दुनिया में जब 'डेमोक्रेसी' नहीं थी तब मानव समाज को मजबूरी में 'सामन्तवादी'व्यवस्था के क्रूर प्रहार झेलने पड़ते थे। तत्कालीन जन मानस अन्याय-अत्याचार से लड़ने के बजाय 'ईश्वर',धर्म,मजहब की शरण में जाकर अपने दुःख,कष्ट से मुक्ति की कामना करता रहा।इस सकारात्मक और सामुहिक जन आकांक्षा से आदर्शवादी उटोपिया का जन्म हुआ,जो कालांतर में विधि निषेध से युक्त होकर 'धर्म-मजहब'बनता चला गया!
किन्तु आधुनिक उन्नत वैज्ञानिक युगीन लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब सापेक्ष सत्यही सर्वोच्च है। धर्म-मजहब और साम्प्रदायिकता के प्रभाव से लोकतंत्र रुग्ण होता है। मजहब के आधार पर राज्य सत्ता हासिल करने वाले और लोकतंत्र की चुनावी राजनीति में धर्म का दुरूपयोग करने वाले अनाचारी नेता 'आस्तिक' नहीं कहे जा सकते ! उनसे बेहतर तो तर्कवादी -विज्ञानवादी और घोषित नास्तिक हैं, जो कम से कम धार्मिक उन्माद,पाखड़ या साम्प्रदायिकता से कोसों दूर हैं ! आस्तिक-नास्तिक के द्वंद से मुक्त होकर ही मानव मात्र सच्चे-ज्ञान का अधिकारी हो सकता है और शाश्वत आनंद अर्थात सत् चित् आनंद को प्राप्त कर सकता है।
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