जब जापान में सुनामी आयी तो एक बूढ़ी औरत वहाँ पर छाते लगाकर कुछ इलेक्ट्रिक सामान बेच रही थी. BBC के रिपोर्टर ने उससे रेट मालूम किए तो अंदाज़ा हुआ कि बूढ़ी औरत मार्केट से सस्ते दाम पर सामान बेच रही है. जब रिपोर्टर ने उस बूढ़ी औरत से उसकी वजह पूछी तो उसने कहा कि मैं मार्केट से होलसेल पर सामान लाती हूँ और अपने मुसीबत में फंसे लोगों को उसी रेट पर सामान बेच देती हूँ. यह मेरा, मेरे देश के लिए योगदान है. यह राष्ट्रवाद है.
हमारा राष्ट्रवाद नारे लगाने भर का है. हैंड सेनिटाईज़र और फ़ेसमास्क हमारे यहाँ दस गुना क़ीमत पर मिल रहे हैं. जरा सी अफ़वाह उड़े तो पड़ोस की दुकान पर आटा, चावल, दाल की दरों में बढ़ोतरी हो जाती है. हद तो यह है कि उत्तराखंड में बाढ़ में फँसे लोगों को आसपास के गाँव वालों ने 500-500 रुपये की एक पानी की बोतल बेची थी. 26 जुलाई की बाढ़ में फंसे लोगों को अपने घर संपर्क करने के लिए फोन बूथ वाले एक कॉल करने के 10 से 20 ₹ तक लिए थे.
सत्यता यही है कि हम सब मुनाफ़ाखोर और संवेदनहीन हो गए है. हमारा राष्ट्रवाद किस काम का यदि हम अपने समाज को बुरे समय में सहायता न करें.
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