बुधवार, 14 जनवरी 2015

शार्ली हेब्दो पर आतंकी हमले से आक्रांत यूरोप मानों श्मशान वैराग्य से गुजर रहा है।


" एक ईश्वर भक्त आस्तिक सेनापति  की युद्ध के दौरान तलवार टूट गई। शत्रु के हाथों पराजय सुनिश्चित देख सेनापति ने अपने इष्ट का ध्यान किया । अचानक चमत्कार हुआ। आसमान से चमकती हुई दैवीय  तलवार  उसके नजदीक आने लगी। सेनापति को अपने  तपोबल का भान हुआ। किंचित  अहंकार  की एक छोटी सी लहर मन में आई।  ततकाल दूसरा चमत्कार हुआ। तलवार गायब। श्रद्धालु सेनापति बंदी बना लिया गया। कारागार में उसका गुरु मिलने आया। बंदी सेनापति ने अपने गुरु से तलवार वाली घटना का मर्म जानना चाहा। गुरु ने कहा वत्स - जब तक तुम अपने अहंकार से मुक्त निश्छल मन से  ईश्वर पर आश्रित थे तब तक ईश्वर को तुम्हारी चिंता थी। जब तुम्हें अपने तपोबल का  भान होने लगा याने 'अहंकार' होने लगा तो ईश्वर ने सोचा  कि  तुम्हें उसकी मदद की जरुरत नहीं। "

                                     इस पौराणिक द्रष्टान्त  को उद्धृत करने का मेरा अभिप्राय क्या है ? इसे समझने के लिए भाववादी बनाम द्वंदात्मकतावादी घनचक्क्र से बाहर आना होगा। यह भी जानना होगा  कि 'शार्ली  हेब्दों' पर हमले के खिलाफ कल तक  तो सारा सभ्य संसार था। किन्तु आज नहीं है। कम से कम मैं तो अब 'शार्ली  हेब्दों ' के साथ नहीं हूँ।  कल तक  न केवल पश्चिमी जगत ,न केवल ईसाई जगत  बल्कि सभ्य संसार के  - लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष लोग  इस हमले के खिलाफ थे।  जो अभिव्यक्ति के पक्षधर  हैं वे - हिन्दू ,बौद्ध, जैन, पारसी ,यहूदी और[सच्चे] मुसलमान  भी उस आतंकी हमले के खिलाफ थे।  मजहबी उन्मादियों का जो हमला  'चार्ली हेब्दों' पर हुआ उसे सभी ने  अभिव्यक्ति पर हमला माना।  आतंकवाद की  इस वैश्विक चुनौती  के खिलाफ हम भी हैं। इस तरह का  हमला ईसाईयत पर  होता  है तो  हम उस हमले का  विरोध  करेंगे।  इस तरह का हमला हिन्दुओं पर होता  है तो भी हमहमलावरों का  विरोध करेंगे। इस तरह का हमला जब इस्लाम पर होगा तो भी हम  हमलावरों के खिलाफ ही खड़े होंगे।  धर्म-मजहब के संकीर्ण विचार  को लेकर  इस तरह का हमला जहाँ-कहीं भी होगा -स्वतंत्रता -समानता-बंधुत्व के मूल्यों में यकीन रखने वाले हर उस हमले के खिलाफ खड़े मिलेंगे।
                      फ़्रांस में आतंकी हमले का शिकार व्यंग्य पत्रिका 'शार्ली  हेब्दों 'का नया एडिसन कल बुधवार को दुनिया भर में बिक्री के लिए उपलब्ध हो गया। पैगंबर मोहम्मद साहिब के कार्टून के साथ इस बार मेग्जीन की   ५० लाख प्रतियां बाजार में उपलब्ध थीं।  मोहम्मद साहिब का कार्टून छपने  के कारण ही इस पत्रिका पर आतंकियों ने हमला किया था। जिसमें कार्टूनिस्ट जुइस समेत १२  मीडियाकर्मी मारे गए थे। शरीफ सभ्य मुसलमानों  ने तब इस हमले का विरोध किया था।  अब  मुसलमानों की  भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली इस नयी कार्यवाही का  हम विरोध करते हैं।  हम हर हमले का युक्तिसंगत प्रतिकार इस तरह से नहीं कर सकते।   यूरोप के जो लोग  पेरिस हत्याकांड पर -चार्ली हेब्दों हमले पर इतने लाल-पीले हो रहे हैं वे तब कहाँ थे। जब ९/११ हुआ तो कुछ  आँख खुली। जब सिडनी में  हमला हुआ  तो कुछ जोश आया। जब पेशावर में बच्चों पर  हमला  हुआ तो कुछ कुनमुनाये । इधर  भारत में आये दिन मुंबई  हैदरावाद  कोकराझार   ही नहीं बल्कि   कश्मीर से कन्याकुमारी तक और नागालैंड से कच्छ के रन तक लगातार  आतंकी हमले हो रहे है।आतंकी  हमलों के निमित्त  'चार्ली हेब्दों'  और भारत के लिए दुनिया के मापदंड अलग-अलग क्यों  हैं। 
                            कल तक हमने भी  यही माना कि  यह अभिव्यक्ति पर हमला है। जब पैगंबर साहिब के  एक  रेखाचित्र को हौआ बनकर आतंकियों  ने  निर्दोषों को भी  मौत  के घात उतार दिया तो हमें बहुत बुरा लगा।  हमने शोक संवेदना व्यक्त की। लेकिन  कल  जब 'शार्ली  हेब्दों '  की ५० लाख प्रतियों में पैगंबर साहिब का कार्टून छपकर  यूरोप के बाजार में मिनटों में बिक गया तो मुझे  फिर जबरजस्त शॉक  लगा।  शार्लि   हेब्दों के इस कृत्य ने मुझे उसके  खिलाफ और इस्लाम के पक्ष में खड़ा कर दिया।  कई बार खबरों में आया कि हिन्दुओं के देवी देवताओं के फोटो किसी  अमेरिकी जूता कम्पनी के जूतों के तल्लों में सुशोभित हो रहे हैं। जब भारत का कोई व्यक्ति या संस्था उसके खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से या न्यायिक तरीके से  आवाज उठता है तो उसे दकियानूसी ,साम्प्रदायिक   घोषित कर दिया जाता  है। भारत में तो प्रगतिशील -धर्मनिरपेक्ष वही है जो  हिन्दुओं का मजाक उड़ाए। एक कोई मुसलमान  कार्टूनिस्ट था। उसका नाम लेना भी मुझे पसंद नहीं।   वो वृंदा  सुबह का नास्ता तब तक नहीं  करता था जब तक  किसी हिन्दू देवी की नंगी तस्वीर नहीं बना लेता था। हिन्दू देवताओं  के गंदे चित्र बनाकर वह  दुनिया में फेमस हो गया।  उस कार्टूनिस्ट नेजीते जी  मोहम्मद साहिब का या किसी भी मुस्लिम पीर -फ़कीर का कार्टून बनाने की जुर्रत  कभी नहीं की। मजेदार तथ्य यह भी है कि  जब उस कार्टूनिस्ट के खिलाफ किसी हिन्दू  वयक्ति या संगठन ने  जरा भी आवाज उठाई तो मेरे जैसे रोशनख्याळ  धर्मनिरपेक्षतावादी  प्रगतिशील वैज्ञानिक सोच वाले हिन्दू ने  भीं उस कार्टूनिस्ट का ही साथ दिया। क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी का ठेका  तो लगता है कि भारत में केवल वामपंथियों ने ही ले रखा है।  भारत में वामपंथ के अलावा किसी भी राजनैतिक पार्टी या विचारधारा ने उस कार्टूनिस्ट का कभी समर्थन नहीं किया। जिसने गजगामिनी फिल्म बनाने के बहाने एक अभिनेत्री को भी घोड़ी बना दिया था। खेर भारतीयों  की और खास तौर  से प्रगतिशील लोकतांत्रिक समझबूझ वालों  की  तो 'हलाहल' पीने की पुरानी आदत है। बात तो यूरोप वालों की खास है कि  अमृत भी छानकर पी रहे हैं।   
                    मजहबी आतंकवादियों  या तथाकथित इस्लामिक जेहादियों द्वारा  पेरिस स्थित  'शारली हेब्दो ' पर हमला हुआ । बहुत बुरा हुआ । एक दर्जन पत्रकार और मीडियाकर्मीयों  की वेश्कीमती जाने गईं। इस दुखद घटना से  सिर्फ  ईसाइयत या  चर्च  के प्रभाव  वाले यूरोप को  ही नहीं ,वैचारिक  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  के पैरोकारों को ही नहीं बल्कि  दुनिया के  सच्चे मुसलमानों को भी इस हमले से  बहुत दुःख  हुआ। इस दुखद हत्याकण्ड  को कुछ लोगों ने 'अभिव्यक्ति की आजादी' पर हमला बताया। कुछ लोगों ने इस जघन्य  बर्बर हत्याकांड के लिए संकीर्ण  सोच वाली  मजहबी  शिक्षाओं को जिम्मेदार बताया।  शार्ली  हेब्दो  पर आतंकी  हमले  से  आक्रांत   यूरोप मानों श्मशान वैराग्य से गुजर रहा है।  रहा है।  पेरिस,सिडनी,पेशावर जैसी   अमानुषिक नर संहार की घटनाएँ  क्या 'बोको हराम' के  अत्याचारों से बढ़ीं हैं ?क्या  पाकिस्तान  में हर  रोज  दर्जनों मौतें नहीं हो रहीं ? क्या फिलिस्तीन ,नाइजीरिया ,सीरिया ,इराक लेबबनान,दमिश्क और यमन में सब जो नर संहार चल रहा है उस पर आंसू बहाने के लिए चर्च की या यूरोप की  शरण में जाना होगा ? भारत तो   दुनिया में   मानो  गरीब की लुगाई है।  यहाँ तो नगरों और राजधानियों में भी जंगल  राज है।  यूरोप ,बेटिकन या  अमेरिका की नजर में  भारतीय  मौतों का आकलन  तो डॉलर और रूपये की परिवर्तननीयता जैसा ही है।

      भारतीय  उपमहाद्वीप  और  दुनिया के गैर ईसाई  निर्धन राष्ट्र  तो केवल प्रयोगशाला मात्र  हैं।  इन भिखमंगे देशों में मरने वाले 'इंसान' तो  किसी किस्म की 'विराट शोक संवेदना' के काबिल  ही नहीं हैं। इसीलिये  तो पढ़े - लिखे उधर ही भाग रहे हैं। जो नहीं जा सकते वे  ईश्वर से प्रार्थना  करते हैं  कि  हे परमात्मा !  'अगले जन्म मोहे यूरोपियन ही  कीजो '
                    पेरिस के  जिस निर्मम हत्याकण्ड पर  सारे संसार में  शोक संवेदनाओं  का सैलाब उमड़ रहा है। वो  आतंकी हमला  तो मुंबई में  २६/११ के सामने जूं  के बराबर भी नहीं है।  पेरिस ,मेड्रिड ,वान, लन्दन , हेमवर्ग , वेटिकन और सिडनी   इत्यादि महानगरों में बड़े  विराट एकता जुलुस  निकल रहे हैं।  कार्टून से सुसज्जित पोस्टर लगे हैं।  जिस  पत्रिका 'शार्ली  हेब्दों'  की प्रसार संख्या ३०-४०  हजार हुआ करती थी  वो करोड़ों की संख्या में  छपने लगी है। छपते ही  हाथों-हाथ बिक रही है।  पता नहीं क्यों  इन शोक सभाओं  और केंडिल  रैलियों को देख-देखकर मुझे कुछ -कुछ ईर्ष्या  सी हो रही है। बजाय किसी वेदनात्मकता के उलटे मुझे  कुछ  फील गुड सा महसूस  हो रहा है।  एक आशाजनक  तसल्ली  सी हो रही  है। शायद  मेरे  स्वार्थी मन में यह संतुष्टि भी हिलोरें ले रही है कि 'चलो अच्छा ही  हुआ, अभी तक तो हम [भारत ] अकेले ही भुगत रहे थे,अब तुम पर  भी  बीत रही है सो शायद कुछ हमारी वेदना को भी दुनिया समझेगी '।  मेरी इस तरह की स्वार्थी मनोदशा के लिए  भी ये यूरोपियन ही जिम्मेदार हैं। इस नकारात्मक सोच में  मेरा कोई  व्यक्तिगत  स्वार्थ नहीं  है। एक किस्म का  'राष्ट्रीय स्वार्थ' जरूर है। यह केवल राष्ट्रीय स्वार्थ  ही नहीं  अपितु सच्चा 'अंतर्राष्ट्रीयतावाद' भी इसी में निहित है।  जो  आतंकी हमले भारत की जनता भुगत रही है , उस वेदना को  सिडनी, पेशावर या पेरिस या  न्यूयार्क ही नहीं बल्कि सारा  यूरोप , सारा अमेरिका , सारा अरब और समस्त संसार भी महसूस करे।
               वेशक  भारत  पर  जो बीत रही है उसके लिए पाकिस्तान  जम्मेदार है।  किन्तु पाकिस्तान को मोहरा बनाकर हमें कमजोर करने का ,हमें विभाजित करने का षड्यंत्र किसका था ? अब जो प्रसव वेदना भारत को  भुगतना  पड़  रही है उसका थोड़ा सा  एहसास तुम भी तो  महसूस करो दुनिया वालो' ! हालाँकि यूरोप की  इन शोक सभाओं  में  भारतीय भी दिल से उनके  साथ हैं। किन्तु भारत - पाकिस्तान की जनता हो या एशिया अफ़्रीकी  देशों की जनता हो सबका संकट साझा है।  निदान भी साझा ही  है।  किंन्तु नजरे इनायत सिर्फ  वहीं क्यों ? इसलिए हे श्वेत प्रभुओ ! भारत पर भोंकने वाले कुत्तों को सहलाना बंद करो। वरना आतंक का कोई मजहब नहीं होता। ये भस्मासुर भारत में तो आग से  खेल  ही रहे हैं. किन्तु पेरिस ,लन्दन ,न्यूयार्क ,सिडनी की आवाम या पेशावर में तो बच्चे भी उनसे सुरक्षित नहीं हैं।  जो आतंकवादी अभी  दुनिया भर में 'आग मूत '  रहे हैं। उन्हें राशन पानी कौन दे रहा है ? इस भयानक अमानवीय   आतंकवाद को  वैचारिक आवोहवा देने वाले स्वयंभू खलीफा  कौन हैं ? आतंकवादियों को  अश्त्र-शस्त्र से लेस करने वाले  दलालों  को पालने वाले कौन हैं ? जब तक  इन पर कोई अंकुश नहीं  लगाया जाता ,तब तक इन  शोक संवेदनाओं  का दौर  थमने वाला नहीं !  वेशक न्याय ,समानता ,बंधुत्व और अभिव्यक्ति  पर हमला इंसानियत पर हमला है किन्तु उसका प्रतिवाद किसी को चिढ़ाकर  नहीं किया जाना चाहिए।
                                                                              श्रीराम तिवारी 

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