अस्सी के दशक में ट्रेड यूनियंस के ज़रिये मार्क्सवाद से मेरे परिचय के बाद से मेरा झुकाव बढ़ता चला गया!नई आर्थिक नीतियों और वैश्वीकरण/भूमंडलीकरण के विरोध में उठे जनांदोलनों से जुड़ाव ने मजदूर किसान के हितों के साथ संबंधों को जहाँ मज़बूती प्रदान की,वहीं साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति के उभार के विरोध में वामपंथ को सिरमौर देख उसकी नीतियौं को ह्रगयगम्य कर लिया!
आज वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य में जब आवारा पूँजी के भूखे भेड़ियों और मध्ययुगीन मजहबी धर्मांध कूप मंडूकों ने अपनी हबस के कारण दुनिया में कट्टर पूंजीवादी शासकों को सत्ता में प्रतिष्ठित किया है,तब मार्क्सवादी विचारधारा की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है।
कार्पोरेटवाद,अंधराष्ट्रवाद के दौर में दुनिया भर में साम्यवाद का 'अंतर्राष्ट्रीयतावाद' सिद्धांत हासिये पर है! इसलिये जन संघर्ष की जिम्मेदारी है कि मध्यम वर्ग और आम जनता के दिमाग में सामंप्रदायिक तत्वों द्वारा भरे गये जहर को मारने के लिये अलगाववादियों और आतंकियों के खिलाफ भी लड़े और खुद भी राष्ट्रवादी शब्दावली का प्रयोग करें!
ऐसे दिग्भ्रमित दौर में वैचारिक साम्य वाले प्रगतिशील एवं रचनात्मक लोगों को अलग अलग झंडे और खेमे बनाये रखने के बजाय मिलकर प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करना अत्यंत आवश्यक हो गया है! बहुसंख्यक समाज को यह नही लगना चाहिये कि वामपंथी दल केवल अल्पसंख्यक वर्ग के हितैषी हैं! इसके अलावा वामपंथ को अपने पुराने पेंडिंग लोकप्रिय जनहितैषी कार्यक्रम एवं नीतियाें से नई युवा और सुशिक्षित पीढ़ी को भी परिचित कराना चाहिये!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें