड़ित तो उनकी भी पूजा में लीन रहे जो देश , समाज और मानवता को बर्बाद करने में अव्वल रहे। मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम जैसे धीरोदात्त वीरों को भगवान मानकर पूजना अच्छा है किन्तु उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को आत्मसात करना या उनकी आराधना करना सर्वोत्तम पूजा है।
इसीलिये पंडित श्रीराम तिवारी का कहना है कि हे भारत वासियो ! हे दलबदलुओं ! हे सत्ता -पिपासुओं ! मेरी आवाज सुनों ! मोदी जी की या किसी अन्य खास व्यक्ति की चाटुकारी या चरणभक्ति से बेहतर है उच्चतर मानवीय मूल्यों की ,मानवता के सार्वभौमिक सिद्धांतों- लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद की तहेदिल से आराधना करो।
व्यक्ति पूजा निकृष्ट्म , निहित स्वार्थी होय ।
मूल्य आराधना जो करे ,पंडित ज्ञानी सोय।।
श्रीराम तिवारी
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