बुधवार, 1 जनवरी 2020

*सफदर का अर्थ है जागना, जगे रहना और जगाना*


1 जनवरी 1989 के दिन.जब पूरी दुनिया नए साल के जश्न में डुबी हुई थी उस दिन सफदर गाजियाबाद में नगरपालिका चुनावों के मौके पर जन नाट्य मंच (जनम) की मंडली के साथ साहिबाबाद के झंडापुर गांव में ‘हल्ला बोल’ नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन कर रहे थे,तभी कांग्रेस के कुछ गुंडों ने सफदर को निशाना बना करहमला किया. 2 जनवरी को सफदर प्राण त्याग दिए.
सफदर पर हुए अमानवीय एवं क्रूर हमले से पूरे देश का
सांस्कृतिक जगत हिल गया.साहित्य और संस्कृति पर आए संकट से पूरे का बौद्धिक जगत सड़क पर आ गया.
देश भर में प्रदर्शन और सभाएं का तांता लग गया.यह एक ऐसा दौर था कि कुछ दिन पहले पंजाब में पाश और गढ़वाल में डोभाल की हत्या हुई थी.सफदर की शहादत के चंद रोज पहले ही त्रिपुरा में जनकवि ब्रजलाल की नृशंस हत्या हुई थी.बिल्कुल अमानवीय और पाशविक तरीके से हत्या की गयी. पहले उनकी गीत लिखने वाली उंगलियों को काटा गया, फिर गाने वाल कंठ-नली को न जाने कितने टुकड़ों में कतर डाला गया था.इसी प्रकार विक्टर जारा की हत्या की गयी थी.
लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के संगठनों ने इन घटनाओं का प्रतिवाद किया.यह प्रतिवाद बयानों, विशाल प्रदर्शनों से लेकर कलाकारों की देश-व्यापी हड़तालों, कलाकारों की एकजुटता के देश-व्यापी भावीकार्यक्रमोंऔर फिल्मोत्सवों की तरह के अन्तरराष्ट्रीय मंचों तक फैलाहुआथा. प्रतिरोध
और आक्रोश का ज्वार जो फूटा वह संसद को भी हिला कर रख दिया.
सफदर की हत्या के ठीक बाद कोलकाता में जो प्रतिवाद सभाएं और कार्यक्रम हुए, उनमें उत्पल दत्त, विभाष चक्रवर्ती, नीलकंठ सेनगुप्त, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त, अरुण मुखर्जी, मनोज मित्र, अशोक मुखर्जी के स्तर के बांग्ला रंग-जगत की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से लेकर गणनाट्य मंच के अदने से कार्यकर्ता तक ने उस नृशंस हत्या पर अपनी घृणा और आक्रोश को व्यक्त किया.
34साल की छोटी सी उम्र में सफदर ने जो उपलब्धियों के
ऐसे कीर्तिमान स्थापित कर लिये थे वह अविश्वसनीय और चौंकानेवाले हैं .दिल्ली और उसके आस-पास के औद्योगिक क्षेत्र की मजदूर वस्तियों में उनकी हर लड़ाई में वह अपनी जननाट्य मंच की मंडली लेकर जाया करते थे.उन बस्तियों में ही उन दस वर्षों में जननाट्य मंच के ‘मशीन’ से लेकर ‘हल्ला बोल’ तक के लगभग 21 नाटकों के चार हजार से भी ज्यादा प्रदर्शन हो चुके थे.
तीन-तीन विश्वविद्यालयों में अध्यापक तथा पश्चिम बंगाल सरकार के एक बड़े सांस्कृतिक अधिकारी की नौकरी छोड़ सफदर सीपीआई(एम) के एक पूरा-वक्ती कार्यकर्ता के रूप में जनता की जनवादी क्रांति के काम में खुद को समर्पित कर दिया. एक छोटी सी जिंदगी में सफदर की आवाम के प्रति वचनवद्धता का नतीजा था कि दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल हाउस में जब सफदर का शव पड़ा था, तब एक बूढ़ी मजदूरिन सिर्फ उसके पैर छूने तथा उसके चरणों की धूल को मस्तक पर लगाने के लिये आकुल-व्याकुल थी.वह रो-रोकर बता रही थी,इस मसीहा ने उसे नयी जिंदगी दी, उसी ने उसके मालिक से लड़ाई करके उसकी नौकरी को स्थायी करवाया और उसका वेतन बढ़वाया.कांग्रेसी गुंडों ने उसकी हत्या करके सोचा था कि शायद जनवादी सांस्कृतिक संघर्ष खत्महो जाएगी
पर सफदर हर स्तर पर झूठ और अन्याय के खिलाफ प्रतिवाद की वाणी बन चुके हैं. आज भी यह आवाज गूंज रही है. सफदर हाशमी को श्रद्धांजलि:-स्वरूप किसी ने कविता लिखी थी ,प्रस्तुत है :-
तुम्हारे ताजा खून की कसम
हम फिर वही खेल दिखायेंगे
हल्ला बोल, हल्ला बोल की
रणभेरी बजायेंगे
गरमायेंगे गरीबों का लहू
आग बनाकर शब्दों को तुम्हारे
फहरायेंगे परचम की तरह
गीतों को तुम्हारे
बस्ती-बस्ती नुक्कड़-नुक्कड़ हर चौराहे पर
खेल दिखायेगा जमूरा तुम्हारा
करेगा फिर बेआबरू
लोकराज का बाना पहने ढोंगी राजा को
दौड़ायेगा उल्टे पांव पंडित, मुल्ला, काजी को
चिमटे के जादू से बुलायेगा खाकी वर्दी को
तार-तार कर देगा उसकी हस्ती को
पडरिया,घटियारी,उजान मैदान
गिड़गिड़ायेगा वहशी शैतान
डम-डमा-डम डमरू बाजेगा
हर मजदूर का चेहरा चमकेगा
कुर्सी पर नेता झल्लायेगा
फायर! फायर! फायर
घायल होकर गिर पड़ेगा जमूरा
पर खत्म नहीं होगा यह नाटक
शुरू किया था जो तुमने
तुम्हीं तो थे इसके सूत्रधार
उठना ही होगा तुम्हें सफदर भाई
क्योंकि सफदर मरा नहीं करते
क्योंकि सूत्रधार मरा नहीं करते.....

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