मेरा ऐसा मानना है कि अधिकांस प्रबुद्ध भारतीय जन-गण अपने देश और उसके संविधान को सबसे अहम और पवित्र मानते हैं !किन्तु कुछ अपवाद भी हैं। कुछ नागरिक जो भारत में जन्में हैं, भारत में ही पले -बढ़े है वे अपने देश से बढ़कर अपने मजहब को ही बड़ा मानते हैं , कुछ लोग अपने देश के संविधान से ऊपर अपनी जाति -खाप और अपने समाज के दकिनूसी बर्बर उसूलों को ही तरजीह दे रहे हैं। कुछ लोग अपनी तथा कथित पिछड़ी-दलित जाति की वैचारिक संकीर्णता को राष्ट्र से ऊपर मानते हैं। कुछ जातियां ठाकुरों ब्राह्मणों से किसी बात में कमतर नहीं किंतु मंडल कमीशन की गलत व्याख्या के परिणामस्वरूप वे अपने आप को सनातन काल तक पिछड़ा,दलित और महादलित कहलाने के लिए तैयार हैं!
कुछ लोग तो देश से ऊपर आरक्षण और जातीय गिरोहबंदी को भी बड़ा मानते हैं। कुछ लोग अपनी खाप के क़ानून को देश के कानून से भी ऊपर मानते हैं । यदि कोई शख्स इन तत्वो के खिलाफ आवाज उठाये तो असली राष्ट्रप्रेम और असल प्रगतिशीलता वही है। किंतु इन बेहूदा नकारात्मक तत्वों को जिन की देश में भरमार है,उनके वोट की खातिर राष्ट्रीय हित दाव पर लगाने में माहिर हैं!
लोकतंत्र में चुनावी जीत के लिये जाति धर्म मज़हब की फ़िक्र करने मात्र से भारत को चीन- जापान या अमेरिका जैसा ताकतवर नहीं बनाया जा सकता। वर्तमान राजनैतिक बिडंबना यही है कि देश के प्रति जिनको रंचमात्र आश्था नहीं ,वे ही धर्म-जाति -मजहब -खाप -आरक्षण और अलगाववाद की ज्वाला सुलगा रहे हैं। कुछ लोग इन नकारात्मक तत्वों की तुलना 'संघपरिवार ' से कर बैठते है जो की हास्यापद है।
वेशक 'संघी' चिंतन के मूल में फासिज्म की बू आती है। किन्तु 'संघ' की तुलना न तो नक्सलवादियों से की जा सकती है और न ही उनसे जो देश और संविधान से ऊपर अपनी ढपली -अपना राग छेड़ते रहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि आईएसआईएस- तालिवान और 'संघ' सभी एक जैसे हैं !क्योंकि ये सभी अमेरिका की खूब आलोचना करते हैं। ये सभी पाश्चात्य सभ्यता के विरोधी हैं।ये सभी मजहबी संगठन अतीतगामी हैं।किन्तु इस दुनिया में भारत के अलावा शायद ही कोई अन्य मुल्क होगा जहाँ के मजहबी बहुसंख्यक लोग सत्ता में आने पर किसी अन्य मुल्क में भी आतंकी कार्रवाइयों में लिप्त न हों।आईएस के बारूद की दुर्गन्ध इराक , सीरिया , लेबनान यमन और लीबिया ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान पाकिस्तान और हिन्दुस्तान तक आ रही है। क्या 'संघ परिवार' का कोई प्रमाण दुनिया में इस प्रकार का है ? भारत में अक्सर धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील चिंतक संघ को ही निशाना बनाते रहते हैं। जबकि अल्पसंख्यक वर्गों के मुखिया खुद ही संघ के सौजन्य और सामाजिक 'समरसता' की तारीफ़ करते रहते हैं। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक लोग 'माकपा' और वामपंथ का उपहास कर रहे हैं। वहां के अधिकांस हिन्दू अब भाजपा की ओर खिसक रहे हैं।अल्पसंख्यक - मुस्लिम केवल ममता का गुणगान कर रहे हैं। क्या वजह है कि न केवल कांग्रेस या वामदल बल्कि अधिकांस धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का जनाधार तेजी से खिसक रहा है।
हिन्दुओं के अलावा अन्य मजहबों के लोग अपने सर्वोच्च धार्मिक सत्ता केंद्र से निर्देशित होते हैं। जबकि अधिकांस हिन्दू सहज सरल और धर्मनिरपेक्ष ही होते हैं । भले ही विगत कुछ सालों से 'संघ' परिवार ने हिन्दुओं का राजनैतिक शोषण किया है। किन्तु दुनिया भर में आग मूत रहे हिंसक मजहबी संगठनों के सामने संघ की तस्वीर किसी शुतुरमुर्ग से ज्यादा नहीं है। यही कारण है कि अधिसंख्य हिन्दू का दवाव है कि 'संघ' भाजपा पर लगाम कसके रखे । उसे अपनी अनुषंगी -भाजपा की कटटर कार्पोरेट परस्त नीतियों के विरोध का ढोंग नहीं करना चाहिए। संघ पर हिंदुत्व की प्रगतिशील कतारों का दवाव है कि अपनी छवि को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सीमित रखे। जो हिन्दू 'संघ ' से जुड़े हैं उन्हें भी यह भी याद दिलाना चाहिए कि वे शहीद भगतसिंह ,आजाद,सुखदेव ,राजगुरु ,सुभाषचन्द्र वोस और उनके साथियों-सहगल- ढिल्लों -शाहनवाज से बड़े देशभक्त नहीं हो सकते। हमारे ये सभी 'नायक' धर्मनिरपेक्षता के तरफदार थे। उनकी तरह का राष्ट्र प्रेम होना या राष्ट्रीय स्वाभिमान होना वेशक बड़े गर्व और प्रतिष्ठा की बात है।किन्तु इन राष्ट्र निर्माताओं के सिद्धांतों की अनदेखी कर या गलत व्यख्या कर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकना कहीं से भी युक्तिसंगत नहीं है। यह कृत्य किसी भी तरह से देशभक्तिपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
भारत में जबसे मोदी सरकार को लोक सभा में बम्फर बहुमत मिला है। तभी से हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करने का चलन सड़क छाप हो चुका है। इस आरोप पर 'हिंदुत्व' के अलंबरदारों का कुतर्क होता है कि 'सब यही कर रहे हैं '। उनका तर्क है जापानियों ,ज्रर्मनों यहूदिओं ,ईसाइयों ,अंग्रजों और मुसलमानों की तरह हमे भी कौम की कटटरता सीखनी चाहिए। उनका कहना है कि चूँकि भारत के मुसलमान,ईसाई तथा अन्य अल्पसंख्यक वर्ग के लोग अपनी मजहबी सोच के वशीभूत होकर टैक्टिकल वोटिंग किया करते हैं ।चूँकि इमाम बुखारी और ओवैसी जैसे अल्पसंख्यक कतारों के नेता इस्लामिक कटटरवाद में अपना राजनैतिक स्वार्थ साधते रहते हैं। इसलिए हिन्दुओं को भी धर्म-और राजनीति का घालमेल कर सत्ता पर काबिज रहना चाहिए । अव्वल तो कोई भी सच्चा भारतीय[हिन्दू] यह कतई स्वीकार नहीं कर सकता कि अपने अमर शहीदों की 'धर्मनिरपेक्षतावादी' अवधारणा को ध्वस्त करे।दूसरी बात हिन्दुओं को किसी 'विधर्मी' से उसका हिंसक और लूट पर आधारित उधार का ज्ञान लेने की आदत ही नहीं है ! तीसरी बात 'हिंदुत्व' की श्रेष्ठता तो पहले से ही वाकई दुनिया में बेजोड़ है। चूँकि वह क्षमा,करुणा ,परोपकार,सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह और सहज सहिष्णुता इत्यादि महानतम मूल्यों का उतसर्जक -उत्प्रेरक और धारक है। अतएव इन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को ध्वस्त कर राज्य सत्ता प्राप्त करना भारतीय [हिन्दू] परम्परा के अनुकूल नहीं है। जिस तरह एक शुद्ध शाकाहारी हाथी कभी आदमखोर भेड़िया नहीं हो सकता उसी तरह हिंदुत्व जैसी किसी सहिष्णु और उदार चरित्र की हिन्दु कौम को दुनिया के हिंसक -उन्मादी -लम्पट और आवारा कबायलियों जैसा नहीं बांया जा सकता। नहीं किया जा सकता।जो निर्धन गरीब मजदूर -किसान हिन्दू संघ के प्रभाव में आकर भाजपा के साथ चले जाते हैं , जो शोषित -पीड़ित मुस्लिम किसान -मजदूर -कारीगर अपने कठमुल्लों के प्रभाव में-कांग्रेस , मुफ्ती ,मुलायम ,मायावती , ,केजरीवाल ,लालू ,नीतीश और ममता के साथ टैक्टिकल वोट करने में बिखर जाते हैं वे भारत के प्रगतिशील आंदोलन को बर्बाद करने के लिए जिम्मेदार हैं। जो हिन्दू किसी अन्य मजहब या कौम से नफरत करे वो हिन्दू हो ही नहीं सकता। क्योंकि असली हिन्दू जानता है कि "ईश्वर सब में है और सब में सब है " वैसे भी हिन्दू शब्द ही आयातित और परकीय है। वरना भारतीय समाज तो सनातन से सहज धर्मनिरपेक्षतावादी ही है।
श्रीराम तिवारी
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