शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

"कूलन में ,केलि में, कछारन में, कुंजन में,क्यारिन में........!


   भारतीय महादीप को  वसंत ऋतू के आगमन  की सूचना देने वाले  'ऋतुराज वसंत' जहाँ-कहीं भी हो उनसे निवेदन है कि नव-धनाढ्य  वर्ग की  चालु किस्म की  मॉडल्स , हालीबुड -बॉलीवुड  स्थित ऐश्वर्य शालिनी  फ़िल्मी  नायिकाओं के हरम ,  अमीरों के विशाल बाग़ बगीचों और  सभ्रांत  लोक की पतनशील वादियों से फुर्सत मिले तो  आज कुछ क्षणों के लिए -छुधा पीड़ित ,ठण्ड से कम्पायमान  -देश  और दुनिया के  निर्धन सर्वहारा पर भी नजरे इनायत फरमाएँ !  आपको देखे हुए सदियाँ गुजर गईं।  तभी तो रीतिकाल में भी कवि की काल्पनिक नायिका को कहना पड़ा -

       नहिं  पावस इहिं  देसरा , नहिं  हेमन्त  वसंत ।

       न कोयल न पपीहरा ,जेहिं  सुनि  आवहिं  कंत।।


                                 रीतिकालीन में  वियोग श्रंगार  के कवि ने  उक्त दोहे में चिर विरहन  किन्तु  परिणीता -  नायिका के मनोभावों को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि के अनुसार प्रत्यक्षतः तो नायिका के इर्द-गिर्द प्रकृति प्रदत्त  ऋतु -सौंदर्य  बिखरा पड़ा है। किन्तु अपने प्रियतम [कंत-पति ]  के घर  आगमन में हो  रहे विलम्ब जनित  वियोग में वह इतनी  वेसुध  है कि इस ऋतु  सौंदर्य  का  उसे  कदापि भान नहीं है। आज के इस उन्नत तकनीकि  दौर में  जिस तरह   महास्वार्थी नेताओं और मुनाफाखोर पूँजीपतियों  को धरती के विनाश  की कतई  परवाह नहीं है ,जिस तरह  मजहबी उन्माद में आकंण्ठ डूबे आतंकियों को -बोको हराम वालों को ,  ,तालीवानियों  को , आइएसआइ वालों को और नक्सलवादियों को इंसानियत की फ़िक्र नहीं है उसी तरह  लगता  है कि  ऋतुराज वसंत को भी अब कवियों के लालित्यपूर्ण काव्यबोध की परवाह नहीं है। तभी तो 'वसंत' अब -
                 "कूलन में ,केलि में, कछारन में, कुंजन में,क्यारिन में  कलित कलीन  किलकंत " भी नहीं  हो रहा है।

                   विदेशी आक्रमणों के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में  न केवल 'वसंत' अपितु कुछ   और भी  चीजें निश्चय ही अनुपम हुआ करती थीं। चूँकि तब इस  महाद्वीप  में प्राकृतिक संरचना अक्षुण थी , प्रचुर वन सम्पदा  ,खनिज सम्पदा भरपूर थी।  सदानीरा स्वच्छ  कल -कल  करतीं  सरिताओं   का रमणीय मनोरम रूप और आकार  हुआ करता था। पर्यावरण प्रदूषण नहीं था।  ऋतुएँ समय पर आया करतीं थीं।तब  ग्रीष्म ,पावस ,शरद,  शिशिर ,हेमंत और वसंत  को तरसना नहीं पड़ता था। वसंत  उत्सव तो अपने पूरे सबाब में  ही मनाया जाते थे। विदेशी आक्रान्ताओं ने न केवल यहाँ की अर्थ  व्यवस्था  को चोपट किया , न केवल वैज्ञानिक परम्परा को नष्ट किया ,न केवल  अपसंस्कृति का निर्माण किया बल्कि पर्यावरण प्रदूषण और धरती के दोहन का महा  वीभत्स  चलन भी भारतीय उपमहाद्वीप में इन इन्ही विदेशी आक्रमणों की देंन है। 
                               महाकवि  कालिदास ,भवभूति, से लेकर जायसी और बिहारी तक  को इसकी जरुरत ही नहीं रही  होगी कि  भुखमरी ,बेरोजगारी ,रिश्वतखोरी , साम्प्रदायिकता और भृष्टाचार पर कुछ लिखा जाए !  निसंदेह  इन चीजों का उस समय  इतना बोलबाला नहीं रहा होगा। तभी तो इन विषयों पर  किसी कवि ने एक श्लोक. एक छंद ,एक स्वस्तिवाचन मात्र भी नहीं लिखा। वेशक  यूरोप और  अन्य पुरातन सभ्यताओं  की तरह  भारतीय परम्परा में भी कवियों  ने किसानों ,मजदूरों या उत्पादक शक्तियों के बारे में कुछ नहीं लिखा। वे   केवल राजाओं,श्रीमंतों और रूपसी नारियों पर ही लिखते रहे । कुछ राजाओं , भगोड़ों ,कायरों , ऐयाश किस्म के  विदूषकों को 'अवतार'  बनाकर  ततकालीन दरबारी  कवियों ने   ईश्वर के तुल्य  महिमा मंडित किया गया। इन कवियों ने धर्म-दर्शन ,मिथ ,नायक-नायिका -नख-शिख वर्णन को  ईश्वरत्त  प्रदान किया है।
                              जिन  कवियों ने   अपने आपको सरस्वती पुत्र  माना, वे  नारी देहयष्टि रूप लावण्य,छलना और कामोत्तजक सृजन में  वसंत के प्रतीक ,प्रतिमान ,बिम्ब और  रूपक  से  काव्य बिधा का  कलरव गान किया करते थे। उनकी  काव्यगत सार्थकता इसी में तिरोहित हो जाया करती  थी कि  वे धीरोदात्त चरित्र के व्यक्तित्त्व में अपना इहलौकिक और पारलौकिक तारणहार भी खोज  लिया करते थे। कुछ तो युध्दों में भी अपने पालनहार के साथ उसकी वीरता का बखान किया करते थे।
                              विदेशी आकमणकारियों ने भारतीय उपमहाद्वीप  के विशुद्ध साँस्कृतिक  सौंदर्य को ही नहीं , इसकी उद्दाम परिनिष्ठित श्रंगारयुक्त  काव्य  कला को ही नहीं ,इसकी वैज्ञानिक अन्वेषण की स्वतंत्र  भारतीय परम्परा को ही नहीं ,  अपितु इन आक्रान्ताओं ने  इस उपमहाद्वीप के  नैसर्गिक सौंदर्य और प्राकृतिक   वनावट का  भी सत्यानाश किया है। चूँकि इस महाद्वीप  का भौगोलिक कारणों से बहुसंस्कृतिक  ,बहुभाषाई  और बहुसभ्यताओं  बाला  स्वरूप रहा है। इसलिए  किसी बाहरी आक्रमण  का संगठित प्रतिरोध  भले ही सम्भव नहीं  रहा हो किन्तु  सांस्कृतिक वैविद्ध्य और बहुभाषाई विभन्नता के उपरान्त ,भौगोलिक दूरियों और नदियों -घाटियों की गहनता के उपरान्त भी भारत में अधिकांस त्यौहार ऋतु  परिवर्तन के  संक्रान्तिकाल में ही मनाये जाते रहे हैं। प्रायः सभी त्यौहारों पर ऋतुराज वसंत के आगमन का   त्यौहार  भारी  पड़ता रहा है।यह अति सुंदर  कमनीय   'वसंतोत्सव या मदनोत्सव ही एक ऐंसा पर्व है  जिसे मनाये जाने के प्रगैतिहासिक  प्रमाण हैं।  चूँकि इस पर्व का उद्दीपन  प्राकृतिक  का चरम सौंदर्य है। इसलिए यह धरती का सबसे सहज -सुंदर -प्राकृतिक - वैज्ञानिक और उत्कृष्ट पर्व है। पौराणिक काल में इसे विद्द्या की देवी सरस्वती के उद्भव या  रति-कामदेव  के मदनोत्सव  दिया गया। आरम्भ में तो यह पतझड़ के आगमन और आम्र बौर झूमने के कारण ही प्रचलन में आया होगा।  
                     वेशक  शिव पार्वती विवाह ,कामदेव का क्षरण या 'अनंग' अवतार इसके पौराणिक मिथक रहे हैं। किन्तु वैज्ञानिकता में यह पर्व न केवल पर्यावरण संरक्षण , न केवल जल-जंगल-जमीन के संरक्षण बल्कि   नारी मात्र के संरक्षण पर भी अवलम्बित  है।  भारतीय महाद्वीप  के सांस्कृतिक पराभव ,वैज्ञानिक  पराभव ,सौंदर्य पराभव और पर्यावरण पराभव की छति पूर्ती तो अब संभव नहीं, किन्तु यदि अब भी नहीं चेते  तो  सर्वनाश सुनिश्चित है।   दीवाली -ईद -किसमस या अन्य त्यौहार तो शायद बारूदी पटाखों या धन-सम्पन्नता  के भौंडे प्रदर्शन पर निर्भर हैं।  किन्तु वसंतोत्सव तो प्रकृति पुरुष के सौंदर्य की आरधना  का महापर्व है। इस पर्व को मनाने में 'बेलनिटाइन डे ' जितना पाखंड और दिखावा भी जरुरी नहीं है।  वसंतोत्सव पर्व तो  दैहिक प्यार-प्रेम से भी ऊंची  मानवीय आकांक्षाओं  का प्रेरक है।  आज के वसंतोत्सव को  धरती के संरक्षण  ,नदियों के संरक्षण  ,कन्या -पुत्री संरक्षण  के विमर्श से  केंद्रित  क्या जाए तो इस पर्व की सार्थकता का  असीम आनंद सभी को मिल सकता  है। अंत में सभी बंधू -बांधवों ,मित्रों -आलोचकों और संबंधीजनों को -

                                 वसंत के शुभ आगमन की शुभकामनाएँ !

   जिस किसी सौभाग्यशाली या शौभाग्यशालिनी को ऋतुराज वसंत कहीं  दिखें तो सूचित अवश्य करें।

                       
                                                       श्रीराम तिवारी

                       



     

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