बजट सत्र के दुसरे ही दिन संसद में' देशद्रोह बनाम राष्टवाद' के पुनीत राजधर्म का और धतकर्म का श्री गणेश सर्वप्रथम पूर्व टीवी सुदर्शना व वर्तमान मानव संसाधन मन्त्राणि - स्मृति ईरानी ने सकुशल सम्पन्न किया। पीएम ने तत्काल ट्वीट किया 'सत्यमेव जयते''! राजनाथ जी ,अरुण जेटली जी और अनुराग ठाकुर इत्यादि ने भी पूरी तैयारी और अतिरिक्त उत्साह से संसद में अपना शौर्य दिखाया । किन्तु वाह री दुनिया ! केवल स्मृति के ही हर तरफ चर्चे चलते रहे । उनके अपनों ने तो बहुत कम बल्कि परायों ने उन्हें कुछ ज्यादा ही महत्व दिया। क्यों न हो ? एक तथाकथित अर्ध शिक्षित महिला ने अति शिक्षित दिग्गज विद्वानों को भी अपने वाग्जाल में उलझा दिया !क्या यह कमाल नहीं ? और जिन्हे अपने बौद्धिक ज्ञान का अहंकार है वे संसद रुपी रण में खेत रहे क्या यह आश्चर्य की बात नहीं ?
मेरा तातपर्य विपक्ष की निपट अज्ञानता से है ! अपने अहोभाव के कारण ही वे मंत्री स्मृति ईरानी के सामने धराशायी होते रहे। जेएनयू के जिस तथाकथित प्रोग्राम में ' महिषासुर' को हीरो और दुर्गाजी को खलनायिका बताया गया है ,उसमें खुद भाजपा सांसद और दलितवादी नेता उदित राज भी मौजूद थे। विपक्ष के सभी नेता स्मृति के महिषासुर वाले आग्नेय विषवमन पर प्रति प्रश्न की बर्फ उड़ेलने में असमर्थ रहे। इसके बजाय वे फोकट का निर्थक हो हल्ला ही मचाते रहे । इससे स्मृति ईरानी और हावी होतीं चलीं गईं। स्मृति के मैदान मारते ही सत्ता रूढ़ दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक नेतत्व को हर मोर्चे पर बढ़त हासिल होने लगी । और तब सारा विपक्ष स्मृति के सामने धरना दे ,उनसे कठोर अबचनों के लिए माफी मांगने की मांग करे , पीएम से संसद में स्पष्टीकरण की मांग करता रहे या संसद से 'वाक् आउट' करता रहे किन्तु इससे अब जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि इन मानव संसाधन मंत्राणि ने और सत्तारूढ़ नेतत्व ने जिन विषयों में विपक्ष को अब तक उलझाया है ,वे विषय तो जनता के कोई काम के नहीं हैं ।
जब स्मृति ईरानी जैसी दोयम दर्जे की नेत्री ने देवी दुर्गा वाले तेवरों - आग्नेय शब्दभेदी बाणों से विपक्ष को छत-विक्षत किया , काश तब विपक्ष के किसी समझदार नेता का जबाब कुछ इस तरह होता !
''माननीय सभापति महोदय ,
आदरणीय मानव संसाधन मंत्री जी यद्द्पि संसद की तयशुदा कार्यसूची से भटक गयीँ हैं और वे महामहिम राष्ट्रपति महोदय के अभिभाषण में उल्लेखित अवधारणाओं से भी पदच्युत हैं। वे राष्ट्रपति जी के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव ज्ञापित करने के बजाय धार्मिक उन्माद 'के सवाल पर सदन का वेश्कीमती बक्त बरबाद कर रहीं हैं। 'पोंइट ऑफ ऑडर ' के तहत में हस्तक्षेप की की मांग करता हूँ !''
विपक्ष की इस अपील पर यदि सभापति उचित व्यवस्था नहीं देते तब 'बाक आउट ' करते हुए निम्नांकित वयान मीडिया के मार्फत देश की जनता को दिया जाना चाहिये था।और यदि सभापति महोदय संसद में चर्चा को तैयार हो जाते तो वही वयान संसद में भी दिया जा सकता था।
''हम विपक्ष के तमाम सांसद साथी आपके [पीठासीन सभापति]माध्यम से संसद में यह ज्ञापित करते हैं कि सरकार की हटधर्मिता और मंत्री महोदया की 'सर काटकर रख देने 'की बात से हम बहुत दुखी हैं , सत्तापक्ष तालियाँ पीट रहा है । अब हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं कि हम संसद में यह सब सहन नहीं करते रहें। चुप रहने के बजाय हम जनता के समक्ष अपना अभिमत पेश करते हैं। हम लोकतांत्रिक तरीके से अपना पक्ष रखना जानते हैं। चूँकि यह सरकार - हिंसा ,घृणा और असत्य का सहारा लेकर मनमानी कर रही है। छात्रों की मामूली नारेबाजी को लेकर कला ,नाटक,साहित्य और विमर्श बाधित कर रही है। संसद में जन समस्याओं पर बहस कम और काल्पनिक धार्मिक मामलों पर अधिक बहस थोपी जा रही है। मंत्री जी ने कहीं से कागज पर उकेरा 'महिषासुर 'संसद में लहराकर कहा है ''ये नहीं चलेगा ये देशद्रोह है ''। विपक्ष के हम सभी सांसद साथी देश की आवाम को याद दिलाते हैं कि हमारा संविधान इस तरह की हरकतों की इजाजत नहीं देता जो कि सत्तापक्ष के लोग इन दिनों संसद में किये जा रहे हैं। मंत्री महोदया ने वेमुला की मौत पर भी घोर अपमानजनक टिप्पणी की है। जेएनयू के छात्रों,अध्यापकों और छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैयाकुमार के प्रति अपशब्दों का प्रयोग किया है।
चूँकि भारत में सांस्कृतिक ,सामाजिक ,धार्मिक और क्षेत्रीय विविधता है। यहाँ उत्तर भारत में यदि रावण जलाया जाता है तो दक्षिण भारत में नहीं जलाया जाता। मन्दसौर में रावण को जवांई मानकर पूजा की जाती है,संघ और भाजपा वाले ही उसे ऑर्गेनाइज करते हैं। तमिलनाडु में रावण को श्रीराम से बढ़कर आदर दिया जाता है। क्या स्मृति जी के अनुसार वह देशद्रोह है? इंदौर के सर्व ब्राह्मण समाज ने 'रावण दहन बंद करने की अपील की है क्या यह देश द्रोह है ? देश भर में भगवान परशुराम की पूजा होती है ,किन्तु उन्होंने जिस कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन को मारा था उसकी पूजा भी अनेक लोग करते हैं। उस सहसबाहु की मूर्ति प्रमुख चौराहे पर लगी है ,क्या यह देश द्रोह है ? देश में अधिकांस लोग वेदों को अंतिम और सम्पूर्ण सत्य मानते हैं किन्तु गौतम बुद्ध ,महावीर ,नानक कबीर ने नहीं माना ,क्या उनके अनुयायी देशद्रोही हैं ? संसार भर के समस्त वैष्णव जन - सनातनी हिन्दू विष्णु के २४ अवतार या दशावतार को ही मानते हैं ,किन्तु दक्षिण में केरल वाले तो देवता और दैत्य दोनों को बराबर सम्मान देते हैं। वे विष्णु को तो मानते ही हैं ,किन्तु दैत्यराज 'बलि' को भगवान विष्णु से ज्यादा ही मानते हैं। क्या यह देशद्रोह है ?
देश में कई जगह देवी और महिषासुर की पूजा साथ-साथ होती है क्या यह देशद्रोह है ? इसी तरह भारत में बीस करोड़ सिया-सुन्नी मुसलमान रहते हैं ,दो करोड़ जैन ,दो करोड़ सिख और हजारों पारसी तथा लाखों बौद्ध रहते हैं ,क्या यह जरुरी है कि वे सभी दुर्गा पूजा करें ? यदि देश के करोड़ों आदिवासी अपने लोक देवता या कबीले के टोटम अर्थात ग्राम्य देवता' के अलावा किसी अन्य देवी या देवता की नहीं जानते तो क्या वे देशद्रोही हैं ? यदि वे जानते भी होंगे तो मानने को बाध्य हैं क्या ? यदि देश के आदिवासी 'संघपरिवार' या हिंदुत्व को नहीं जानते या उसे मानते भी नहीं तो क्या यह देशद्रोह होगा ? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर भारतीय संविधान में निहित हैं। धर्मनिरपेक्षता के रूप में सारे प्रश्न उत्तरित हैं। किन्तु भारतीय वैदिक ऋषि भी वही बात सूक्त वाक्य या छंद में कहते हैं :-
एक -एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति ,,,,,अर्थात उपनिषद कहते हैं कि 'सत्य' एक ही है ,उसे किसी भी नाम से पुकारो ! उसे देवी के रूप में पूजिए या महिषासुर के रूप में पूजिए ,किसी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडेगा।
दो-यो यो यां यां तनु भक्तः शरदयार्चित तुमच्छ्ति। [गीता अध्याय-७ ,श्लोक -२१] अर्थात -जो -जो भक्त जिस-जिस रूप में मुझे याद करेगा मैं [श्रीकृष्ण] उसे उस-उस रूप में पुरस्कृत करूंगा।
तीन- उपनिषद का कार्य कारण सिद्धांत -यदि महिषासुर न होता तो 'महिषासुर मर्दनी' की जरूरत ही न होती।
हालांकि ये सारे तथ्य अप्रासंगिक और कुतर्कपूर्ण हो सकते हैं ,किन्तु स्मृति ईरानी या भाजपा का नकली हिन्दुत्ववाद और उसके लिए बजाये जा रहे ढपोरशंख का यही उचित जबाब हो सकता है।
इस संदर्भ में हमारे डायनामिक व्यक्तित्व के धनी और अच्छे दिनों की तमन्ना रखने वाले 'प्रधानमंत्री जी से कोई क्या खाकर मुकाबला कर पायेगा ? उन्होंने पता नहीं स्मृति ईरानी का कौनसा सच देख सुन लिया और ट्वीट कर चले कि 'सत्यमेव जयते'' । जमानत पर रिहा होने पर छात्र नेता कन्हैया और उसके जेनएयू वाले साथी भी इंकलाब जिंदाबाद के साथ-साथ 'सत्यमेव जयते ' के नारे लगा रहे हैं। क्या उनका सत्यमेव जयते तभी माना जाएगा जब वे एबीवीपी ज्वाइन कर लेंगे ?
स्मृति ईरानी और उनके सत्ताधारी समर्थकों को भले ही मालूम न हो किन्तु उन की ओर आलोचनात्मक दॄष्टि रखने वाले हर शख्स को मालूम होना ही चाहिए कि दुर्गाशप्तशती के पाँचवें अध्याय का बासठवाँ श्लोक उन्हें ही समर्पित है। उसके अनुसार वास्तविक 'स्मृति' भी दुर्गा ही हैं। जिसे शक सुबहा हो वह दुर्गास्सप्तशती आद्योपांत पारायण अवश्य करे ।
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।। [दुर्गासप्तशती -
५ -६२ ]
अस्तु ! निवेदन है कि संसद के विपक्षी सांसदों का यह आध्यात्मिक सन्देश सत्तापक्ष और महा विदुषी स्मृति जी तक पहुंचे ! जैय जैय सियाराम ! वन्दे मातरम ! सत्यमेव जयते !''
अधिकांस 'संघमित्रों' को शिकायत है कि जो वामपंथी हैं वे आस्तिक क्यों हैं ? उन्हें तो गुरु गोलवलकर जी कह गए कि मुसलमान,ईसाई और कम्युनिस्ट घोर नास्तिक होते हैं। फिर ये वामपंथी नास्तिक धर्म -मजहब के ग्रन्थ क्यों पढ़ते हैं?' उन्हें तो केवल लेनिन,मार्क्स,गोर्की,वालत्येर ,कास्त्रो और माओ को ही कोड करते रहना चाहिए !ये वामपंथी चिंतक-विचारक भगवद्गीता,कुरआन,बाइबिल को कोड क्यों करते हैं ? मेरा जबाब है कि 'यदि आप सभी हिन्दू-मुस्लिम ,सिख ,ईसाई जैन,बौद्ध सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने धर्म ग्रन्थ ईमानदारी से सही अर्थों में तसल्ली से पढ़ेंगे तो आप लोग भी औरों से घृणा करना तत्काल त्याग देंगे ! कोई हिंसा में यकीन नहीं करेगा। जो कोई हिन्दू गीता ,वेद और पुराणों को ठीक से पढ़ लेगा और उसका शतांश भी अनुशरण कर लेगा वो अख्लाख़ को नहीं मारेगा। वो दाभोलकर,पानसरे,कलीबुरगी को नहीं मार सकता। वो कन्हैयाकुमार को देशद्रोही कभी नहीं कहेगा। धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का अनुशीलन ही सच्चा राष्ट्रवाद है !
जो सच्चे राष्ट्रवादी होंगे वे अपने जीवन में धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का हमेशा अनुशीलन करेंगे। वे मजहबी उन्माद नहीं फैलायंगे। वे अम्बानी,टाटा,बिड़ला या विदेशी कार्पोरेट घरानों की जी हजुरी नहीं करेगे । बल्कि वे स्वामी विवेकानद की तरह ,लाला लाजपत राय की तरह , लोकमान्य तिलक की तरह ,ईएमएस नम्बूदरीपाद की तरह और श्रीपाद अमृत डांगे की तरह महान क्रांतिकारी हो जाएंगे। तब वे इस बात पर हलकान नहीं होंगे कि जेएनयू वाले हिन्दू जनेऊ क्यों नहीं पहनिते ? और कौन क्या खाता है ?कौन क्या नारे लगाता है इस पर अनावश्यक उत्तेजना नहीं फैलायेंगे ! यदि कोई हिन्दुत्ववादी ढंग से गीता पढ़ लेगा तो उसे सब कुछ 'निमित्तमात्रम् भव साचिन '' ही नजर आएगा ! यदि दुर्गा सप्तशती पढ़ेगा तो उस वन्दे को मायावती बहिन और स्मृति बहिन दोनों ही दुर्गा नजर आएगी। तब स्मृति और माया का द्वेत भी नहीं रहेगा ! तब वह मानव कृत काल्पनिक विग्रह भी नष्ट हो जाएगा,जिस पर स्मृति ईरानी संसद में बड़ा गुसा दिखाती रहीं। और भ्रान्ति फैलाती रहीं। इस बाबत भी दुर्गासप्तशती में एक श्लोक है :-
या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।[ध्याय ५ श्लोक ७४ ]\
यदि कोई मुसलमान ईमानदारी से 'कुरआन' को पूरा पढ़े और उसका अनुशीलन करे तो वो आईएसआईएस - अलबगदादी नहीं बनेगा ,तब वह अमीर खुसरो बनेगा ,ग़ालिब बनेगा , निदा फाजली बनेगा ,अबुल कलाम बनेगा ,हाजी अली पीर बनेगा ,खवाजा मोइनुद्दीन चिस्ती बनेगा ,शेख सलीम या बाबा फरीद बनेगा ,अर्थात ''मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ''!यह बात सिर्फ अल्लामा इकबाल ही नहीं कहते रहे , सिर्फ नजीर अकबराबादी या कैफ़ी आजमी ही नहीं कहते रहे ,सिर्फ वामपंथी ही नहीं कहते रहे ,बल्कि समस्त सभ्य सन्सार कहेगा कि यह जेहादी इस्लामिक आतंकवाद और अंधश्रद्धा युक्त प्रतिगामी असहिष्णु हिंदुत्वववाद सब शैतान की खुरापात है। ये सब क्रांति पुंज नहीं बल्कि भ्रान्ति की धुंध मात्र ही है।
न केवल मूर्ती पूजा धार्मिक-कर्मकांड ,साम्प्रदायिकता और मिथ इत्यादि ही भ्रान्ति है । बल्कि हमारे उपनिषद और वेद शास्त्र भी यही कहते रहे हैं ! कुछ संवेदनशील अंधश्रद्धालुओं को यह पढ़कर बड़ी परेशानी हो सकती है। अतः उन्हें थोड़ा सा स्पष्टीकरण पहले से ही दे देता हूँ। यह कठोर मीमांसा या स्थापना मेरे नहीं बल्कि ऋषियों के ही मन्त्रों/सूक्तों का सारांश मात्र है ! चूँकि 'संघ' वाले तो अपने आपको धर्मधवज ही मानते हैं ,वे तो अपने आपको धर्म के बड़े मर्मज्ञ और ज्ञाता कहते हैं। अतएव उन्हें किसी प्रकार के प्रमाण या ग्रंथों के संदर्भ उल्लेख की आवश्यकता नहीं ! फिर भी यदि किसी को शक हो तो शंकराचार्यो से ही अपनी जिज्ञासा शांत कर ले। यदि वे न बता पाएं तो पंडित श्रीराम तिवारी से विधिवत पूंछ लें।
''ये में मत मिदम् नित्यम् अनुत्तिष्ठन्ति मानवा :''[भगवद गीता -३/३०]
यह बहुत बड़े गर्व और स्वाभिमान की बात है कि भारतीय वैदिक वांग्मय में कहीं पर भी धर्म को राजनीति में नहीं घसीटा गया।वेशक राजाओं पर जरूर धर्म संस्थानों का यह दवाव रहता था कि वे धर्मानुकूल आचरण करें!
अब यदि संघ वालों को ,मोदी जी को या स्मृति जी को उसी तरह धर्मानुकूल आचरण कारण है तो वे ख़ुशी-खुशी करें ,तब जनता भी उनका अपने आप अनुशरण करने लग जायगी ! क्योंकि 'मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्यः पार्थ सर्वशः ''या महाजनो ये गताः सः पन्थाः ''लेकिन जब कुछ लोग अपनी राजनैतिक अक्षमता को छिपाने के लिए धरम-मजहब की ढाल बनाकर संसद में ,मीडिया में और सड़कों पर केवल पाखंडपूर्ण ढपोरशंख बजाते रहेगे तो वे आस्तिक नहीं हो सकते।और उन्हें कोई अधिकार नहीं कि देवी दुर्गा या महिषासुर पर संसद में प्रबचन दें !
मेरे निज निवास से लगभग १०० गज की दूरी पर मोहल्ले की प्रमुख गली के तिराहे पर एक पुराना पीपल का पेड़ है। पीपल के तने के चारों ओर एक चौकोर चबूतरा बनाकर रहवासियों ने अपनी-अपनी आस्था अनुसार यहाँ प्रायः सभी देवी देवताओं की मूर्तियाँ ला-ला कर रख छोड़ी हैं। इन मूर्तियों में शंकर जी सपरिवार विराजित हैं। सिंहवाहनी देवी दुर्गा जी भी है ,काल भैरव जी हैं , टूटा-फूटा सा वेचारा महिषासुर भी ओंधा पड़ा है। आश्थावान श्रद्धालुओं ने पीपल की छाँव में स्थित इस छोटे से ओटले को एक पवित्र 'धर्म स्थल' बना लिया है। कुछ श्रद्धालु नर-नारी अल -सुबह नहां धोकर वहाँ जल चढ़ाने आया करते हैं। जल चढ़ाने वाले बहुत समझदार है। वे एक ही लौटे 'जल' से सूर्य देवता ,पीपल देवता और वहाँ उपस्थ्ति सभी देव प्रतिमाओं को भी श्रद्धापूर्वक अर्ध्य देते हैं। कुछ युवा श्रद्धालु-छात्र-छात्राएं सिर्फ परीक्षा के समय ही यहाँ अगरवत्ती लगाने आते हैं। कुछ लोग दूर-दूर से भी शादी -ब्याह के नेग-चार पूर्ति हेतु इस 'धर्मस्थल'पर आकर पीपल देव को पचरंगी नाड़ा बांधते हैं। कुछ श्रद्धालु जन अर्ध्य देने के साथ-साथ कपूर- अगरवत्ती भी लगाते हैं। यहाँ हर तीज त्यौहारों पर सामूहिक आरती और पूजा पाठ के आयोजन भी होते रहते हैं। मैं उस चबूतरे के निकट कभी नहीं जाता। मैंने कभी किसी देवता की कोई पूजा नहीं की। अगरवत्ती भी नहीं लगाईं। और न कभी उस पीपल को अर्ध्य दिया। कोई पूंछे कि क्यों ? मेरा जबाब होगा - किसी पीएचडी कर चुके छात्र को पुनः 'ककहरा' घोंटने की जरुरत नहीं। और वैसे कबीर बाबा भी कह गये हैं कि - "कस्तूरी कुंडल बसे ,मृग ढूँढे वन माहिं ! ऐंसे घट-घट राम हैं ,दुनिया देखे नाहिं ''
संसद में स्मृति जी का रौद्र रूप देखकर मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आ गए जब पूरी की पूरी दुर्गा-शप्तशती 'बांचे' बिना अन्न -जल ग्रहण नहीं करते थे। जब हम कुछ और 'सयाने' हुए और विश्वविद्यालय की लायब्रेरी में छुप -छुप कर 'कुमारसम्भव' , रघुवंशम ,विक्रमोर्वशीयम को आद्द्योपांत ह्रदयगम्य करते हुए भी अच्छे-नंबरों से मेथ्स,फिजिक्स, कैमेस्ट्री और हिंदी में भी ससम्मान स्नातक हुए तो हमे की किंचित अपने 'बृहदज्ञानकोष' पर बड़ा नाज होने लगा। किन्तु मेरा यह अभिमान जल्दी ही समाप्त हो गया जब हमारी मुलाकात एक ऐसे साधु' से हुई जो फिजिक्स में एमएससी फर्स्ट क्लास होकर भी बाबा बन गया ! उस 'अनाम' साधु ने जब शतपथ,गोपथ ऐतरेय,तैतरीय जैसे आरण्यकों और ईशावासो इत्यादि उपनिषदों का संछिप्त और सारगर्भित परिचय कराकर मेरा मान मर्दन कर डाला । वह जितनी कुशलता से पाणिनि की अष्टाध्यायी और भर्तृहरि के शृंगार शतक पर बोल सकता था उतनी ही प्रगल्भता से 'हेमलेट' और रिपब्लिक' पर भी बोल सकता था। आपातकाल लगने पर यह बाबा समाजवादी हो गया और जेपी आंदोलन में जेल भी गया ! भारत में ऐंसे अनेक महान विद्वान हुए हैं जो धर्म और अध्यात्म के धुरंधर थे और मार्क्सवादी हो गये। उनमें महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन ,ईएमएस नम्बूदिरीपाद,श्रीपाद अमृत डांगे ,रामविलास शर्मा ,मुक्तिबोध ,दुष्यंतकुमार ,मुकुट बिहारी सरोज जैसें अनेक दिग्गज विदवान हुए हैं जिन्होंने भारतीय वैदिक वांग्मय का खूब अध्यन किया और मार्क्सवाद समर्थक भी हो गये। लेकिन वे अंधश्रद्धा और पाखंड को मजहब -धर्म नहीं मानते थे। उनका धर्म मानवतावाद और धर्मनिरपेक्षता से लवरेज हुआ करता था।
अपने मकान की छत पर धूप सेंकते हुए जब कभी मेरी नजर उधर दूर पीपल के पेड़ पर पड़ती है,तो 'दूरहिं ते प्रभु कीन्ह प्रनामा '' वाला पवित्र भाव मेरे मन में सहज ही आ जाता है। और अनायास ही में अपने घर की छत से ही उन पीपल देव को श्रद्धासुमन अर्पित कर देता हूँ साथ ही उनकी छाँव में बैठे सभी देव गणों को उनके उपासकों को दूर से ही सादर प्रणाम कर लेता हूँ। इतना ही नमन मैं तब भी कर लेता हूँ जब कभी क़िसी सूर्योदय या सूर्यास्त को देखता हूँ। इतना ही नमन या धरम -करम में तब भी कर लेता हूँ जब कोई मस्जिद ,गुरुद्वारा और चर्च को कहीं देखता हूँ। इतना ही नमन में तब भी करता हूँ जब कोई हरा-भरा खेत देखता हूँ ,बाग़-बगीचे और फूलों की क्यारियों को देखता हूँ। मैं जब भी ऐंसा करता हूँ तब मेरे ध्यान में कोई देवी दुर्गा या महिषासुर नहीं होते बल्कि इन स्थलों के सृजनहार मेहनतकशों के पसीने की गंध मुझे उन्हें नमन करने को प्रेरित करती है। मेरे इस श्रद्धा -भाव मात्र से मेरी प्रगतिशीलता को कितना खतरा है ? और इसमें कितना मजहबी धार्मिक पाखंडवाद है ?यह तो मुझे भी मालूम नहीं । किन्तु मैं इस सबके वावजूद राजनीति में धर्म-मजहब को घुसेड़ने के खिलाफ हूँ। यदि कोई मुझे नास्तिक मानता हो तो मुझे परवाह नहीं। और इस श्रद्धाभाव के वावजूद में देश और दुनिया के मजहबी उन्मादियों ,अंधश्रद्धालुओं और धर्मान्ध लोगों ,शक्तिशाली शोषण की ताकतों के खिलाफ लड़ता रहूंगा।
थोड़ा विषयांतर हो गया पाठकगण क्षमा करें । पीपल पर बैठे पक्षी जब सुबह शाम कलरव करते हैं तो बहुत कर्णप्रिय मधुर कलरव संगीत सुनाई पड़ता है। लेकिन रात भर में पीपल के पत्तों की और देव प्रतिमाओं की सूरत रोज बदरंग हो जाया करती हैं। क्योंकि यहाँ पंछियों -पखेरुओं का मल बिखरा पड़ा होता है। कभी कभार गली -मोहल्ले के आवारा कुत्ते भी उन देव प्रतिमाओं पर अपनी टाँग उठाकर अपना पाशविक अर्ध्य भी दे दिया करते हैं। जब -कभी सूअरों का झुण्ड गुजरता है तो अपने थूथर से वहाँ की भोजन परसादी चट करने में जरा भी नहीं हिचकते। पंछियों द्वारा देव प्रतिमाओं पर शौच करने से ,कुत्तों द्वारा उन प्रतिमाओं पर टांग उठाकर मूत्र विसर्जन से ,और वाराह फेमली द्वारा खान-पान -मल विसर्जन से कोई देवता कुपित हुआ या नहीं यह तो मुझे नहीं मालूम किन्तु इस छोटे से धर्म स्थल के भक्त-भक्तनियों को कोई नाराजगी नहीं। कोई मलाल नहीं। क्योंकि जब देवी को ही कोइ आपत्ति नहीं तो भक्तों को क्या पडी की नाहक हलकान होते फिरें। किन्तु इतनी सी बात स्मृति ईरानी जी के दिमाग में नहीं ठस पाई है ।
उन्होंने जेएनयू के किसी कार्यक्रम में छात्रों द्वारा महिषासुर को 'इज्जत' बख्सने और देवी जी को रुसवा करने के सवाल पर संसद का वेश्कीमती समय बर्बाद कर डाला। और ये स्मृति देवी संसद में कुपित हो गईं !
संसद के मौजूदा सत्र में मानव संसाधन विकास मंत्री सुश्री स्मृति ईरानी ने जब संसद के निर्धारित एजन्डे से हटकर 'महिषासुर' को पूजने वाले 'असुरपुत्रों' पर असाधारण कोप व्यक्त किया तो उनकी इस अदा को निरख कर शायद 'सैटेनिक वर्सेस' के कुख्यात लेखक सलमान रुश्दी को फाँसी का फ़तवा जारी जारी करने वाले भी शर्मा गए होंगे ! वेशक धर्म-मजहब हर इंसान की अपनी निजी आस्था का मामला है। और हमारा धर्मनिरपेक्ष संविधान किसी को भी यह इजाजत नहीं देता कि वह किसी के देवी-देवता या उसके आस्था प्रतीकों की खिल्ली उड़ाए ! भारत में करोड़ों लोगों की आस्था के केंद्र में स्थित मातृशक्ति स्वरूप 'देवी दुर्गा' को अपमानित करने वाला अधम ही नहीं बल्कि जघन्य अपराधी भी है ! इसी तरह दूसरे अन्य धर्म-मजहब के मूल्यों -सिद्धांतों और विश्वासों को ठेस पहुँचाना भी महापाप है ,और अपराध भी है। इन अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस है , कानून है । लेकिन संसद का मकसद धर्म-मजहब पर भाषणबाजी करना नहीं है। संसद का काम देश चलाना है आम चुनाव के वक्त देश की जनता से जो वादे किये गए हैं ,उन्हें पूरा करना केवल सरकार का ही नहीं बल्कि संसद में उपस्थित विपक्ष का भी उतना ही उत्तरदायित्व है। यदि कोई अज्ञानी नर अथवा नारी [?] संसद में देवी देवताओं के मान -अपमान का अरण्यरोदन करता है तो यह उसकी 'अशिक्षा' और अज्ञानता का परिणाम हो सकता है। यह भी प्रकारांतर से देशद्रोह ही है। क्योंकि संसद का समय किसी धर्म-मजहब की फ़ालतू बातों के लिए नहीं होना चाहिए। उसके पक्ष-विपक्ष में शाश्त्रार्थ के लिए भी संसद का समय बर्बाद नहीं किया जा सकता।
वास्तव में इन सब धर्म-मजहब के फसादों के निपटान के लिए या उनपर विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान देने के लिए ,मंदिर -मस्जिद हैं ,गिरजे-गुरूद्वारे हैं और उन सभी धर्म-मजहब के मठाधीश भी हैं। धर्म-मजहब संबंधी फसादों के निष्पादन का काम यदि स्मृति ईरानी करने लगेंगी तो तमाम योगी, तपस्वी, साधु-साध्वियां संत श्री, महामंडलेश्वर ,धर्माचार्य ,मुल्ला -मौलवी और मठाधीश -पुरोहित क्या घुइंयाँ उखाड़ेंगे ? धर्म-मजहब के सभी डिस्प्यूटस के समाधान का अधिकार स्मृति ईरानी को किसने दिया है ? क्या भारतीय गणतंत्र इस तरह की मनमर्जी से चलेगा ? केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने देवीदुर्गा' बनाम महिषासुर प्रसंग को लेकर संसद में जो विष वमन किया है ,उससे तो यही लगता है कि भारतीय संसद अब जर्मन 'राइखसट्रॉन्ग' हो चली है व 'ईवा ब्राउन' पुनः अवतरित हो गई है।
श्रीराम तिवारी
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