गुरुवार, 3 मार्च 2016

कुछ विदेशी ताकतें भारत के युवाओं को गद्दार सावित कराने में जुटीं हो सकतीं हैं ।

संसद के मौजूदा  बजट सत्र २०१६-१७  में स्वीकृत कार्यसूची से  हटकर महापण्डिता ,महाभ्रान्तिस्वरूपा स्मृति ईरानी जी ने जब संसद के दोनों सदनों  में हैदरावाद यूनिवर्सिटी के शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या और जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैयाकुमार की गिरफ्तारी को उनके तथाकथित  'महिषासुर' प्रेम से जोड़ा तो उनकी इस अदभुत प्रस्तुति पर न  केवल सत्तापक्ष  बल्कि सारा मीडिया ही उन पर लट्टू हो गया। काश स्मृति ईरानीजी का  जन्म  पेरियार और अन्ना दुराई  के दौर में हुआ होता ! घोर नास्तिक ,घोर उत्तरविरोधी,घोर हिंदी विरोधी - द्रविड़वादी नेताओं  ने हिंदुओं के सारे देवी देवताओं को उठा -उठाकर  गटर में फेंका तब कोई महिषासुर मर्दनि भारत में क्यों नहीं जन्मी ? जब अम्बेडकर साहिब हिंदुत्व को लात मारकर अपने लाखों साथियों के साथ बौद्ध हुए तब स्मृति के पूर्वज कहाँ थे ?  जब  यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती  ने जनता के पैसे से प्रदेश भर में ढेरों नए देवताओं को पैदा किया ,खुदके बड़े-बड़े बुत बनवाए तब यूपी में भाजपा और 'संघ' वाले क्या कर रहे थे ?

खैर यह  'शर्मनाक भारतीय इतिहास' लिखना इस आलेख का  मकसद नहीं। लेकिन अपने जातीय वोट बैंक पर हमेशा इतराने वाली मायावती बहिन जी को इस बार तो मुँह की अवश्य ही कहानी पडी है। वे मौजूदा संसद सत्र  में स्मृति ईरानी का मुकाबला बिलकुल नहीं कर पाईं। हालाँकि संसद में स्मृति  के क्षणिक  गोयबल्स हो जाने  के तत्काल बाद  दिवंगत छात्र रोहित वेमुला की माँ  और उनके परिजनों ने अवश्य  ही मंत्री महोदया के  सफ़ेद झूंठ को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  पर जनता के समक्ष  उधेड़ कर रख दिया हो । किन्तु संयुक्त विपक्ष ने शुरुआत में  ऐंसा कोई काम नहीं किया जो तारीफ के काबिल हो ! सत्ता पक्ष द्वारा अत्यंत उत्साहित  किये जाने और उकसाए जाने पर मंत्री स्मृति ईरानी ने  जेनएयू छात्रों की कोर्ट परिसर में हुई  मारकुटाई को भी जस्टीफाई कर डाला। इसके लिए तो वे  महिषासुरमर्दिनी बनकर ही  विपक्ष पर टूट पडीं। किस-किस के अच्छे दिन आ चुके हैं ? किस-किसके बुरे दिन चल रहे हैं  ? इन सवालों के उत्तर देना उन्होंने  जरुरी नहीं समझा ! क्योंकि ये  तो पीएम के चुनावी जुमले हैं और जुमलों की जबाबदेही का सवाल ही नहीं उठता।  लेकिन ''ये पब्लिक है सब जानती है ''! यह सौ फीसदी सच है कि यदि जनता -जनार्दन के  'मन की बात ' नहीं होगी ,तो सत्ता पक्ष की कोशिश रहती है   कि जनता का ध्यान विपक्ष की कमजोरियों की ओर से  हटाकर धर्म-कर्म के धतकरम में लगा दिया जाये।  और  इस तरह अपनी असफलता पर पर्दा डाला जाये  ।

 कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को शायद  सत्ता पक्ष का यह कुचक्र कुछ कुछ समझ आ गया है।  उन्होंने भी  संसद में  अपनी परिपक्वता का थोड़ा सा प्रदर्शन शुरू कर दिया  है । राहुल गांधी ने जब  राष्ट्रपति महोदय के अभिभाषण पर  आहूत धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए  न केवल सरकार की अदूरदर्शिता और प्रधान मंत्री मोदी के 'व्यक्तिवादी' नेतत्व पर करारी चोट की। बल्कि  कालेधन पर 'फेयर एंड लवली' वाला बयान  देकर अपनी उत्कृष्ट राजनैतिक क्षमता का प्रदर्शन भी कर दिया। उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती  से न केवल मोदी सरकार को असफल करार दिया बल्कि 'संघ परिवार ' को  भी बखूबी  घेरा।  किन्तु राहुल गांधी और कांग्रेस  इस सचाई से मुँह नहीं मोड़ सकते कि यूपीए के कुशासन और घोर भृष्टाचार की बदौलत ही ये मोदी सरकार सत्ता में है। राहुल गांधी ने मोदी जी पर भी  जमकर  हल्ला बोला। हालाँकि  उन्हें इस मौके पर उन्हें स्मृति ईरानी के असंसदीय तेवरों  और उनकी हिंसक वाग्मिता का प्रतिवाद करना  चाहिए था। राहुल ने  जेटली जी के 'नायाब' बजट को खूब उधेड़ा  किन्तु वे यह बताने से चूक गए कि  यह  अरुण बजट तो यूपीए-३ जैसा ही है। खैर उन्हें सीनियर्स ने जितना समझाया होगा उतना ही  वे कर सके ,इतना ही क्या कम है। हो सकता है कि नयी आर्थिक  नीति और उदारीकरण के मामलों में राहुल अभी भी अपरिपक्व ही हों ! उम्मीद है इस दिशा में भी वे अपनी सही समझ विकसित करेंगे !
                                 मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा  देवीदुर्गा बनाम  महिषासुर बध कथा पर आक्रामक  प्रबचन झाड़ने और राज्य सभा की  विषय सूची का जबरन विषयान्तर करने की कुटिल चाल को खुद  राज्य सभा के सभापति महोदय भी ठीक से चेक नहीं कर पाये। एकबारगी सभी को लगा कि स्मृति जी स्वयं को  साक्षात कपाल कुण्डला 'महादेवी दुर्गा 'ही समझ बैठीं हैं। वे संयुक्त विपक्ष को अपने संघी भाइयों की तरह  दैत्य कुलभूषण ही मान बैठी। राहुल गाँधी , मायावती, कामरेड सीताराम  येचुरी, कामरेड डी राजा ,श्री शरद यादव ,आनंद शर्मा ,गुलाम नबी आजाद , दिग्विजयसिंह ,ज्योतिरादित्य  सिंधिया ,सपा सांसद जावेद अली खान तथा अन्य धुरंधर विपक्षी नेता एक साथ मिलकर भी स्मृति के आग्नेय बयानों का प्रतिकार इसलिए नहीं कर सके क्योंकि इन विपक्षी नेताओं के पास पर्याप्त सूचनाएँ और तथ्य उपलब्ध नहीं होंगे ! या यों कहें कि वे स्मृति को इस अनावश्यक विमर्श में परास्त करना ही नहीं चाहते थे। लेकिन एक टीस तो सभी के दिल में रही होगी कि  तथाकथित अर्द्धशिक्षिता  - अकुशल मानव संसाधन मन्त्राणि के विदग्ध  शब्द बाणों को वे तनिक भी नहीं झेल पाये। और सभी  विपक्षी नेता स्मृति के समक्ष  चण्ड -मुंड  जैसे ही धराशायी होते रहे। किसी भी विपक्षी सांसद या नेता ने स्मृति ईरानी की असंसदीय  और अलोकतांत्रिक वाग्मिता पर प्रश्न चिन्ह ही  नहीं  लगाया। किसी ने भी सभापति  महोदय के समक्ष  तत्काल एतराज भी  नहीं उठाया। एक-एक करके सभी विपक्षी नेता स्मृति ईरानी  के उस  महा जहरीले  साम्प्रदायिक शब्द जाल में उलझते चले गये. जिसके अनुसार पूरा विपक्ष तो  देशद्रोही है, और एकमात्र स्मृति जी और 'संघ परिवार'ने ही  देशभक्ति  का सारा ठेका ले  रखा है !

देश की आवाम को जानना चाहिए  कि संसद में  लगातार जारी इस तरह के निरर्थक वाद-प्रतिवाद से जनता का सरोकार क्या है ? सत्ता पक्ष एवं  सम्पूर्ण विपक्ष का भी  संसद में यह अनावश्यक द्व्न्द  देशभक्तिपूर्ण  कदापि नहीं  कहा जा सकता ! यही वजह है कि न केवल राज्य सभा बल्कि लोक सभा में भी कटुतापूर्ण टकराव जारी ही  रहा। कभी किसी का विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव ,कभी  किसी का निंदा प्रस्ताव और कभी  किसी का काम रोको प्रस्ताव से  संसद का केवल यही  बजट सत्र नहीं बल्कि प्रायः सभी सत्र इसी तरह के हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं । राष्ट्रपति महोदय के अभिभाषण की गरिमा और उस पर धन्यवाद प्रस्ताव की धज्जियाँ उड़ाकर भी नेता लोग शर्मिंदा नही होंते ।  ऐसे सांसदों  से आम जनता को अवश्य सचेत रहना चाहिए। चाहे वे सांसद किसी भी दल या विचारधारा के क्यों न हों !

जो सांसद स्मृति ईरानी के रौद्र  रूप की आसा नहीं रखते होंगे, और भाजपा संसदीय फोरम की रणनीति से भी  ग़ाफ़िल रहे होंगे  वे भले ही श्रीहीन हो  गये हों । किन्तु  देश की प्रबुद्ध आवाम को स्मृति का और साम्प्रदायिकता वादियों का यह असैंविधानिक आचरण  कदापि पसंद नहीं। प्रबुद्ध  जनता किसी के बह्काबे में नहीं आने वाली।  कदाचित  संसद में उपस्थित  सत्ता पक्ष के  और विपक्षी नेताओं ने धर्म-अध्यात्म ,वैदिक वाङ्गमय ,सँस्कृत- साहित्य ,लोकगाथाएँ, और 'मिथकीय 'ज्ञान  को शायद बाबागिरी का शगल मान लिया है। वेशक अधिकांस धर्म -निरपेक्ष  वामपंथी साथी उच्च शिक्षित और अंग्रेजीदां तो  हैं ,किन्तु इन साथियों की शायद  भारतीय वाङ्गमय के अथाह ज्ञान सागर में कोई अभिरुचि नहीं। उन्होंने इस आध्यात्मिक ज्ञान कोष को  केवल मानसिक जुगाली ही मान रखा है । यह भी सम्भव है कि  इन लोगों ने  शायद कभी उसकी कोई लौकिक - सांसारिक  लाभप्रदता ही हीं नहीं समझी होगी। इसीलिये वे स्मृति ईरानी  के महिषासुर वाले शाब्दिक चमत्कार का प्रतिकार नहीं कर सके और उनसे इतने आक्रांत हो गये कि  त्राहिमाम - त्राहिमाम की मुद्रा में आ गए । जबकि स्मृति को ना तो  जेनयू के बारे में कुछ मालूम है और न ही उन्हें जनेऊ की ब्रह्म गांठ  का कदाचित कोई ज्ञान है । चूँकि सत्ता की ताकत ने उन्हें बैठे ठाले  सारा सूचना तंत्र उपलब्ध करा दिया। अतः उसी की बदौलत  वे जेएनयू के  एबीवीपी वालों को  जबरन जनेऊ पहनाने और उनके हाथों में त्रिशूल थमाने पर आमादा हैं ।

वाम पंथी छात्रों द्वारा अभिनीति उत्तर आधुनिक नाटकों तथा दलित विमर्शवादी  बौद्धिक गतिविधियों की जो  जानकारी विपक्षी नेताओं  के पास भी नहीं थी , वो  स्मृति के पास कुछ ज्यादा ही  रही होगी। तभी तो उन्होंने संसद  में वह  पोस्टर लहरा दिया जो सीधे-सीधे भारतीय लोकतंत्र  पर ही हमला था। जबकि विपक्षी नेताओं को उसकी  सही-सही जानकारी नहीं थी। यदि विपक्षी नेताओं के पास  इस विमर्श की सही जानकारी होती तो वेचारे  संसद में इतने अशांत और   बेबस नजर नहीं आते। भारतीय  संस्कृत वाङ्गमय और भारतीय  अध्यात्म दर्शन के प्रति तथाकथित  हिकारत ही उनकी इस बेबसी का कारण ।  पाश्चात्य वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन इतिहास  -समाज विज्ञान ,अर्थशास्त्र और  राजनीति शास्त्र में  वामपंथी विशिष्ठ योग्यता का स्मृति और संघ परिवार 'के समक्ष कोई मूल्य  नहीं। भेंस के आगे बीन बजेगी तो देश  की राजनीति  ऐंसे ही चलेगी। सत्ता पक्ष का एकांगी साम्प्रदायिक मानसिक असंतुलन   संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक  है।

यदि विपक्षी नेताओं को भी भारतीय परम्पराओं और अध्यात्म दर्शन का समुचित अध्यन होता तो वे स्मृति ईरानी के ढपोरशंख से  आहत होने के बजाय  उसका माकूल जबाब देते। तमाम विपक्षी नेता स्मृति ईरानी के बयानों से ,पीएम मोदी साहब व वित्त मंत्री  जेटली साहब की कुटिल विजयी मुस्कराहट से इतने उत्तेजित न  होते और संसद को सही दिशा में  चलने देंते । ज्ञातव्य है कि सत्ता पक्ष  ही जब संसदीय कार्यसूची के मुख्य विषय से हटने को आतुर हो  तब विपक्ष को  अल्ल -बल्ल बोलने की क्या जरुरत है ? बजाय वाद-प्रतिवाद की अंतराक्षरी में शामिल होने के  प्रबुद्ध और सजग विपक्ष को मूल एजेंडे पर संसदीय  कार्यवाही हेतु सभापति के समक्ष 'सत्याग्रह' करना चाहिए था।  संसद के बजट सत्र में ,राष्ट्रपति के अभिभाषण पर और उसके धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा केंद्रित होनी चाहिए। लेकिन बेखबर -विपक्ष ने  संसद के राष्ट्रीय  एजेंडे को छोड़कर सत्ता पक्ष की नितांत  अशोभनीय और अलोकतांत्रिक बाजीगरी के समक्ष हथियार डाल दिए। विपक्ष का इस तरह निरंतर  निरर्थक व्यामोह में फँसना  देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

सत्ता पक्ष की ओर से मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ,सांसद अनुराग ठाकुर और मुख़्तार अंसारी इत्यादि ने जेएनयू ,जाधवपुर और हैदराबाद यूनिवर्सिटीज़ में  चल रहे छात्र आंदोलनों पर जो कटाक्ष किया उसके मूल में संघ की छात्र इकाई -एबीवीपी को मजबूत करने का इरादा तो है ही, किन्तु साथ ही साथ देश के समक्ष मौजूद समस्याओं  से जनता का ध्यान हटाना भी एक अहम उद्देश्य रहा होगा । सरकार समर्थक मीडिया द्वारा कंडक्ट नकारात्मक अभियान से  उत्पन्न हो-हल्ले में देश के  छात्रों  को ,विपक्ष को और खास तौर से प्रगतिशील लेफ्ट   और धर्मनिरपेक्ष  जनों को 'देशद्रोह' के काल्पनिक दल-दल में धकेल  दिया  गया । जबकि संघ की अनुषंगी छात्र शाखा एबीवीपी और संघनिष्ठ  कतारों की  राजनैतिक आकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। यही वजह है कि  देश के सबसे महत्वपूर्ण  विश्वविद्यालयों  में तमाम निर्दोष छात्रों को देशद्रोह का सामना करना पड़ रहा है। एक प्रखर बुद्धिजीवी और महान फिल्म निर्माता निर्देशक स्याम बेनेगल ने  भी इन छात्रों पर लगाये  गए सभी आरोपों को सिरे से ही गलत बताया है । उनके अनुसार कुछ छात्र दिग्भर्मित  हो सकते हैं ,और कुछ विदेशी ताकतें भारत के युवाओं को गद्दार सावित कराने में जुटीं हों सकतीं हैं । किन्तु  भारत सरकार और भारतीय समाज को विदेशियों की चालों में उलझकर अपने ही नौनिहालों का भविष्य चौपट नहीं करना चाहिए '' !

देश के अधिकांस प्रबुद्धवर्ग का अभिमत है कि देशद्रोह की आड़ में राजनीती नहीं करनी चाहिए !हालाँकि कश्मीरी अलगाववाद  या पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद का  कोई समर्थन नहीं करता। लेकिन कोई इक्का-दुक्का कश्मीरी छात्र यदि गलती करता भी है तो उसे भी  भारतीय  नागरिक  मानकर भारतीय कानून द्वारा ही  निपटाया जाना चाहिए। वर्ना  दुनिया को लगेगा कि  देखो भारत के लोग ही कश्मीर को अपना नहीं  मानते और तभी तो उन्हें न्याय के रास्ते नहीं बल्कि गुंडई के रस्ते निपटा रहे हैं। दरसल आरोपी को पीटने या 'देशद्रोही' घोषित करने  का अधिकार या देशभक्ति का  विशेषाधिकार किसी खास दल या 'संघ' की बपौती नहीं  होना चाहिए ! जो लोग देश के  कानून को अपने हाथ में लेते हें  वे राष्ट्रवादी या देशभक्त हो ही नहीं सकते !

 जेएनयू में हुई कथित नकारात्मक नारेबाजी के  अप्रिय विमर्श पर भारत के पूर्व अटार्नी जनरल और प्रख्यात न्यायविद श्री  सोली सोराबजी का कथन काबिले -गौर है :-  ''न्यायालय के किसी निर्णय से असहमति  [जैसे किसी फाँसी की सजा ]देशद्रोह कदापि  नहीं है और किसी  नागरिक के द्वारा देश के खिलाफ नारे लगाना भी आपत्तिजनक तो है किन्तु वह देशद्रोह में नहीं आता। हमारा संविधान असहमति -सहमति ,आलोचना-प्रसंशा  और  अभिव्यक्ति के अधिकार की पूर्ण रक्षा करता है। देश के अंदर या सीमाओं पर किसी भी  किस्म की हिंसा फैलाना ,सरकारी सम्पत्ति को नष्ट करना अवश्य ही देशद्रोह है ''

सोराबजी का मंतव्य है कि नक्सलवादी देशद्रोही हो सकते  हैं। आरक्षण आंदोलन में या धार्मिक-साम्प्रदायिक दंगों में शामिल  हिंसक -बलात्कारी राक्षस  भी देशद्रोही हो सकते हैं। अख्लाख़ ,दाभोलकर,.पानसरे कलीबुरगी की हत्या करने  वाले भी देशद्रोही हो सकते हैं । इसके अलावा किसी सरकारी -प्रशासनिक  अथवा संवैधानिक पद  पर मौजूद व्यक्ति यदि  भृष्टाचार में लिप्त हैं  तो वे  भी देशद्रोही हो सकते हैं। एबीवीपी को बढ़त दिलाने के लिए लोकप्रिय  वामपंथी  छात्रों को देशद्रोही कहन ठीक नहीं। जानबूझकर  देश के खिलाफ  निषिद्ध  नारेबाजी  करने वाले  लोग  देशद्रोही हो सकते  है !  सरकार का दायित्व है कि असल अपराधी पकडे और कानून अपन्ना काम करे।  वोट की राजनीति के लिए 'देशद्रोह बनाम राष्ट्रवाद' का मंत्र जाप केवल पाखंड है।

सोली सोराबजी ,श्याम बेनेगल और जस्टिस काटजू के  सिद्धांत  अनुसार जेएनयू के नारेबाज छात्र बेबकूफ तो हो सकते हैं ,किन्तु उन पर राष्ट्र - द्रोह नहीं थोपा जा सकता। खासकर श्री सोराबजी  के कथन से  यह आशय भी निकलता है कि देश भर में फ़ैल रहे जातीयतावादी  आरक्षण आंदोलन या अन्य  नाजायज मांगों के लिए रेलें रोकना ,पटरियाँ उखाड़ना ,बसें जलाना ,महिलाओं से  बदसलूकी करना ,कमजोरों पर  अत्याचार करना तथा राष्ट्रीय सम्पदा को जानबूझकर हानि पहुँचाना ये सब  असल देशद्रोह है । जिस  तरह जनता द्वारा शासित लोकतंत्र के पवित्र मंदिर [ संसद] में किसी  बाचाल मंत्री द्वारा सिर काटकर रखने की बात करना  देशद्रोह नहीं बल्कि असंसदीय है ? उसी तरह  नादान छात्रों की नारेबाजी भी 'असंयत' असंसदीय ' कही जा सकती है।  वेशक यदि  छात्र देशभक्त  नहीं हैं तो उन्हें कानून के सुपुर्द कीजिये। किन्तु उसका हो-हल्ला मचाकर सिर्फ अपना ही  उल्लू सीधा मत कीजिये ! देश की  जनता के सवालों को दरकिनार मत कीजिये ! संसद में धर्म - मजहबी और मिथकीय शोर मचाना केवल पाखंड है।  इस साम्प्रदायिक पाखंड पूर्ण नाटक  में संसद का बहुमूल्य समय नष्ट   करना देशभक्ति  कदापि नहीं  है

वेशक इस सत्र  के शुरुआत में  सत्ता पक्ष को मीडिया में कुछ बाहवाही  जरूर मिली। चूँकि तमाम विपक्षी नेता गण स्मृति ईरानी के मार्फ़त भाजपा संसदीय बोर्ड द्वारा बिछाए गए जाल में फंसते चले गए। भाजपा संसदीय बोर्ड ने तो पहले ही तय कर रखा था कि  दलितवादी विमर्श और देश के कुछ  विश्वविद्यालयों में घटित ताजा  नकारात्मक  और  अप्रिय घटनाओं से सरकार और  मंत्रियों की  हो रही छिछालेदारी से  कैसे निपटना है ? सत्ता पक्ष ने अपनी  तेजी से गिरती साख पर ब्रेक लगाने के लिए ,महगाई,बेकारी ,कालाधन आतंक वाद पर से जनता का ध्यान भंग करने के लिए और अपनी असफलता छिपाने के लिए उन्होंने संसद में विपक्ष को ही जिम्मेदार ठहरा दिया । यह एक  तयशुदा प्रोग्राम भी हो सकता है। उधर  विवादास्पद मामलों से  प्रधान मंत्री को दूर रखा गया।  वे चुप्पी ही साधे रहें। सड़कों पर ऐबीवीपी और बाकी केशरिया पल्टन को जिम्मेदारी दी गई  कि देशद्रोह  बनाम 'राष्ट्रवाद'  खुलकर खेलो। यह भी तय था कि इस  बहाने विपक्ष पर कब कितना  हल्ला बोला जाए और  मीडिया पर कब्ज़ा  भी बरकरार रखा जाये ।

श्रीरामं तिवारी



 

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