एक बार चंद्रशेखर ,भगतसिंह इत्यादि में किसी कार्यक्रम को लेकर दो विकल्प उभरे। तब गणेशशंकर विद्यार्थी ने सुझाया कि आप लोग पहले 'अमुक' कार्यक्रम एप्लाय करो। बाद में दूसरा। जिससे अंग्रेज हुक्मरान नाराज हों वही तुम्हारा असली कार्यक्रम और वही सही 'विचार' है। कार्यक्रम कार्यान्वन उपरान्त जब दूसरे दिन अखवारों में क्रांतिकारियों की तारीफ़ छपी देखी तो विद्यार्थी जी और भगतसिंह इत्यादि ने वह कार्यक्रम ही निरस्त कर दिया। क्रांतिकारिओं ने तब यह सिद्धांत पेश किया की ' 'वर्ग शत्रु हमारे जिस दृष्टिकोण से सहमत हो वह हमारा सही दृष्टिकोण नहीं हो सकता ?"
दो दिन पहले मैंने 'P.K.' की आलोचना करते हुए एक आर्टिकल पोस्ट किया तो मेरे एक बहुत ही सम्मानित और वरिष्ठ क्रान्तिकारी साथी को वह पसंद नहीं आया। शायद वे भारत की अधिसंख्य जनता के सांस्कृतिक -धार्मिक अवगुंठन की पेचीदगियों को मुझसे ज्यादा जानते हो। शायद उन्होंने वेद,उपनिषद और भारतीय दर्शन का गहन अध्यन मुझसे जयादा किए हो। इसलिए मैंने तो मान लिया कि मेरा वरिष्ठ अनुभवी साथी ही सही है। किन्तु मेरे वरिष्ठ साथी का स्टेण्ड क्रांतिकारिओं के दृष्टिकोण से मेल नहीं ख आरहा है जबकि मेरे आलेख का हर शब्द क्रांतिकारियों की कसौटी पर खरा उतर रहा है।
जिस दिन मेने 'पी'के ' के खिलाफ 'फतवा' जारी किया था उसी दिन आडवाणी जी ने ,देवेन्द्र फड़नवीस जी ने 'पी के ' की मुक्त कंठ से प्रशंशा की थी। आज जब पत्रकारिता के पितृपुरुष वेद प्रताप वैदिक जी का भी 'पी के' को समर्थन जारी हुआ है। तो मुझे पक्का यकीन हो गया की मैं 'शतप्रतिशत सही हूँ . वैदिक जी ने तो स्वामी रामदेव को भी सुझाव दे दिया है कि 'पी के देखें ' ! विरोध मत करो। जब हिंदुत्व की अग्रिम कतार वाले 'पी. के' के इस कदर समर्थन में उत्तर आये हों , जब अखिलेश और जीतनराम मांझी इस फिल्म के लिए मनोरंजन कर मुक्त कर रहे हों। तब भी मैं यही कहूँगा कि 'पी के ' में केवल नासमझ अंधश्रद्दालु हिन्दुओं पर ही इकतरफा आक्रमण किया गया है।मनोरंजन की दृष्टी से यह फिल्म भले ही ठीक ठाक हो किन्तु 'जब उसका किरदार किसी खास धर्म या मजहब को सुधारने की बात करेगा तो न केवल 'पीके' बल्कि अन्य इसी तरह की अन्य फिल्मों पर मेरा नजरिया यही रहेगा। कोई मामूली फिल्म वाला या कोई आतंकी या कोई सांस्कृतिक राजनितिक संगठन जब किसी धर्म मजहब पर ज्ञान बाँटेगा तो मैं उसका समर्थन नहीं करूंगा। हिन्दुओं को शंकराचार्य या अखाडा परिषद ही पर्याप्त है। मुसलमानों को कोई ज्ञान क्यों नहीं बांटता ? ईसाइयों को कोई ज्ञान क्यों नहीं बांटता ? क्योंकि भारत में ९० करोड़ दर्शक हिन्दू है ,वे फिल्म देखेंगे तो ही १०० करोड़ का मुनाफा होगा ! मुठ्ठी भर ईसाई या करोड़ -दो करोड़ मुसलमान फिल्म देखेंगे उससे रिकार्ड थोड़े ही टूटने वाला !
श्रीराम तिवारी
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