केरल हाई कोर्ट के माननीय जस्टिस 'कमाल पाशा' ने बहुत ही सामयिक सवाल उठाया है कि ''जब एक मुस्लिम पति चार-चार बीबियाँ रख सकता है ,तो एक मुस्लिम विवाहिता स्त्री को चार-चार पति रखने की इजाजत क्यों नहीं ?''इस अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर जस्टिस पाशा के इन उद्गारों से बेहतर उपहार और क्या हो सकता है ? जस्टिस 'कमाल पाशा 'ने यह क्रांतिकारी यक्ष प्रश्न तब किया जब वे किसी मुस्लिम महिला ऑर्गनाइजेशन 'मुस्लिम वूमंस फोरम ' में व्याख्यान दे रहे थे। श्रीमान पाशा जी का स्पष्ट मत है कि मुस्लिम स्त्री-पुरुष के अधिकारों में असमानता और दाम्पत्य जीवन में भेदभाव मुस्लिम पर्सनल लॉ की देंन है। उनके मतानुसार ये तमाम नारी विरोधी फंडे कुरान की मान्यताओं के विपरीत हैं। विद्वान न्यायधीश ने यह भी कहा कि कुरान में मुस्लिम स्त्री को 'फकाश' के माध्यम से तलाक का हक मिला है ,लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ उसे यह हक नहीं देता।जस्टिस पाशा के इस ब्यान को कुछ पुंसवादी कटटरपंथी कभी स्वीकार नहीं करेंगे। उलटे वे फतवा जारी करेंगे। कुछ हिन्दुत्वादी भी इस बयान को लेकर नाहक कुतर्क गढ़ने लग जायंगे। लेकिन देश के उन तमाम प्रगतिशील साहित्यकरों,बुद्धिजीवियों एवं विचारकों को जस्टिस पाशा के बयान का खुलकर समर्थन करना चाहिए और समस्त नारी जगत के शोषण से मुक्ति की आवाज बुलंद रखनी चाहिए। यदि हिन्दू,ईसाई या किसी अन्य कौम और समाज में महिलाओं के अधिकारों का निषेचन -अतिक्रमण हो रहा है तो उसका भी उचित प्रतिकार होना चाहिए।
समस्त प्रगतिशील व्यक्तियों ,संगठनों ,बुद्धिजीवियों,साहित्यकारों और वामपंथ की ओर से जस्टिश कमाल पाशा के उद्गारों का सम्मान किया जाना चाहिये। यदि देश का कोई शख्स जस्टिश पाशा से सहमत नहीं तो वेशक यह उसका वैयक्तिक अधिकार है ,किन्तु तब उस व्यक्ति को हिन्दुओं के किसी प्रतिगामी सामजिक मुद्दे पर आलोचना का अधिकार नहीं हो सकता । जो लोग इस स्त्री विमर्श में इकतरफा होंगे ,तटस्थ रहेंगे या जस्टिस पाशा के इस महान प्रगतिशील 'विचार' की मुखालफत करेंगे वे किसी भी तरह से प्रगतिशील अथवा वामपंथी नहीं हो सकते।
असल वामपंथी वह है जो स्त्री-पुरुष ,हिन्दू-मुस्लिम या दलित- सवर्ण के प्रति सम्यक दृष्टि और सम्यक भाव रखता हो। सही मायने में प्रगतिशील -जनवादी वो है जो हर हाल में न्याय का पक्षधर है । केवल 'संघ परिवार ' की आलोचना करने से ही कोई धर्मनिरपेक्ष ,क्रांतिकारी अथवा वामपंथी नहीं हो जाता। ये काम तो राहुल गांधी, केजरीवाल ,नीतीश ,ममता ,मायावती और लालू-मुलायम भी कर रहे हैं । क्या ये सभी वामपंथी और प्रगतिशील कहे जा सकते हैं ? ईएमएस ,बी टीआर ,सुरजीत और बालानंदन जैसे वामपंथ के शिक्षकों ने वोट बैंक की फ़िक्र कभी नहीं की। उन्होंने केवल 'संघ' के विरोध का जिक्र कभी नहीं किया। सर्वहारा के इन महान नायकों ने हर किस्म की साम्प्रदायिकता का प्रबल विरोध किया था। वे पूँजीवादी नीतियों के खिलाफ बेहद आक्रामक हुआ करते थे। प्रायः देखा जा रहा है कि इन दिनों वामपंथ ने आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई लगभग छोड़ दी है और केवल 'संघ' पर ही हल्ला बोले जा रहे हैं। नतीजा ये हो रहा है कि वामपंथ की आड़ में कश्मीरी अलगाववादी और पाकिस्तानी आतंकी भारत में ऊधम मचा रहे हैं। उनके कारण जेएनयू के कुछ प्रोफेसरों और क्रांतिकारी छात्रों को भी पुलिस दमन का शिकार होना पड़ रहा है।
जेएनयू के प्रगतिशील छात्रों को भी स्मरण रखना चाहिए कि चूँकि हर वामपंथी क्रांतिकारी होता है। उसके आदर्श शहीद भगतसिंह हो सकते हैं , उसके आदर्श बाबा साहिब अम्बेडकर भी हो सकते हैं ,पंडित नेहरू भी हो सकते हैं ,किन्तु रोहित वेमुला उनका आदर्श नहीं हो सकता। उसकी आत्महत्या का दुःख सभी को है किन्तु हर किस्म के अन्याय के खिलाफ किये जा रहे संघर्ष में आततायियों से लड़ते हुए शहीद हो जाना ,अमरत्व की निशानी है और आत्महत्या कायरता की निशानी है। सच्चे वामपंथियों को किसी किस्म की सत्ता की खैरात नहीं चाहिए। पूँजीवादी राजसत्ता भी नहीं चाहिए। बहरहाल तो उनका ध्येय इस पतनशील सिस्टम को बदलने का ही होना चाहिए। उन्हें अल्पसंख्यक,बहुसनख्यक और अगड़े-पिछड़े के दल-दल में नहीं गिरना चाहिए। और यदि कोई सच जस्टिस कमाल पाशा कहें या श्री मोहनराव भगवत कहें तो उसे स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए। सापेक्ष सत्य के साथ खड़े होना ही सच्ची प्रगतिशीलता है।
अंतराष्टीय महिला दिवस पर सभी माता-बहिनों,देवियों को सादर नमन !
श्रीराम तिवारी !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें