सोमवार, 26 जनवरी 2015

सावधान भारत ! पंडित नेहरू और केनेडी ने भी -नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा की तरह खूब गलबहियां डालीं थीं।



         दुनिया जानती है कि भारत का अटॉमिक इनर्जी कार्यक्रम और यूरेनियम संवर्धन रिएक्टर १९६० में महान वैज्ञानिक होमी  जहांगीर भाभा के निर्देशन और पंडित नेहरू के नेतत्व में  शुरू किया जा चूका था।  नेहरू जी ने भी नरेंद्र मोदी की तरह  ही तत्तकालीन अमेरिकन प्रेजिडेंट  केनेडी  को भारत बुलाकर खूब आवभगत की। मिस्टर ओबामा तो  टीवी और अखवारों में ही  हैं जबकि कैनेडी तो भारत  की बड़ी नामचीन लाइब्रेरियों  से लेकर नाई की 'हेयर कटिंग सेलून ' तक  पहुंच बना चुके थे।
          पंडित जवाहरलाल  नेहरू  और केनेडी ने भी -नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा की तरह खूब गलबहियां  डालीं थीं।  किन्तु हुआ क्या ?  जब अमेरिका को लगा की भारत के  वैज्ञानिक तो परमाणु बम्ब भी बना सकते हैं तो उसने तारापुर परमाणु केंद्र को यूरेनियम सप्लाई रुकवा दी थी। अंतरिक्ष में एसएलवी  क्रांति के ,धरती पर   अद्व्तीय   हरित  क्रांति के ,श्वेत क्रांति और परमाणुविक क्रान्ति के जो  झंडे भारत ने गधे हैं क्या उनमें  मौजूदा भारत सरकार का कोई हाथ है ? गणतंत्र दिवस  समारोह में बराक ओबामा ने भारत की जो सामरिक शक्ति  देखी  क्या वह ७ माह  के मोदीकाल में ही प्रकट हुई है ? क्या यह सच नहीं कि  यह देश के मेहनतकशों ,वैज्ञानिकों  और भूतपूर्व नेतत्त्व की साझी मेहनत का परिणाम है ?  वर्तमान सरकार जो कर रही है उसका परिणाम तो अभी आना शेष है ! अभी तक  तो भारत ने जो कुछ भी अर्जित किया या ओबामा ने 'राजपथ' पर देखा उसमें अमेरिका का रत्ती भर योगदान नहीं है।  मुझे ताजुब होता है कि  राजपथ पर जब  सोवियत टेंक और उसके द्वारा दी  गईं  तकनीकि  के महाकाय अश्त्र-शस्त्र संचालित हो रहे थे तब उन्हें  बराक  ओबामा कैसे देख पाये ? ये सारे दृश्य जो गणतंत्र दिवस पर देश और दुनिया ने देखे वे ,नरेंद्र मोदी के 'मेक इन इंडिया' के बिना ही  कीर्तिमान रचे जा चुके हैं। वेशक सोवियत संघ -भारत की दोस्ती ,इंदिराजी की प्रकल्पना और भारतीय वैज्ञानिकों का अथक परिश्रम  इन झांकियों में अवश्य ही झलक रहा था। जिन्हे देखर ओबामा  हॅंस  रहे थे और मोदी जी छप्पन इंच का सीना ताने हुए थे। सम्भव है कि  बराक -मोदी की जोड़ी उस दुरभि संधि पर एक हों जो पाकिस्तान की  बदमाशी और चीन की दादागिरी से  उतपन्न हुई है। लेकिन भारत को इसमें भी खुश होने की कोई बात नहीं।क्योंकि ज्यों-ज्यों भारत अमेरिका  के आगे झुकता जाएगा त्यों-त्यों चीन -पाकिस्तान और ज्यादा एकजुट तथा घातक होते जाएंगे। सामरिक स्पर्धा में चीन को चिढ़ाने से  भारत को पहले भी बहुत कुछ खोना पड़ा है।  पाकिस्तान को मालूम है कि  अमेरिका  उसका 'सगा' बाप है।  अमेरिका के आगे भारत के नेता अपना दिल निकालकर भी रख दें तब भी वक्त आने पर वह पाकिस्तान के पक्ष में ही खड़ा दिखेगा। तब शायद ओबामा जी अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं होंगे।  भारत में तो चाहे मोदी हो ,चाहे राजीव गांधी हों या इंदिराजी सभी को अमेरिका से धोखा ही मिलना है। यहाँ अमेरिका से मेरा तातपर्य उस आवारा पूँजी से है जो अब वैश्विक हो चुकी है और जिस पर न तो ओबामा का  वश  है और न 'संघ ' परिवार का।  मोदी जी तो अम्बानी-अडानी से ही अभिभूत हैं बाकि अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा ?

पी वी नरसिम्हाराव ,मनमोहनसिंह  द्वारा अभिनीत इस आंशिक पूँजीवादी  विकाश  की पटकथा  राजीव गांधी  ने लिखी थी। उस पठकथा पर  देश के मजदूरों-किसानों और युवाओं ने  तब भी आशंका व्यक्त की थी।  वह आशंका निर्मूल नहीं थी। कौन है जो नहीं जानता की इन्ही नीतियों के कारण अमीर और अमीर हुआ है ,गरीब और गरीब हुआ है। अटॉमिक एनर्जी करार में अमेरिका को भारत की 'ट्रेकिंग' करने से यदि देश के गरीब किसानों की आत्महत्या रूकती है , यदि साम्प्रदायिकता खत्म होती है, यदि आर्थिक असमानता खत्म होती है ,यदि आतंकवाद खत्म होता है  और यदि भारत -अमेरिका की नयी शिखर वार्ता से देश की संप्रभुता सुरक्षित होती है तो मैं भी मोदी जी का मुरीद हूँ।
                            वेशक  इस  गणतंत्र दिवस पर अमेरिकन प्रेजिडेंट  मिस्टर ओबामा का मुख्य आतिथ्य  और इस दरम्यान दोनों राष्ट्रों के कूटनीटिक   द्विपक्षीय  व्यापारिक वार्ताओं से शायद कुछ विदेशी पूँजी भारत में  आ जाए.किन्तु विदेशी पूँजी को या कार्पोरेट कम्पनियों को यूनियन कार्बाइड जैसा ही खुला अनियंत्रित छोड़ना कोई देशभक्तिपूर्ण कार्य नहीं है।  पूंजीवादी संसार के विकाश मॉडल और उनके अपने-अपने राष्ट्रीय  निहतार्थ हो सकते हैं। किन्तु भारत को अभी तक तो अमेरिका ने मुसीबत में  धोखा ही दिया है।  व्यक्तिगत रूप से कदाचित ओबामा  या मोदी की नियत ठीक भी हो शायद  उनकी दोस्ती व्यवहारिक धरातल पर सकारात्मक भी को तो भी  भारत को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए की जब -जब भारत पर मुसीबत आयी तो यूएनओ में हमारा साथ की-किस ने दिया ? हमारा विश्वशनीय मित्र कौन है ? हमारे लिए कौनसी नीतियाँ  अनुकूल और अनुकरणीय हैं ? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि  क्रायोजनिक इंजन के लिए जरुरी ईंधन की आपूर्ति में  बाधा किसने डाली ? हमें यह भी याद रखना चाहिए कि  हमारी सेनाओं की  ट्रेनिग किस पैटर्न पर और किस सामरिक क्षमता पर आधारित है ?
                                     इन सवालों के जबाब जानने वाला  शख्स ओबामा जी के 'नमस्ते इण्डिया ' नमस्कार भारत ' कहने मात्र से पिघलने वाला नहीं  है। मोदी जी कितना ही  बराक-बराक जपें या विदेशी पूँजी के लिए कितना ही लाल कालीन बिछाएं , अमेरिका से न्याय और  समानता की उम्मीद बहुत कम ही  है। यदि अ मेरिका कुछ देगा  तो उसके सामरिक और आर्थिक  हित  उसकी वरीयता में होंगे !  क्या भारत के वर्तमान  नेतत्व को ओबामा से यह भी नहीं सीखना चाहिए ?
 नई  आर्थिक नीति  और सुपर कम्प्यूटर के हिमायती राजीव गांधी ने जब  सबसे पहले  भारत में बाजारीकरण -भूमंडलीकरण को बढ़ावा दिया तो देश के जागरूक लोगों ने उन्हें भी आगाह किया था। आज जो भारत-अमेरिका के सी ई ओ की बैठक दिल्ली के ताज होटल में चल रही है , जिस बैठक में अमेरिकन प्रेजिडेंट श्री बराक हुसेन ओबामा जी और भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी शिरकत कर रहे हैं ,उसकी आधारशिला  राजीव गांधी ,नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह ने ही रखी  थी। पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के  प्रयासों का ही  परिणाम हैं की  भारत में आर्थिक उदारीकरण,निजीकरण  और ठेकाकरण लागू हुआ। जिन विनाशकारी  नीतियों को केंद्रित कर भारत का वर्तमान  नेतत्व अमेरिका के सामने साष्टांग दंडवत किये जा रहा है उनको लेकर भारत की जनता  में आज भी वही  शंकाएं हैं। वेशक ' इण्डिया'आज गदगदायमान  है,किन्तु यह गणतंत्र अभी ' भारत' से  कोसों दूर हैं। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि  अमेरिका ने वीटो का जब भी उपयोग किया-पाकिस्तान का समर्थन और भारत के खिलाफ किया।
       इन्ही  विनाशकारी   नीतियों के परिणामस्वरूप , विगत  कुछ वर्षों में जिस तरह अम्बानियों -अडानियों  और अन्य लक्ष्मीपतियों का  विकाश हुआ  है ,ठीक उसी तरह  मुंबई ,दिल्ली ,चेन्नई,हैदरावाद, पुणे,सूरत ,त्रिवेन्द्रम ,  अहमदावाद ,बेंगलुरु ,नागपुर ,भोपाल  और इंदौर पर भी इस नव्य उदारवाद की असीम अनुकम्पा रही है। नयी आर्थिक उदारीकरण की नीति से कुछ पढ़े -लिखे हाई  टेक युवाओं को  सरकारी नौकरी तो नसीब नहीं हुई.  वेशक प्रतिस्पर्धी दौर  में वे पूँजीपतियों  की गुलामी में अपनी जवानी खपाने को मजबूर अवश्य हो गए हैं।  रिश्वतखोर ,जमाखोर ,दलाल ,कालबाजारीये ,सत्ता रूढ़  भृष्ट नेता ,टीनू-अरविंद  जैसे भृष्ट बेईमान अफसर और आसाराम, रामपाल ,गुरमीत राम रहीम जैसे बाबाओं की सम्पदा में अकूत बृद्धि हुई है।
                                मोदी जी जिन नीतियों के अम्लीकरण पर आमादा हैं वे देश के किसानों ,मजदूरों और युवाओं के हित  में कदापि नहीं  हैं ! अमेरिका के आगे अपना स्वाभिमान गिरवी रखना तो नितांत निंदनीय और  दुखद है।
                   श्रीराम तिवारी 

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