जनश्रुति है कि सम्राट अकबर एक बार लखनऊ पधारे। वहाँ से लौटते वक्त अवध के नबाब और अकबरके खासमखास अ.रहीम ने उन्हें अयोध्या की यात्रा करने और का सुझाव दिया। अकबर ने रहीम का प्रस्ताव सहज स्वीकार कर लिया और शाही लश्गर को अयोध्या कूच का फरमान जारी किया।
फैजाबाद से अयोध्या की यात्रा अकबर ने घोड़े से पूरी की।किंतु जब वे अयोध्या पहुंचे तो वहां सुसज्जित हाथी पर स्वर्णिम हौदे पर सवार होकर अकबर ने अयोध्या और सरजू के प्राक्रतिक सौंदर्य का दर्शन किया। इस दौरान बादशाह के हाथी ने अपनी सूंड में रास्ते की बहुत सी धूल ऊपर उछाल दी।अधिकांस धूल हौदे पर बैठे अकबर के मुँह पर गिरी। बादशाह की सूरत बदरंग हो गई। गुस्से में उन्होंने महावत को डांटा -ये क्या हरकत है ? और रहीम की ओर देखकर सवाल किया कि हाथी ऐंसा क्यों कर रहा है ? अ.रहीम ने तब कोई जबाब न देकर, आधुनिक भारतीय अफसर की तरह सिर्फ इतना कहा -'दिखवाता हूँ' हुजूर !
इस घटना से अब्दुल रहीम खान-ए -खाना को रातभर नींद नहीं आई। दूसरी ओर उनके विरोधियों ने अकबर के कान भरना शुरूं कर दिए, कि रहीम ने जानबूझकर अनाड़ी हाथी के मार्फ़त 'हुजूर' को अयोध्या की धूल में नहलाने को मजबूर किया!और नमक मिर्च लगाकर यह भी कहा गया कि अब्दुल रहीम खान-ए-खाना अब इस अवध की जागीर के काबिल नहीं हैं।
इधर रहीम ने अलसुबह उठकर पहले नमाज पढ़ी, फिर भगवान् श्रीराम का पूण्य स्मरण किया! श्रीराम के चरित्र का ध्यान आते ही उन्हें एक विचार सूझा,जिसे तत्काल उन्होंने एक दोहे के रूप में निम्नानुसार लिखा :-
धूरि धरत गज शीश पर ,कहु रहीम केहिं काज।
जेहिं रज मुनि पत्नी तरी ,सोउ ढूंढ़त गजराज।।
जेहिं रज मुनि पत्नी तरी ,सोउ ढूंढ़त गजराज।।
अर्थ:- हे ! शहंशाह अकबर ,आपने पूंछा है कि हाथी अपने सिर पर धूल क्यों फेंक रहा है ? मैंने इसकी पड़ताल कर ली है। जिस 'चरण रज' से गौतम ऋषि की अपावन पत्नी अहिल्या का उद्धार हुआ था ,यह हाथी इस अयोध्या नगरी में भगवान श्रीराम की उसी चरण रज को खोजता फिर रहा है। जहांपनाह आप तो श्रीराम जी की उस चरण रज से कृतार्थ हो चुके हैं।
रहीम का दोहा सम्राट अकबर को बहुत पसन्द आया। उन्होंने रहीम को बड़े-बड़े इनाम-इकराम दिये। रहीम की देखा-देखि रीतिकाल के कवियों ने भी राज्याश्रयी काव्य लिखकर अपने पाल्य राजाओं से इनाम -इकराम पाये , किन्तु रहीम और तुलसी की बराबरी कोई नहीं कर सकता क्योंकि रस छंद लालित्य और काव्य सौंदर्य तो सबके पास था किन्तु तुलसी जैसा समन्वयकारी विशिष्ठाद्वैत,रहीम जैसा सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता बाकी कवियों में नहीं थी।
कविवर रहीम के इस शानदार रूपक अर्थात मेटाफर को अपढ़ सम्राट अकबर भी बखूबी समझ गया!इसलिए वह 'अकबर महान' हो गया!गोस्वामी तुलसीदास ने समझा,वे 'राम से अधिक राम कर दासा कहलाये! किंतु इस दौर के स्वनामधन्य हिंदुत्व के झंडाबरदारों को अतीत के हमलावरों का सिर्फ स्याह पक्ष ही दिखाई दे रहा है!
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