सोमवार, 12 जनवरी 2015

क्या गारंटी है कि आइन्दा ''अंधे पीसें कुत्ते खाएँ '' वाली कहावत चरितार्थ नहीं होगी ?

२०१५ के बाइब्रेंट गुजरात सम्मलेन और उसमें 'मेक इन इंडिया ' की धूम पर कोई टीका टिप्पणी नहीं करते हुए इस सम्मेलन की सफलता के लिए इवेंट के प्रमुख पात्र  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी को बहुत-बहुत बधाई !
दरसल बाइब्रेंट गुजरात या मेक इन इंडिया से किसी को कोई प्रबलम नहीं किन्तु  देश की मेहनतकश जनता के हितों की और देश के हितों की अनदेखी किये जाने के अंदेशे को भी खुलकर  सामने लाया जाना चाहिए।

                      साइंस और टेक्नॉलॉजी  ने मानवीय जीवन को  कितना  कुछ खुशहाल बनाया  वो तो किसी से छुपा नहीं है। सिर्फ भूमण्डल या सौरमंडल  की  ही नहीं बल्कि अंतरिक्ष की उपलब्धियाँ  भी  किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं हैं। मानव सभ्यताओं के इतिहास की अनवरत यात्रा में , मनुष्य की वैज्ञानिक और बौद्धिक चेतना  ने अनेक राजनैतिक -सांस्कृतिक  -सामाजिक -साहित्यिक  और आध्यात्मिक क्रांतियों  को जन्म दिया है। यह भी शुद्ध  सर्वमान्य सत्य है कि इन महानतम उपलब्धियों के वावजूद भी  दुनिया  की  अधिकांस  आबादी  अभी भी भय-भूँख और भृष्टाचार से आक्रांत है। क्रमिक विकास के सिद्धांत अनुसार अब तक याने  इस उत्तर -आधुनिक युग  तक   तो तस्वीर कुछ और होनी चाहिए थी। अब तक तो  मनुष्य को 'अतिमानव' , 'दिव्यमानव'  या 'सर्वश्रेष्ठ मानव'  हो जाना  चाहिए था !  किन्तु हुआ  इसके उलट  है। शक्तिशाली [अ]मानव ने न केवल  मानवीय  हिस्से को  बल्कि जलचरों-खेचरों और वनचरों जैसे तमाम चेतन प्राणियों  के हिस्से को भी डकार लिया है। यही वजह है कि न केवल मानव जाति  का बल्कि प्राणिमात्र का बहुत बड़ा  हिस्सा  दयनीय अवस्था में  जीने  -मरने  को अभिसप्त  है।जिस तरह दुनिया का हर नया शासक वर्ग अपने वर्गीय हितों को साधने के लिए कुछ नया करने की तमन्ना  के साथ  अंधाधुंध   भौतिक विकाश की योजनाएं प्रस्तुत करता है । उसी तरह  भारत के नए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र  भाई मोदी जी भी  बिना कुछ आगा -पीछा  सोचे  'मेक -इन इंडिया'  के निमित्त हलकान हो रहे हैं।   उनके इस भगीरथ प्रयास से 'इंडिया ' का भला भले ही हो जाए किन्तु 'भारत' का उद्धार होगा इसमें संशय है।
                         वेशक  मैन्युफैक्चरिंग को रिवाईव करने  से इंडिया की संभावनाएं उजली हैं ,दुनिया के कई विकसित  देशों का विकास इस क्षेत्र में अपनी अंतिम चरम अवस्था को प्राप्त हो चुका  है। विश्व बैंक के  अध्यक्ष - जिम  योंग  किम -का यह वयान कि  'मोदी सरकार की इंडिया को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में पेश करने की तमन्ना माकूल है किन्तु आपको  सर्विस  सेक्टर  की  अनदेखीकरने से  भी बचना  चाहिए "  उन्होंने ज्यादा काम्पटीटिव होने से भी भारत सरकार  आगाह किया है। विश्व बैंक की नीतियों से मुझे कोई इत्तफाक नहीं। किन्तु इतना तो मामूली सोच समझ वाला इंसान भी जानता है कि विश्व बैंक के अध्यक्ष का वयान बक्ती  और काबिले  गौर है। उसमें वैश्विक अनुभवों की अनुगूँज  है। जबकि मोदी जी के पास कोई 'दर्शन' या प्रमाणित सिद्धांत नहीं है।  खुद को प्रचंड जनादेश मिलने की आत्ममुग्धता से प्रेरित मोदी जी  एक भोले किस्म की अंध  उटोपियाई  राष्ट्रवादिता की  सोच  के वशीभूत हैं। इसी का परिणाम  यह  'मेक इन इंडिया' का कोरा आदर्शवादी   मनोरथ  उनके  कार्य -कलापों  में प्रतिबिम्बित हो रहा  है। देश को  इस दिशा में गंभीर जन-विमर्श की दरकार है। पर्यावरण -प्रदूषण का निष्पादन ,एटॉमिक कचरे का निष्पादन ,नदियों का ,जल-जंगल-जमीन का और  देश की आवाम  की सुरक्षा को ताक  पर रखकर - कोई भी विकाश देश को मंजूर नहीं। 
                                 यह सुविदित है कि  न केवल  थोड़े से मनुष्य ,न केवल  कुछेक समाज ,न केवल  कुछ अभागे  अविकसित देश,  न केवल लुटेरे  विकसित  देश  बल्कि  विश्व के वे  सभी देश और समाज  जिन्होंने अतीत में कभी  क्रान्तियों का उदयगान  सुना है , वे भी यह दावा  नहीं कर सके  कि  उन्होंने सिर्फ अपने हिस्से  के सूरज ,धरती ,जल और आसमान से ही संतोष  किया  है।  सफल क्रान्ति  दृष्टा राष्ट्र और समाज भी यह दावा नहीं कर सके  कि मनुष्य  द्वारा मनुष्य का शोषण अब उनके मुल्क या समाज में नहीं होता ! वे यह दावा भी नहीं कर सकते  कि उनका मुल्क आज भी  स्वतंत्रता ,समानता  और विश्व    बंधुत्व  के मूल्यों  से परिपूर्ण हैं।  वे यह दावा भी नहीं कर सकते कि धर्मान्धता  और पाशविकता की  व्याधियों से वे मुक्त हो चुके हैं।
                                यदि  वे यह दावा करते हैं  कि  उनका वैज्ञानिक  विकास सर्वसमावेशी है तो पेरिस ,सिडनी ,लन्दन और न्यूयार्क में आयोजित की जा रहीं शोक सभाओं  के निहतार्थ क्या हैं ? 'चार्ली हेब्दो ' के हमले में किसी  की  भी भूमिका  हो ! अति विकसित राष्ट्र कहलाने वाले इन देशों की  हालत भारत -पाकिस्तान जैसी   क्यों हैं ? जब  पश्चिम की दुहिता -सांइस और टेक्नॉलॉजी उनको ही इतनी  जहरीली है,  तो पूर्व के देश क्यों हाराकिरी  पर तुले हैं ?   मोदी जी जैसे नवेले नेता क्यों यह दावा कर रहे हैं  कि  पश्चिम का  अंधानुकरण ही  भारत की मुक्ति का अंतिम सत्य है ? उनसे  ये तो उम्मीद नहीं कि वे  वैचारिक मानवोचित उदात्त मूल्यों  की फ़िक्र  करते फिरें !  किन्तु वैज्ञानिक विकास की  असावधानियों के   निहतार्थ और ततसंबंधी  निदान पर तो वे  चिंतन मनन कर ही सकते हैं !  भोपाल गैस काण्ड , दुनिया भर में निसृत हो रहा अटॉमिक -न्यूकिलयर उत्सर्जन , इलेक्ट्रॉनिक कचरा ,रेडियोधर्मी कचरा और अंधाधुंध भू उत्खनन  तथा  वायुमंडलीय प्रदूषण इत्यादि  खतरों का  'मेक-इन इण्डिया' से  कुछ लेना देना तो नहीं है ?  क्या  नदियों की  सुरक्षा को कागजी कार्यवाही से आगे बढ़ाया गया है ? यदि उन्नत राष्ट्रों की दुर्दशा को ही हांड़ी का चावल समझा जाए तो ही किसी किस्म के आधुनिक और वैज्ञानिक  विकास  से 'बाइब्रेंट भारत' का सपना पूरा  किया जा सकता है।
                              बाइब्रेंट गुजरात या 'मेक इन इण्डिया' से किसी को कोई प्राब्लम नहीं है ।  समस्या यह भी नहीं है कि  पाश्चत्य राष्ट्रों की  नीतियाँ  को फॉलो करने से  भारत  की समस्या हल नहीं होगी।  ओचक  विकाश के चुनावी वादों या नारों  को अमली जामाँ पहनाने से भी समस्या नहीं है।  असल समस्या ये हैं कि इन तमाम मशक़्क़तों और  वैज्ञानिक संसाधन समृद्धि के वावजूद ,इतनी कुरवानियों के वावजूद भी इसकी क्या गारंटी है कि विकास का कुछ मीठा फल  देश की मेहनतकश आवाम को भी मिलेगा ? क्या गारंटी है कि आइन्दा ''अंधे पीसें कुत्ते खाएँ ''  वाली कहावत चरितार्थ नहीं होगी ?
                                            जो लोग आज सत्ता में हैं, उन्ही की मान्यता के अनुसार  अतीत में भी तो भारत एक समृद्ध  सम्पन्न और ताकतवर  राष्ट्र  रहा है । उनसे एक सीधा सरल सा सवाल है  कि 'ऐंसा  क्यों  हुआ कि यह सोन -चिरैया रुपी  भारत याने अतीत का  महान सम्पन्न राष्ट्र  मध्ययुग में किन्ही  बर्बर  आक्रान्ताओं  की 'बुरी नजर ' का शिकार होता चला  गया '?  इसी तरह एक सवाल और उठता है कि 'वर्तमान  युग की कुख्यात पूँजीवादी  व्यवस्था और आधी -अधूरी लोकशाही  के परिणामस्वरूप   संसार में सबसे सस्ता श्रम  बिकने के वावजूद ,अब  तक समृद्धि  का दीदार देश की बहुसंख्य जनता को क्यों नहीं हुआ ? अतीत का सनातन शोषित -पीड़ित -दलित छुधित  मानव  आज  भी इस दौर में भी  यथावत उसी शोषण-उत्पीड़न और  सामाजिक दुर्दशा  का शिकार क्यों है  ?
               यह  बताने  कि  जरूरत नहीं  कि   स्वातंत्र्योत्तर  भारत के पूँजीवादी -सामंती शासकों के बाहुबल-धनबल - ऐशो -आराम  में  खूब इजाफा हुआ है ? नव धनाढ्यवर्ग की संख्या में भी खूब बृद्धि हुई है।  मेहनतकश जनता  -मजदूर -किसान और युवाओं  के हिस्से  में क्या कुछ आया ? केरल ,पंजाब ,हरियाणा या मुंबई की तरह  यदि कहीं थोड़ा विकास हुआ भी है तो उसे  नशाखोरी ,हिंसा ,रेप ,साम्प्रदायिक उन्माद ,अंधश्रध्दा ,प्रशासनिक धांधली  और मुकदमेबाजी ने निगल  लिया है।
                   आत्महत्या को मजबूर हो रहे  किसानों , छटनी और कारखाना बंदी के शिकार हो रहे असहाय , निरूपाय मजदूरों  को बाइब्रेंट गुजरात से भारत को जब मिलेगा तब मिलेगा। किन्तु गुजरात के किसानों को ही अब तक  क्या -क्या मिला ? जब गुजरात के किसान -मजदूर ही बेहाल हैं तो बाइब्रेंट भारत से देश के सर्वहारा वर्ग को  क्या उम्मीद रखनी चाहिए  ? यह जरूर बताया जाना चाहिए !वेशक अपने कर्तव्यों-अधिकारों और हितों के लिए  जागरूकता और एकजुट संघर्ष की  क्षमता तो बढ़ी है ? लोकतंत्र और आधुनिक विकास की अवधारणा में समन्वय पर  आवाम को  यत्किंचित शंका भी  है. किन्तु  उसे यह भी मालूम है कि  इस पतनशील अधोगामी व्यवस्था  को ध्वस्त किये बिना  किसी 'नयी'  व्यवस्था का आगाज असम्भव है !
                       चूँकि शोषित -वंचित  वर्ग की आपस की  फूट सर्विदित   है।  फिरकों, जातियों  में तो जनता को    शायद  मजहबी और सामंती इतिहास ने बाँटा  होगा । किन्तु  आधुनिक दौर के मजहबी संघर्ष ,जातीय संघर्ष ,  सभ्यताओं के संघर्ष ,अलगाववादी आतंकी हमले ,वाम उगवादी  भटकाव  तथा पूँजीवादी  विकास के एकांगी    विमर्श इस मेहनतकश आवाम को 'संयुक्त संघर्ष' से वंचित किये हुए हैं। यह बताने की जरुरत नहीं कि  इस फुट में  किस का हाथ है ? कौन जनता को  'कुल्हाड़ी का बेंट 'बनाकर  इस्तेमाल कर रहा है?

    श्रीराम तिवारी
                                                           [२]
                          धर्म - दर्शन ,अध्यात्म -योग ,भक्ति -ध्यान और तत  सम्बन्धी 'कन्फ्यूज्ड  साहित्य'  ने  एक श्रम  बेचने वाले मानव की वास्तविक मुक्ति में कितना इजाफा  किया  है ? यह अवर्णनीय है।एक बार एक पढ़े-लिखे किन्तु  गरीब किसान  ने  स्वर्गीय रजनीश जी [ओशो]  से पूंछ लिया- स्वामीजी !  आपके उपदेशों में बहुत गहराई है ! किन्तु  मेरी समस्या यह है कि  मेरा एक  बैल  मर  चुका  है और  फसल की बोनी करने में कठिनाई  आ रही है। इस स्थिति में  मैं आपके उपदेश का क्या करूँ ?  महान दर्शनशास्त्री आचार्य प्रवर  रजनीश बाकई  अदभुत  विद्वान थे,इसके अलावा   कुछ -कुछ  ईमानदार भी थे ,उन्होंने  उस गरीब किसान से कहा - मेरा ज्ञान तेरे लिए नहीं है ! मैं तो उनका गुरु हूँ जो सब प्रकार से सम्पन्न हैं ,अच्छा खाते  हैं ,अच्छा पहनते हैं ,अच्छा सुन्दर शरीर पाया है किन्तु फिर भी दुखी हैं !परेशान  हैं !
             
 वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की उपलब्धियां , लोक चेतना ,लोकतंत्र ,समाजवाद ,क्रांतियाँ ,जन-आंदोलन,प्रगतिशील साहित्य सृजन यह सब उनके लिए हैं जो लड़ने का माद्दा रखते हैं। जो धर्म -मजहब की अफीम खाए हुए हैं या अमीर बापों की बिगड़ैल ओलादें  हैं वे मेरे लेखन को हेय  दृष्टि  से न देखें क्योकि यह उनके लिए नहीं है।  कितना इजाफा हुआ है ? यह अवर्णनीय है। जिस तरह  गूगल सर्च पर तमाम  अधकचरी सूचनाएं  और आभासी चेहरे तो उपलब्ध है, किन्तु निरपेक्ष सत्य ,मानवीय  विवेक , सौंदर्यबोध ,त्याग  और मूल्यों का   नितांत  अभाव  है। उसी तरह घटिया फुटपाथी साहित्य में अमानवीय लम्पटता तो मिल जाएगी। किन्तु इसमें  वर्गीय चेतना , वैज्ञानिक सोच और सकारात्मक सामाजिक  दृष्टि  कदापि नहीं मिल सकती। आजीविका का तो सवाल ही नहीं उठता।  कार्पोरेट नियंत्रित -कुकुर्मुत्तेनुमा  दृश्य मीडिया  पर पेड न्यूज ,घटिया विज्ञापन उबाऊ वैयक्तिक खबरें या नित नए मनोरंजन  चेनल्स पर सास बहु के  घटिया सीरियल ,अश्लील कॉमेडी ,धार्मिक पाखंडवाद या हरर फिल्मे  अवश्य मिल जाएंगी।  वास्तविक मानवीय सरोकार ,  मानवीय सभ्यताओं का इतिहास ज्ञान यहाँ कदापि नहीं मिल सकता। ज्ञान तो कुछ खास किस्म के साहित्य और जीवन संघर्ष के निजी  अनुभवों से ही  प्राप्त किया जा सकता है।
                      जो लोग भगवद्गीता  को  राष्ट्रीय पुस्तक घोषित कराना चाहते हैं ,उनमें इतना भी ज्ञान नहीं कि  गीता में  यह  भी लिखा है कि  'यह गूढ़ ज्ञान केवल उनके लिए है जो इसे तहेदिल से पसंद करते हैं ' ।   जिनको लगता है कि गीता में  कुछ  भी  अच्छा ज्ञान नहीं या कोई जीवन सन्देश नहीं  मिलता ,जिनको लगता है कि  गीता ,कुरआन ,बाइबिल या अन्य धर्मिक ग्रंथ मनुष्य का पथप्रदर्शन  करने के लिए  नहीं बने   ,वे अपने पूर्वजों की हजारों सालों से निरंतर पीढ़ी -दर -पीढ़ी   चली आ रही परम्पराओं को गलत सावित करने के लिए स्वतंत्र हैं। किन्तु जिन्हे लगता है कि इन  धार्मिक ग्रंथों  में या गीता में कुछ वैज्ञानिक  तत्थ्यात्मक सच्चाई है वे इन  ग्रंथो को खूब पढ़ें।  जो ज्ञान पिपासु हैं वे तो  अवश्य  ही   पढ़ रहे हैं।  जो लोग धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना नहीं चाहते या जिन्हे मानवीय मूल्यों ,इतिहास,या मानवीय संवेदनाओं से कोई सरोकार नहीं वे  कितने ही क्रांतिकारी भाषण झाड़ते रहें किन्तु उनके लिए  तथाकथित क्रांति के रास्ते तब तक नहीं खुल सकेंगे जब तक 'आवाम' का साथ नहीं  मिल जाता। चूँकि संसार में भारत  एक  ऐंसा देश है जहाँ  सभी धर्म -मजहब  के लोग और उनके धर्म पूर्णतः  सुरक्षित हैं।  जब अल्पसंख्यकों  के ग्रंथों को  यहाँ पूरा -पूरा सम्मान है तो बहुसंख्यक वर्ग के 'पावन' ग्रंथों पर मजाक करना बुद्धिमत्ता  नहीं  है। कुछ अपढ़, मूढ़मति और लफ़्फ़ाज़ लोग  वैचारिक संकीर्णता के सिंड्रोम से पीड़ित होकर न तो क्रांतिकारी  हो सकते हैं और न ही  किसी क्रांति के संवाहक हो सकते हैं।
                        कुछ लोग अपने पूर्वर्ती नेताओं की आलोचना केकृतघ्न  फोबिया से पीड़ित हैं।  वे तथाकथित विकसित पूँजीवादी  पश्चिमी  राष्ट्रों की  यात्राओं से बेहद प्रभावित हैं।  वे अपने देश भारत में इसके  निमित्त विकाश और सुशासन का पूंजीवादी नारा लगा रहे हैं।   क्या यह कोई विकाश्मान चेतना कही जा सकती है कि "अमेरिका , रूस ,चीन या जापान  सहित तमाम  अटॉमिक ताकतों के  जैसा ही हमें बन जाना है ? पाकिस्तान चीन   की मानिंद प्रतिशोध की ज्वाला में धधकना है ! क्या हमें उनका अनुशरण शोभनीय है जिनके पास इतनी आणविक-परमाण्विक शक्ति है कि  इससे  वे इस पृथ्वी को  हजार  बार नष्ट कर सकते हैं". क्या इंसानियत के मूल्यों से भरपूर  भारत  के लिए ये शैतानी भेड़िये आदर्श हो सकते हैं ? कुत्ता इंसान को काटे तो इंसान उसके काटने का उपचार खोजता  है।  यह  सामाजिक  और मानवीय सांइस तो  हमें मंजूर है। किन्तु कुत्ते के काटने पर पलटकर कुत्ते को काटा जाए यह हमें मंजूर नहीं।   जिन्हे इस अवैज्ञानिक और अंधाधुंध पूँजीवादी  विकास की तमन्ना है  वे यदि गीता,महाभारत जैसे धर्मग्रंथों में निहित युद्दोन्माद से प्रेरित हैं तो उन्हें गीता  फिर से ठीक से पढ़नी  चाहिए  जिसमें  यह भी लिखा है कि 'ज्ञानाभ्यो  अधिको योगी तस्मात् योगी भवार्जुन '
                                      shriram tiwari 

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