आधुनिक शिक्षा पद्धति का विरोध करने वाले विद्वानों को पुरातनपंथी ,दक्षिणपंथी या 'संघनिष्ठ' करार देना कोई प्रगतिशीलता की निशानी नहीं है। वेशक ये 'प्राच्यविद्याविशारद 'कुछ मामलों में तो ठीक ही सोच रहे हैं। भले ही वे किसी 'अनुदार संगठन' से ही क्यों न जुड़े हों ! ये 'बौद्धिक ' किस्म के प्राणी कम से कम उन किताबी कीड़ों और आधुनिक युवाओं से तो ठीक ही हैं जो भले ही एमबीए एमसीए या कुछ तकनीकी दक्षता हासिल कर चुके हों. किन्तु उनका विवेक -उनकी मानसिकता और उनकी 'वर्गीय चेतना' नितात्न्त सुप्त ही है। वे भले ही आजीविका के निमित्त किसी टाटा-वाटा -रिलायंस की चाकरी करने में या किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में खटकर अपनी जवानी खर्च कर रहें हों, भले ही वे इसे 'जॉब' या 'पैकेज' का सम्मान सूचक नाम देंते रहें , किन्तु उन्हें यह रंचमात्र पता नहीं कि उनके समक्ष मौजूद यह बहुत ही दयनीय और शर्मनाक स्थति है !
उन्हें यह नहीं मालूम कि वे सरकारी क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रमों में उपलब्ध सुविधाओं के हकदार क्यों नहीं हैं ? ये युवा नहीं जानते कि निजी क्षेत्र को या कॉर्पोरट सेक्टर को श्रम की लूट की खुली छूट देने वाले नेता और उनकी नीतियाँ जब इतनी भयानक हैं तो फिर उन नेताओं का समर्थन क्यों किया जाए ?उनकी निजीकरण -उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ आवाज क्यों न उठाई जाए ?इन सवालों पर जब कोई आवाज उठती है तो उस आवाज को दवाने के लिए ढपोरशंख बजाया जाने लगता है। सत्ता प्राप्ति की लालसा रखने वाले नेता और उनसे दलाली कराने वाले 'बिग कॉर्पोरट हाउस'जब आज के युवाओं का सर्वस्व नष्ट कर हैं ,उनके जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं तो ये हाई टेक युवा ,ये सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट करने वाले युवा ,ये चेटिंग और चीटिंग करने वाले युवा -महा मूर्खानंद क्यों बन ? ये आधुनिक युवा वर्तमान बड़बोले लफ़्फ़ाज़ नेताओं पर इतना मोहित क्यों हो रहे हैं ? कांग्रेस यदि भृष्टाचार में घुटनों-तक कीचड़ में धसी हुई है तो कमल दल वाले नेता 'आकंठ' दल-दल में डूबे हैं। इन नेताओं की भृष्ट पूंजीपतियों के पक्ष में ,दलालों के पक्ष में क्या फितरत है वो केंद्र में 'लोकपाल ' के हश्र से और मध्यप्रदेश में लोकायुक्त की दुरगति से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकार का पूरा जोर निजी करण के पक्ष में क्यों है ? सिर्फ इसीलिये की सरकरी क्षेत्र में अब आरटीआई ,लोकपाल ,लोकायुक्त और सैकड़ों -हजारों माध्यम हैं जहां से जनता को 'सब कुछ दीखता 'है। कुछ आधुनिक कुछ अधकचरे युवा जानकारियों को ही ज्ञान समझ बैठे हैं। वे अपनी योग्यत और सूचना सम्पर्क क्रान्ति का उपयोग किसी ठोस 'जन क्रांति' में करने के बजाय 'कुतर्क' और अनर्गल प्रलाप' में जाया करते रहते हैं।
कुछ कर्मठ निम्न मध्यम वर्गीय युवा वेशक गंभीर हैं किन्तु न केवल अपनी काबिलियत -बल्कि अपना श्रम भी बहुत सस्ते में बेचना पड़ रहा है। आधुनिक उच्च तकनीकी दक्षता के युवाओं को यह एहसास ही नहीं कि उनके इल्म और यौवन को कोडियों के मोल बेचा रहा है।बिना किसी सामाजिक सुरक्षा ,बिना किसी चिकित्सा सुविधा और बिना किसी पेंशन गारंटी के बल्कि 'जॉब' गारंटी के बिना ही समूची युवा पीढ़ी का भविष्य बर्बाद किया जा रहा है। वास्तविक सार्थक वैज्ञानिक शिक्षा के बिना युवाओं को वर्ग चेतना से लेस किया जाना संभव नहीं है। यही वजह है कि वे साम्प्रदायिकता को मजहब समझ बैठे हैं। वे मजहब और धर्म -पंथ को अध्यात्म में गड्डमड्ड कर रहे हैं। भारतीय दर्शन परम्परा में ब्रह्मचर्य,गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास का अनुक्रम माना गया है। भर्तृहरि का शृंगार शतक, नीति शतक और
चूँकि मैंने अपनी अध्यन यात्रा 'भर्तृहरि' से विपरीत की है इसलिए
१९७४ के आसपास की बात है। मैं सीधी से स्थांतरित होकर जब गाडरवारा आया था। कुछ अरसे बाद एक दिन देखा की मेरे पड़ोस में हार्डवेयर वाले जैन साब की दूकान पर भारी भीड़ लगी है। दरसल उनके यहाँ कोई आचार्य जी की के प्रवचन के केसेट आये थे। वह हार्डवेयर की दूकान भी उन्ही आचार्य जी के बाप की थी। वे लोहा लंगड़ का सामन बेचते थे। तबगाडरवारा में मेन्युअल टेलीफोन एक्चेंज हुआ करता था। जैन साब का याने आचार्य रजनीश जी का टेलीफोन नंबर मात्र -६४ हुआ करता था। जैन साब[रजनीश के पिता श्री ]के अन्य सपरिजन अभी भी गाडरवारा में ही रहते हैं । उनके लड़के का नाम ही 'आचार्य रजनीश ' फेमस हुआ। मेरे पास तब टेप रिकार्ड नहीं था। इसलिए सी डी के केसेट किसी अन्य दोस्त के साथ वहीँ 'शककर' नदी के किनारे सुना करता था। बड़े ही विद्व्त्ता पूर्ण प्रवचन हुआ करते थे। दो साल तक लगातार में उन परम विद्वान के श्री बचनों का रसास्वादन करता रहा। १९७६ में इंदौर स्थांनतरित होकर आया तो पता चला कि वे यहाँ भी उतने ही विख्यात हैं। चूँकि मुझे अध्यात्म की पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था और इंदौर की लाइब्रेरियां संसार की महान पुस्तकों से भरी पडी हैं. कुंद -कुंद विद्यापीठ में मुझे सतसंग के लिए ही नहीं बल्कि कविता पाठ के लिए बुलाया जाने लगा।
इसी दौरान मैंने विश्व के अन्य दार्शनिकों को पढ़ा। आचार्य रजनीश के अलावा उनके व्यख्यानों में आये अन्य नामों के लेखकों को भी पढ़ डाला। कार्ल मार्क्स का परिचय मुझे दो लोगों को पढ़ने से मिला एक आचार्य रजनीश।दूसरे आचार्य श्रीराम शर्मा। दोनों ने ही बड़े सम्मान से कार्ल मार्क्स के अवदान के प्रति कृतज्ञ भाव व्यक्त किया है। दरसल इन दोनों ने जितना कार्ल मार्क्स को पढ़ा उतना किसी मार्क्सवादी ने भी नहीं पढ़ा। कुछ टुच्चे और आधे -अधूरे लोग न तो आध्यत्मवाद को आत्मसात पर पाये और न ही 'ऐतिहासिक द्वन्दात्मक भौतिकवाद को ही आत्मसात कर पाये। ये अभागे लोग रतौंधी हैं। इन्हें किसी चश्में से कोई मदद नहीं मिल सकती। वे समझते हैं कि कांग्रेस ,भाजपा जैसे भृष्ट पूंजीवादी संगठनों की तरह मार्क्सवादी भी पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी में वोट कवाड़ते रहें। उन्हें किसी किस्म की क्रांति के नाम से ही सिहरन होने लगती है। जन चेतना ,जन संघर्ष और शोषण मुक्त समाज के लिए अलख जगाने वाले साहित्य के क्रांतिकारी अवदान को समझने की कूबत उनमें नहीं हैं।
जिन्हे लाल चश्में से चिढ है वे अपना भगवा चश्मा उतारकर देखें उन्हें भी अमेरिका के हाथ में कोड़ा दिखेगा। उस कोड़े के निशान 'ओशो ' की पीठ पर नजर आएंगे। यह लाल चश्मा मुझे तभी लग गया था। जब रजनीश जी ने अपने किसी सम्बोधन में अमेरिकन साम्राज्य्वाद को अभिशाप दिया था बल्कि भारत के नौजवानों को स्वामी विवेकानंद की तरह सन्देश दिया कि सामर्थवान बनों ! आचार्य रजनीश का तो आदेश था कि केवल वे लोग ही उनके पास आएं जो धन धान्य से ,रूप सौंदर्य से ,यशेषणा ,वित्तेषणा और कामेषणा से सम्पृक्त हैं ! जो गरीब हैं ,सर्वहारा हैं वे मेरे पास न आएं ! मेरा सन्देश आत्माप्रकाश के लिए है। यदि आपकी समस्या लौकिक है तो कार्ल मार्क्स के पास लेनिन के विचरों से सीखो। शोषण के खिलाफ -अपने हितों के लिए पारलौकिकता में नहीं इसी लौकिक संसार में संघर्ष करें " याने लाल चश्मा लगाने की प्रेरणा इन्ही से मिली।उन्ही महापुरुषों की प्रेरणा से भगवान को छोड़ में मार्क्सवादियों के साथ हो लिया। क्योंकि तब तक रजनीश जी आचार्य से भगवान श्री रजनीश हो चुके थे।
बहुत साल बाद एक दिन पता चला की वे 'ओशो' हो चुके हैं। कुछ समय बाद पता चला कि अमेरिका जा वसे हैं। कुछ साल बाद पता चला कि मोदी जी को प्रिय और स्वामी ध्यान विनय का परम वंदनीय अमेरिका 'ओशो' को जहर देकर मारने का षड्यंत्र कर रहा है। कुछ दिन बाद पता चला कि अमेरिकी सरकार की गुंडागर्दी से प्राण बचाकर भागे ओशो दुनिया में जहां भी जाते हैं वहाँ की सरकार उन्हें शरण देने से इंकार कर देती है। वे मजबूर होकर भारत में ही शरण पाते हैं। पूना में नया ठिकाना बनाते हैं। भारत के महान दार्शनिक और सन्यासी की अमेरिका ने जो दुर्गति की उसे भूलकर यदि 'स्वामी ध्यान विनय ' को हरा-हरा दीखता है तो उन्हें मुबारक। मेरा लाल चस्मा मुझे इस तरह किसी दोगले राष्ट्र की चापलूसी या उसके पिछलग्गू भारतीय शासकों की ठकुर सुहाती से हमेशा आगाह करता है। मुझे गर्व है की मैं सत्य के साथ हूँ !
श्रीराम तिवारी
उन्हें यह नहीं मालूम कि वे सरकारी क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रमों में उपलब्ध सुविधाओं के हकदार क्यों नहीं हैं ? ये युवा नहीं जानते कि निजी क्षेत्र को या कॉर्पोरट सेक्टर को श्रम की लूट की खुली छूट देने वाले नेता और उनकी नीतियाँ जब इतनी भयानक हैं तो फिर उन नेताओं का समर्थन क्यों किया जाए ?उनकी निजीकरण -उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ आवाज क्यों न उठाई जाए ?इन सवालों पर जब कोई आवाज उठती है तो उस आवाज को दवाने के लिए ढपोरशंख बजाया जाने लगता है। सत्ता प्राप्ति की लालसा रखने वाले नेता और उनसे दलाली कराने वाले 'बिग कॉर्पोरट हाउस'जब आज के युवाओं का सर्वस्व नष्ट कर हैं ,उनके जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं तो ये हाई टेक युवा ,ये सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट करने वाले युवा ,ये चेटिंग और चीटिंग करने वाले युवा -महा मूर्खानंद क्यों बन ? ये आधुनिक युवा वर्तमान बड़बोले लफ़्फ़ाज़ नेताओं पर इतना मोहित क्यों हो रहे हैं ? कांग्रेस यदि भृष्टाचार में घुटनों-तक कीचड़ में धसी हुई है तो कमल दल वाले नेता 'आकंठ' दल-दल में डूबे हैं। इन नेताओं की भृष्ट पूंजीपतियों के पक्ष में ,दलालों के पक्ष में क्या फितरत है वो केंद्र में 'लोकपाल ' के हश्र से और मध्यप्रदेश में लोकायुक्त की दुरगति से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकार का पूरा जोर निजी करण के पक्ष में क्यों है ? सिर्फ इसीलिये की सरकरी क्षेत्र में अब आरटीआई ,लोकपाल ,लोकायुक्त और सैकड़ों -हजारों माध्यम हैं जहां से जनता को 'सब कुछ दीखता 'है। कुछ आधुनिक कुछ अधकचरे युवा जानकारियों को ही ज्ञान समझ बैठे हैं। वे अपनी योग्यत और सूचना सम्पर्क क्रान्ति का उपयोग किसी ठोस 'जन क्रांति' में करने के बजाय 'कुतर्क' और अनर्गल प्रलाप' में जाया करते रहते हैं।
कुछ कर्मठ निम्न मध्यम वर्गीय युवा वेशक गंभीर हैं किन्तु न केवल अपनी काबिलियत -बल्कि अपना श्रम भी बहुत सस्ते में बेचना पड़ रहा है। आधुनिक उच्च तकनीकी दक्षता के युवाओं को यह एहसास ही नहीं कि उनके इल्म और यौवन को कोडियों के मोल बेचा रहा है।बिना किसी सामाजिक सुरक्षा ,बिना किसी चिकित्सा सुविधा और बिना किसी पेंशन गारंटी के बल्कि 'जॉब' गारंटी के बिना ही समूची युवा पीढ़ी का भविष्य बर्बाद किया जा रहा है। वास्तविक सार्थक वैज्ञानिक शिक्षा के बिना युवाओं को वर्ग चेतना से लेस किया जाना संभव नहीं है। यही वजह है कि वे साम्प्रदायिकता को मजहब समझ बैठे हैं। वे मजहब और धर्म -पंथ को अध्यात्म में गड्डमड्ड कर रहे हैं। भारतीय दर्शन परम्परा में ब्रह्मचर्य,गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास का अनुक्रम माना गया है। भर्तृहरि का शृंगार शतक, नीति शतक और
चूँकि मैंने अपनी अध्यन यात्रा 'भर्तृहरि' से विपरीत की है इसलिए
१९७४ के आसपास की बात है। मैं सीधी से स्थांतरित होकर जब गाडरवारा आया था। कुछ अरसे बाद एक दिन देखा की मेरे पड़ोस में हार्डवेयर वाले जैन साब की दूकान पर भारी भीड़ लगी है। दरसल उनके यहाँ कोई आचार्य जी की के प्रवचन के केसेट आये थे। वह हार्डवेयर की दूकान भी उन्ही आचार्य जी के बाप की थी। वे लोहा लंगड़ का सामन बेचते थे। तबगाडरवारा में मेन्युअल टेलीफोन एक्चेंज हुआ करता था। जैन साब का याने आचार्य रजनीश जी का टेलीफोन नंबर मात्र -६४ हुआ करता था। जैन साब[रजनीश के पिता श्री ]के अन्य सपरिजन अभी भी गाडरवारा में ही रहते हैं । उनके लड़के का नाम ही 'आचार्य रजनीश ' फेमस हुआ। मेरे पास तब टेप रिकार्ड नहीं था। इसलिए सी डी के केसेट किसी अन्य दोस्त के साथ वहीँ 'शककर' नदी के किनारे सुना करता था। बड़े ही विद्व्त्ता पूर्ण प्रवचन हुआ करते थे। दो साल तक लगातार में उन परम विद्वान के श्री बचनों का रसास्वादन करता रहा। १९७६ में इंदौर स्थांनतरित होकर आया तो पता चला कि वे यहाँ भी उतने ही विख्यात हैं। चूँकि मुझे अध्यात्म की पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था और इंदौर की लाइब्रेरियां संसार की महान पुस्तकों से भरी पडी हैं. कुंद -कुंद विद्यापीठ में मुझे सतसंग के लिए ही नहीं बल्कि कविता पाठ के लिए बुलाया जाने लगा।
इसी दौरान मैंने विश्व के अन्य दार्शनिकों को पढ़ा। आचार्य रजनीश के अलावा उनके व्यख्यानों में आये अन्य नामों के लेखकों को भी पढ़ डाला। कार्ल मार्क्स का परिचय मुझे दो लोगों को पढ़ने से मिला एक आचार्य रजनीश।दूसरे आचार्य श्रीराम शर्मा। दोनों ने ही बड़े सम्मान से कार्ल मार्क्स के अवदान के प्रति कृतज्ञ भाव व्यक्त किया है। दरसल इन दोनों ने जितना कार्ल मार्क्स को पढ़ा उतना किसी मार्क्सवादी ने भी नहीं पढ़ा। कुछ टुच्चे और आधे -अधूरे लोग न तो आध्यत्मवाद को आत्मसात पर पाये और न ही 'ऐतिहासिक द्वन्दात्मक भौतिकवाद को ही आत्मसात कर पाये। ये अभागे लोग रतौंधी हैं। इन्हें किसी चश्में से कोई मदद नहीं मिल सकती। वे समझते हैं कि कांग्रेस ,भाजपा जैसे भृष्ट पूंजीवादी संगठनों की तरह मार्क्सवादी भी पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी में वोट कवाड़ते रहें। उन्हें किसी किस्म की क्रांति के नाम से ही सिहरन होने लगती है। जन चेतना ,जन संघर्ष और शोषण मुक्त समाज के लिए अलख जगाने वाले साहित्य के क्रांतिकारी अवदान को समझने की कूबत उनमें नहीं हैं।
जिन्हे लाल चश्में से चिढ है वे अपना भगवा चश्मा उतारकर देखें उन्हें भी अमेरिका के हाथ में कोड़ा दिखेगा। उस कोड़े के निशान 'ओशो ' की पीठ पर नजर आएंगे। यह लाल चश्मा मुझे तभी लग गया था। जब रजनीश जी ने अपने किसी सम्बोधन में अमेरिकन साम्राज्य्वाद को अभिशाप दिया था बल्कि भारत के नौजवानों को स्वामी विवेकानंद की तरह सन्देश दिया कि सामर्थवान बनों ! आचार्य रजनीश का तो आदेश था कि केवल वे लोग ही उनके पास आएं जो धन धान्य से ,रूप सौंदर्य से ,यशेषणा ,वित्तेषणा और कामेषणा से सम्पृक्त हैं ! जो गरीब हैं ,सर्वहारा हैं वे मेरे पास न आएं ! मेरा सन्देश आत्माप्रकाश के लिए है। यदि आपकी समस्या लौकिक है तो कार्ल मार्क्स के पास लेनिन के विचरों से सीखो। शोषण के खिलाफ -अपने हितों के लिए पारलौकिकता में नहीं इसी लौकिक संसार में संघर्ष करें " याने लाल चश्मा लगाने की प्रेरणा इन्ही से मिली।उन्ही महापुरुषों की प्रेरणा से भगवान को छोड़ में मार्क्सवादियों के साथ हो लिया। क्योंकि तब तक रजनीश जी आचार्य से भगवान श्री रजनीश हो चुके थे।
बहुत साल बाद एक दिन पता चला की वे 'ओशो' हो चुके हैं। कुछ समय बाद पता चला कि अमेरिका जा वसे हैं। कुछ साल बाद पता चला कि मोदी जी को प्रिय और स्वामी ध्यान विनय का परम वंदनीय अमेरिका 'ओशो' को जहर देकर मारने का षड्यंत्र कर रहा है। कुछ दिन बाद पता चला कि अमेरिकी सरकार की गुंडागर्दी से प्राण बचाकर भागे ओशो दुनिया में जहां भी जाते हैं वहाँ की सरकार उन्हें शरण देने से इंकार कर देती है। वे मजबूर होकर भारत में ही शरण पाते हैं। पूना में नया ठिकाना बनाते हैं। भारत के महान दार्शनिक और सन्यासी की अमेरिका ने जो दुर्गति की उसे भूलकर यदि 'स्वामी ध्यान विनय ' को हरा-हरा दीखता है तो उन्हें मुबारक। मेरा लाल चस्मा मुझे इस तरह किसी दोगले राष्ट्र की चापलूसी या उसके पिछलग्गू भारतीय शासकों की ठकुर सुहाती से हमेशा आगाह करता है। मुझे गर्व है की मैं सत्य के साथ हूँ !
श्रीराम तिवारी
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