ये संभव था कि बुद्ध शाक्य रहते हुवे अपने वंश की धार्मिक परंपराओं को मानते हुवे "बुद्धत्व" प्राप्त कर लेते? ये छोड़ना क्यूं ज़रूरी था बुद्ध के लिए? क्यूं ज़रूरी था कि वो एकदम नई यात्रा पर निकलते सत्य की खोज में? क्यूं नहीं वो किसी भी ऋषि या मुनि से योग या वैसी कोई दीक्षा ले कर महल में बैठ कर ही "बुद्धत्व" पा लेते?
अपने कभी सोचा है कि आप का सम्पूर्ण "व्यक्तिव" क्या है? जैसे मैं अगर "ताबिश" हूँ तो ये "ताबिश" कौन है? "ताबिश" दरअसल कुछ भी नहीं सिवाए मेरे अतीत और भूत की "याद" या "स्मृति" के.. ताबिश वो है जो फ़लाने का बेटा है.. वो फलां जगह पैदा हुआ.. फलां स्कूल में पढ़ा और फलां धर्म मानता है.. बचपन से लेकर अब तक कि जितनी स्मृतियां हैं, वो मुझे ताबिश बनाती हैं.. अगर किसी तरह से मेरी याददाश्त चली जाय तो मैं ख़ुद भूल जाऊंगा कि मैं कौन हूँ.. आपको मुझे याद दिलाना पड़ेगा कि "ताबिश तुम्हें याद है हम और तुम वहां साथ जाते थे, उस स्कूल में साथ पढ़ते थे?".. ये अगर मुझे याद न आया तो मेरे लिए तो ताबिश का वजूद ख़त्म होगा ही, आपके लिए भी ताबिश का वजूद ख़त्म हो जाएगा.. क्यूंकि फिर आप जब मुझसे मिलेंगे तो तो नए आदमी से मिल रहे होंगे जिसके पास "ताबिश" की कोई याद नहीं होगी.. आप चाहते हुवे भी ताबिश को दुबारा नहीं पाएंगे
हमारा अतीत और हमारी यादें ही हमें हमारा "व्यक्तित्व" देती हैं.. इसको बड़े पैमाने पर देखें और समाज के परिपेक्ष्य में जाएं तो हर समाज, जाति, धर्म और पंथ का भी अपना एक व्यक्तित्व होता है जो उसके "अतीत" से बनता है.. मुसलमान समाज मतलब वो जो चौदह सौ साल पहले आये पैग़म्बर और उनकी किताब को मानता हो.. उस समाज से "पैग़म्बर" और उनकी किताब का "अतीत" अगर आप ग़ायब कर देंगे तो वो समाज मुस्लिम समाज नहीं होगा, वो कुछ दूसरा हो जाएगा.. ऐसे ही हिन्दू और ऐसे ही अन्य धर्मों के समाज का अपना अतीत है और वही उस समाज का "व्यक्तित्व" बनता है
सत्य की खोज का प्रथम चरण होता है उस "अतीत" से छुटकारा.. जितनी गहराई से आप अपने अतीत से छुटकारा पाएंगे उतनी जल्दी आप सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ेंगे.. आपने देखा होगा कि अगर आप किसी गुरु के पास जाते हैं और उसके शिष्य बनते हैं तो वो आपको एक नया "नाम" देता है.. एक नए तरह के कपड़े आपको पहनाएगा.. ये सारी कवायद आपको उस अतीत से बाहर ले जाने की होती है..मगर अगर आप सारी उम्र पूजा करते रहे हैं और आपका वो गुरु भी आपको बस पूजा का नया ढंग बता कर एक नए देवी या एक नए देवता को आपको पकड़ा देता है तो अतीत से छूटने की सारी कवायद बेमानी हो जाती है.. एक ढोंग होता है बस.. उस से ज़्यादा नहीं
बुद्ध इसी लिए अपने शिष्यों या भिक्खुओं को नया नाम देते थे.. नए कपड़े देते थे.. उनके रहन सहन का सारा ढंग बदल देते थे जहां वो पूरी तरह से अपने अतीत से छूट जाएं.. आस्तिक उनके पास आता था तो उस से कहते थे कि "कोई ईश्वर नहीं है".. नास्तिक आता था तो उसे ईश्वर के बारे में बताते थे.. जो व्यक्ति ये मान रहा होता था कि ईश्वर है भी और नहीं भी है उसके सामने ईश्वर के सवाल पर बुद्ध मौन हो जाते थे.. उनका काम था आपको आपके अतीत और मान्यताओं से छुटकारा दिला कर आपको "जाग्रत" करना.. ये बहुत ज़रूरी होता है सत्य की खोज के लिए.. आपको आपके कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर लाने के लिए
पंडित अगर पंडित घर में पैदा होकर आध्यात्मिक है तो उसके "बुद्धत्व" पाने की संभावना न के बराबर होती है.. मुसलमान अगर मुसलमान घर मे पैदा होकर मुसलमान बने रहते हुवे "सूफ़ी" बनता है तो उसके "बुद्धत्व" पाने की संभावना नगण्य होती है.. वो बस खेलेगा एक पंथ से दूसरे पंथ.. थोड़ी बहुत विचारधारा का दांव पेंच.. बस.. उसके सत्य खोजने की संभावना "नगण्य" होती है... जो "बौद्ध" पैदा होते हैं वो कुछ ज़्यादा कमाल नहीं कर पाते हैं क्योंकि बुद्धिज़्म उनके लिए उनका "कंफ़र्ट ज़ोन" होता है.. मगर जो सिद्धार्थ पैदा होते हैं उनके बुद्ध बनने की संभावना बहुत बड़ी होती है
ये छोड़ने की परंपरा हमारे लिए ज़रूरी है.. क्योंकि आप जिस किसी भी धर्म और जिस किसी भी कुल में जन्म लेते हैं वो आपका कम्फ़र्ट ज़ोन होता है.. आप इस से बाहर नहीं निकलेंगे जब तक, आप किसी सत्य और किसी बुद्धत्व को पाने के लिए आगे नहीं बढ़ पाएंगे.. इसीलिए ताबिश का सिद्धार्थ होना मेरे लिए बहुत ज़रूरी था क्यूंकि मेरी यात्रा ये नहीं है जो आप फ़ेसबुक देख या जान रहे हैं.. आपकी भी यात्रा ये नहीं होती है.. होती तो आप न नमाज़ पढ़ रहे होते और न पूजा कर रहे होते.. ऐसे ही मुझे स्वयं को खोजना ही था.. चाहे सफ़ल होऊं या असफ़ल.. मगर स्वयं को खोजने के लिए ये पहला क़दम मुझे बढ़ाना ही था
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