मंगलवार, 27 जनवरी 2015

राष्ट्रवाद और हिन्दुत्ववाद के कंधो पर चढ़कर पूंजीवाद अठ्हास कर रहा है !

  ताजा खबर है कि   अमेरिकन प्रेजिडेंट मि, ओबामा के भारत से अमेरिका वापिस  लौटने के एक हफ्ते बाद  माननीय राजनाथसिंह जी  [गृह मंत्री भारत सरकार ] ने बिनम्रता पूर्वक अपनी भावना प्रकट की है। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा कि  ओबामा ने भारत  के लोगों को एक सरपरस्त की तरह आगाह किया है। ओबामा ने जाते-जाते  परोक्षतः  सदाशयता व्यक्त की है कि   भारत  की एकता और अखंडता  को इस शर्त पर अक्षुणता प्राप्त हो सकती  है कि -'सभी  भारतवासी  मिलजुलकर  रहें'।  राजनाथसिंह जी को यदि  इल्हाम हुआ कि  ओबामा  ने  भारत को अनावश्यक  नसीहत दी है ,तो मैं उनकी  बौद्धिक जागरूकता और असली राष्ट्रवादिता को नमन करता हूँ।  देर आयद दुरुस्त आयद ! ओबामा के इस बयान पर ततकाल -२७ जनवरी  को ही  मैंने  निम्नांकित  आलेख  के मार्फ़त अपने विचार  व्यक्त किये हैं। जिस -किसी ने नहीं पढ़ा हो उनके विहंगावलोकनार्थ पुनः प्रस्तुत किया जाता है !:-



ओबामाजी  भारत पधारे !  गणतंत्र दिवस  समारोह देखा ,बड़ी कृपा की ! मोदी जी ने ओबामाजी की तारीफ की।  ओबामाजी ने मोदी जी की तारीफ की।  दोनों ने मिलकर -खुलकर -जमकर एक  दूसरे  को सराहा।  चूँकि  दोनों  ही आम से ख़ास  हुए हैं  इसलिए इक -दूजे के मन भाये  ! लेकिन उनके  निजी अनुभवजनित व्याख्यानों में बौद्धिक-दार्शनिकता  का नितात्न्त   अभाव  रहा  !  भाव-भंगिमा और वाग्मिता  में मध्यमवर्गीय  चुहलबाजी   और आत्ममुग्धता के अलावा कुछ नहीं था।  सरकारी तौर  पर जताया गया कि   द्विपक्षीय व्यापरिक संधि ,परमाणु करार का अगला स्टेप और  विनिवेश के  लिए अनुकूल वातावरण    बनाया जाएगा।  लेकिन ओबामा की भारत यात्रा से  मोदी जी के  तीन लक्ष्य सधते नजर आ रहे हैं।   दिल्ली राज्य चुनाव  में सफलता , चीन -पाकिस्तान   से  कूटनीतिक बढ़त और कार्पोरेट लाबी को  आर्थिक सुधारों में अहम भूमिका की लपक के निहतार्थ स्पष्ट देखे जा सकते हैं।  ये बिंदु ही मोदी जी को अपनी धाक बनाये रखने  के निमित्त टॉनिक सिद्ध होंगे।  किन्तु आर्थिक विकास ,सुशासन और संघ के एजेंडे  के अम्लीकरण में सफलता मिलेगी  इसमें अभी भी  संशय है।

    गणतंत्र दिवस पर मैंने 'सावधान भारत ! …… नाम से  - ओबामा की भारत यात्रा पर  भारत-अमेरिकी संबंधों के दूरगामी  निहतार्थ  विषयक  आलोचनात्मक आलेख पोस्ट किया था।  मेरे  कुछ स्थायी  निंदकों और  पैदायशी आलोचकों को उससे बड़ी तकलीफ हुई।  कुछ ने तो   कपडे ही फाड़ लिए।  अधिकांस को वह आलेख सटीक लगा   होगा !  जिन्होंने नहीं पढ़ा , वे एक बार www.janwadi.blogspot.com  का  विहंगावलोकन अवश्य करें।  सिरीफोर्ट सभागार में  प्रेजिडेंट ओबामा जब युवाओं को  सम्बोधित कर रहे थे तब  तक मुझे अपने उस पूर्ववर्ती  आलेख में उल्लेखित आकलन पर  कदाचित  संदेह था ! किन्तु मोदी -ओबामा की रेडिओ पर 'मन की बात' के उपरान्त  मुझे अपने विवेक और विचार पर   और अधिक भरोसा और गर्व होने लगा।
               अपने आखिरी ओवर में ओबामा  जी ने  वो छक्का मारा है  कि मुझे 'वाह' की जगह 'आह' कहना पड़ा ! मोदी जी को और कार्पोरेट सी ई ओ को  तो ओबामा   किंचित गदगद ही कर  गए । खाते-पीते  युवाओं को भी शायद कुछ दिन तक ओबामा दम्पत्ति ही सपने में दिखें।   किन्तु जिनका जमीर जिन्दा है ,जो अपनी अक्ल  गिरवी  रखने से अभी भी बचे हैं उन्हें तो ओबामा जी की नसीहत जरा भी नहीं  भाएगी । प्रेजिडेंट ओबामा ने  तीन दिनों तक तो भारत की जनता को  खूब मीठा-मीठा परोसा। भारत भूमि से  गणतंत्र दिवस पर भारत के स्थाई मित्र  रूस  की निंदा की।  भारत छोड़कर साउदी अरब जाते वक्त  वे  भारत को 'ब्रह्म ज्ञान' दे गए  कि  " भारत धार्मिक आधार पर न बटे  तो ही सफल होगा " कहाँ हो  महात्मा गांधी ? कहाँ हो सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान ,कहाँ हो सरदार  पटेल और कहाँ हो  मोहनराव  भागवत  जी ! कहाँ हो स्वामी विवेकानंद ? आपने तो शिकागो में सौ साल पहले कहा था कि  'भारत को ज्ञान की जरुरत नहीं. .  भारत को तो रोटी -कपड़ा -मकान चाहिए ! यह मोदी जी की कृपा है कि उसी अमेरिकी भूमि के सर्वोच्च नेता   ओबामाजी अब भारत को ज्ञान बाँट रहे हैं !  क्या यह उचित है ?   क्या यह भारतीय गौरव का अपमान नहीं है ?
   क्या यह ज्ञान सुनने के लिए ही मोदी एंड कम्पनी ने अमेरिका और ओबामा को लाल कालीन बिछाई थी ?क्या    बाकई  हमें अब भी  कोई शक है कि जो  अमेरिका अभी तक  रंगभेद और श्रम  के शोषण  के लिए बदनाम है , वो हमें भी  ज्ञान देने का हकदार है ?  मोदी जी - उस सिद्धांत का क्या होगा जिसमें भारत को जगद्गुरु कहा गया है ?  क्या आर एस एस  को , रामदेव को ,अशोक सिंघल को और शिवसैनिकों को ओबामा का यह फतवा  यह मंजूर है  ?  कहीं यह आरोप सच तो नहीं कि  राष्ट्रवाद और हिन्दुत्ववाद के कंधो पर चढ़कर पूंजीवाद मजे ले रहा है ? अट्ठहास कर  रहा है !
                             मोदी -ओबामा के  'मन की बात '  या चाय पर मिलन' से  पहले वाली  स्थति  में मुझे  लगा  कि   शायद मैंने  ओबामा की तुलना केनेडी से करके   उचित नहीं किया ! किन्तु अब मुझे कुछ -कुछ आशा बंधी है कि  शायद ओबामा ने भारत को समझने की तहेदिल से कोशिश  नहीं की  !   उन्होंने जितना भी आउट पुट  दिया उसका अधिकांस श्रेय   भारतीय प्रधान मंत्री  श्री नरेंद्र मोदी को  ही जाता है। लेकिन एक कसक  भी रही  कि काश  मोदी जी के एजेंडे में  भारत के एक अरब गरीबों -किसानों -मजदूरों  के 'मन की बात' भी होती  ?  वेशक  इस अवसर पर एलीट क्लाश युवा वर्ग ही वोट बैंक के रूप में उनके एजेंडे  की वरीयता में था और उन्होंने    जानबूझकर निर्धन भारत ,दरिद्र भारत को    विमर्श   से परे रखा गया। क्योंकि  सर्वहारा  वर्ग  उनके लिए मुफीद नहीं है।
 'मन की बात ' कार्यक्रम में जिन श्रोताओं ने सवाल किये वे सभी मोदी जी के पूर्व परिचित लग रहे थे।  यदि यह आरोप गलत है तो इसका क्या उत्तर है कि  प्रश्न करता को  क्यों यह मालूम है कि  बरसों पहले मोदी जी जब अमेरिका गए थे तो उन्हें वाइट हाउस में घसने नहीं दिया गया।  प्रश्नकर्ता को यह भी मालूम है कि  मोदी जी ने तब छिप-छिपकर वाइट हॉउस  के बाहर अपने  दो अन्य साथियों के साथ फोटो भी खिचवाई थी।   उस फोटो को ततकाल मीडिया पर उपलब्ध कराया जाना।  साबित करता है कि  सभी प्रश्नकर्ता प्रयोजित थे ,सभी 'संघी' थे और सभी ने 'भगवा भांग' पी रखी  थी ' .
                           एक  श्रोता ने  जब मोदी-ओबामा की जोड़ी से तकनीकी दक्षता के भूमंडलीकरण विषयक प्रश्न किया तब मुझे तब घोर आश्चर्य और हैरानी हुई।  हैरानी उस पश्नकर्ता के  सवाल पर  कदापि नहीं ! हैरानी इस बात पर  भी नहीं हुई  की  मोदी जी ने  क्या जबाब  दिया  !  हैरानी इस बात पर हुई कि  घोर कम्युनिस्ट विरोधी और पूंजीवाद  परस्त अमेरिका के राष्ट्रपति मिस्टर ओबामा के सामने ही  मोदी ने वह  कहने  की हिमाकत की  जो दुनिया के किसी भी अन्य राष्ट्र नेता ने , कभी भी किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने ,अब तक नहीं कहा ! बहुत सम्भव है कि  शायद गफलत में या असावधानी वश  यह वाक्यांश मोदी श्रीमुख से निकल गया हो !  जो भी मोदी ने कहा - अनायास ही सही - वह कम्युनिस्ट  विचाधारा से प्रेरणा लेने का संकेत मात्र है ! बहरहाल वह  वाक्यांश जिन्होंने नहीं  सुना  वे दूर दर्शन से २७ जनवरी -२०१५ को आयोजित  'मन की बात '  कार्यक्रम  अंतर्गत  'मोदी-ओबामा कृत  ई-बुक' मांगकर अक्षरशः देख सुन सकते हैं !  [नोट -ई बुक तैयार की जा रही है ]

                                   उस कथित जबाब में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी ने -  भारत के श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए यह कहा " जिस तरह कम्युनिस्ट लोग नारा लगाते हैं कि-दुनिया के  मेहनतकशों  एक हो  जाओ !  उसी तरह हम [मोदी -ओबामा] भी क्यों न नारा लगाएँ  कि  दुनिया के तमाम प्रतिभा सम्पन्न हाई टेक सुशिक्षित युवाओ एक हो जाओ ?  मुझे 'मन की बात ' कार्यक्रम के बारे में कोई पूर्व जानकारी नहीं थी। अचानक ही कोई चैनल खोला की मोदी ओबामा की 'अंतरंगता' के दर्शन सहित उनके श्रीमुख से उक्त ' अमृत बचन ' सुनने का सौभग्य प्राप्त हो गया ! चूँकि मुझे कार्यक्रम  की महत्ता और उसके दूरगामी निहतार्थ का बोध नहीं था. इसलिए सब कुछ बहुत हल्के से लिया। अन्यथा में भी सवाल  करता कि 'मान्यवरों' कम्युनिस्टों से सीखकर  यह आह्वान  तो ठीक है। लेकिन कम्युनिटों के आह्वान ' दुनिया के मेहनतकशों एक हो जाओ ' कहने से क्या आपके 'व्हाइट कॉलर्स ' युवाओं को शर्म आती है या दुनिया के लुटेरे धन-कुबेरों को पशीना  छूट रहा  है ?
                                   ये जो लाखों  उच्च शिक्षित -हाई टेक युवा पढ़े -लिखे नौजवान बिना किसी पेंशन  गारंटी के ,बिना किसी  सामाजिक सुरक्षा योजना के , बिना किसी सुरक्षित भविष्य के , बिना किसी मेडिकल फ़ेसलिटी  के ,बिना किसी फेमली पेंशन के -  प्राइवेट सेक्टर में ,आई टी सेक्टर में,असंगठित क्षेत्रों में ,गैर सरकारी क्षेत्रों में  अपना  ज्ञान अपनी ऊर्जा और अपना श्रम  बेच रहे हैं क्या वे 'मेहनतकश ' नहीं हैं ?  क्या आप उन्हें परजीवी और  मक्कार   समझते हैं ? मोदी जी आप श्रम  को सम्मानित किये बिना कुछ भी हासिल नहीं का सकते ! क्या    केवल पूँजी और  व्यापार  से  ही गुजरात बाइब्रेंट हुआ है ? क्या केवल पूँजी और व्यापार ही अमेरिका के विकाश का उत्प्रेरक है ? मोदी जी को मालूम हो  और ओबामा जी को भी मालूम हो कि  जिस नारे को वे कम्युनिस्टों का बता रहे हैं वो वास्तव में सबसे पहले  अमेरिका  के  ही मजदूरों ने   यह नारा लगाया था।  मोदी जी जिस नारे पर फ़िदा हैं वो " दुनिया के मेहनतकशों एक हो जाओ "  अमेरिका के अमर शहीद मेहनतकशों ने ही दिया है।  १-मई १८८७  को  शिकागो के  'हे स्कॉयर मार्केट' पर पहली बार  हजारों अमेरिकी मजदूरों ने  यह नारा लगाया था।   शान्ति पूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहे मजदूरों पर जब पूंजीपतियों के गुंडों और उनकी सरकारी पुलिस ने  गोलियां बरसाईं तो शहीदों  की रक्त  रंजित  शर्ट  ही 'लाल झंडा ' बन  गईं।  मोदी जी ,ओबामाजी  और उनके जिन चापलूसों को ये ज्ञान न हो वे यह जानकारी 'इंनसाक्लोपीडिया' या अमेरिकी  इतिहासकारों  से भी हासिल कर सकते हैं !

                                                श्रीराम    तिवारी                                                      २७-०१-२०१४

                    १४-डी ,एस -४  अरण्यनगर ,इंदौर
     

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