मंगलवार, 29 मार्च 2016

देश की आवाम को बाबा साहिब के तमाम बगुला - भगतों से सावधान रहना होगा ! जय भीम !


भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र का ककहरा जानने वाला हर शख्स जनता है कि बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर दक्षिणपंथी नहीं थे। अर्थात वे रूढ़िवादी ,दकियानूसी या  पुरातनपंथी बिलकुल  नहीं थे। वे तो उच्च शिक्षित -प्रगतिशील,विज्ञानवादी और  क्रांतिकारी थे। वे शोषण,उत्पीड़न ,अन्याय  और सामाजिक आर्थिक असमानता के विरुद्ध हमेशा संघर्ष करते  रहे।  वेशक  बाबा साहिब कम्युनिस्ट या वामपंथी नहीं थे। लेकिन उन्होंने  मार्क्स की शिक्षाओं को बहुत आदरभाव से सशर्त स्वीकार किया था। एक प्रतिबद्द कम्युनिस्ट न होते हुए भी उन्होंने  भारतीय समाज व्यवस्था के बरक्स  मार्क्स -एंगेल्स की वैज्ञानिक शिक्षाओं का बहुत समादर  किया था। अंत समय में जब वे हिन्दू धर्म त्यागकर 'बौद्ध' हुए , तब भी उन्होंने भगवान बुद्ध की 'धम्म' शिक्षाओं को अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के साथ समाहित किया  था। बाबा साहिब ने कार्ल मार्क्स और महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के प्रकाश में ही भारत के दलित-शोषित और वंचित वर्ग के उत्थान का विहंगम स्वप्न देखा था। क्या विचित्र विडंबना है कि संसदीय लोकतंत्र में वोट की राजनीति के लिए अब बाबा साहिब अम्बेडकर के सनातन विरोधी - दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी भी उनके मुरीद होने का स्वांग कर रहे हैं।

जिनकी सोच घोर प्रतिक्रियावादी और पोंगापंथी रही है ,जो पुरातन सामन्तयुगींन भारतीय वर्ण व्यवस्था का गुणगान करते नहीं अघाते वे ही लोग अब 'जय भीम' के नारे लगा रहे हैं। यदि बाबा साहिब अम्बेडकर जीवित होते तो क्या ऐंसे लोगों का सानिध्य पसंद करते ? जो लोग अम्बानियों-अडानियों और कारपोरेट कम्पनियों के बगलगीर हैं ? जिन लोगों ने नरेंद्र दाभोलकर,गोविन्द पानसरे,कलबुर्गी और वेमुला  के हत्यारों को पनाह दी हो , जो लोग प्रोफेसर यू आर अनन्तमूर्ती को अपमानित करते रहे हों ,जो लोग देश के प्रगतिशील वामपंथी लेखकों, बुद्धिजीवियों -साहित्यकारों और जेएनयू छात्रों को  देशद्रोही बताकर अपमानित करते रहे हों ,जो लोग वोट की राजनीति के लिए साम्प्रदायिक धुर्वीकरण का उत्पात मचा रहे हों , क्या ऐंसे लोगों को बाबा साहिब डॉ भीमराव अम्बेडकर अपने पास फटकने देते ? दरअसल  भारत के कुछ जातिवादी नेताओं को ,घोर दक्षिणपंथी फासीवादी  साम्प्रदायिक संगठनों को ,पूँजीवादी पार्टियों के नेताओं को ,बाबा साहिब के सम्मान की रंचमात्र चिंता नहीं है।   बल्कि  सत्तापिपासु नेताओं और दलों को अपने -अपने खिसकते जनाधार की फ़िक्र है। वे जो अब तक  बाबा साहिब का नाम जपकर -अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं, और वे जो  आइन्दा अपना राजनैतिक हित साधने की कोशिश में हैं ,वे बाबा साहिब के विचारों को न तो जानते हैं और मानने का तो सवाल ही नहीं है।जो लोग  वास्तव् में शोषित दमित हैं ,उनके उद्धार का तो  प्रश्न ही नहीं है। देश की आवाम को बाबा साहिब के इन तमाम बगुला - भगतों से सावधान रहना होगा !जय भीम !

भारत के संविधान निर्माताओं ने जिस ब्रिटिश संविधान का आश्रय लिया था ,तब वह प्रमुख और सहज विकल्प रहा होगा। शायद भारतीय संविधान निर्माताओं की यह ऐतिहासिक  मजबूरी रही होगी ,कि भारतीय संविधान  में उन ब्रिटिशकालीन जन विरोधी धाराओं और ब्रिटिश एक्टस को भी ज्यों का त्यों समाहित कर लिया ,जो  कि   पूँजीपतियों के पक्ष में थे और मजदूरों के खिलाफ हुआ करते थे। वे जन विरोधी  धाराएं अब भी यथावत हैं। जिन श्रम विरोधी कानूनों के खिलाफ लाला लाजपतराय ने लाठियाँ खाई व  भगतसिंह ने शहादत दी,वे अनुच्छेद  या धाराएं आजादी के बाद स्वतंत्र  भारत  के संविधान में यथावत क्यों हैं ? अब तो  ऐंसी कोई मजबूरी भी नहीं कि अंगर्जों के बनाए उन काले   कानूनों को आजाद भारत के संविधान में  अनंतकाल तक रखा जाए । वेशक बाबा साहिब अम्बेडकर और उनके  संविधान सभा के अन्य विद्वान साथियों  ने  ब्रिटिश कानून को  ही प्रमुख आधार बनाया था। उन्होंने फ्रांस अमेरिका कनाडा के भी कुछ कानूनों को स्वतंत्र भारत के संविधान में समाहित किया। किन्तु यह दिलचस्प है कि  इसी  तर्ज पर तो लगभग सारे संसार के संविधान बनाए गए हैं। लेकिन दुनिया के अन्य राष्ट्रों ने ब्रिटिश व्यवस्था और उसके विधान को अंतिम सत्य कभी नहीं माना । जबकि भारत की आवाम को बार-बार पढ़ाया -जचाया जाता रहा है  कि २६ जनवरी-१९५० को जो संविधान लागू किया गया वही  अंतिम सत्य है। आजादी के ६९ साल बाद भी  भारतीय नेता और आवाम  यह  नहीं समझ पाये  कि अंग्रेजी संविधान के कतिपय अन्यायी और जन विरोधी एक्ट्स  को भारतीय संविधान में ज्यों के त्यों क्यों घुसेड़ दिए गए?

न केवल टेलीग्राफ एक्ट १८६२ ,न केवल ट्रेड बिल -१९२६ ,न केवल मुस्लिम परसनल लॉ १९३७ ,बल्कि गुलाम भारत काल की अनेक शर्मनाक स्थापनाएँ -धाराएं -उपधाराएं यथावत या घुमा फिराकर भारतीय  संविधान के पन्नों पर कब्ज़ा किये हुए हैं। कुछ लोगों  को  गलत फहमी है कि इन  तमाम जन विरोधी धाराओं के जनक या प्रस्तावक बाबा साहिब थे। अधिकांश लोगों को यह भी बड़ी गलतफहमी है कि  यह भारतीय संविधान किसी एक खास व्यक्ति  ने लिखा है। कुछ नासमझ लोगों को  यह जानकर घोर आश्चर्य होगा  कि भारतीय संविधान की 'प्रस्तावना ' का प्रारूप ही  विदेशी है। ''हम भारत के जनगण ,एक स्वतंत्र सम्प्रभु लोकतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र  भारत को अंगीकृत आत्मार्पित करते हैं '' इस एक  वाक्य के ही अधिकांश शब्द फ्रांसीसी और अमेरिकन क्रांति से लिए गए  हैं। वैसे यह  कोई अनहोनी बात नहीं है। जब टेक्नालॉजी  विदेशी हो सकती है ,जीवन शैली विदेशी हो सकती है ,तो यह  संवैधानिक प्रवाह भी देशी + विदेशी  सकता है । किन्तु सिर्फ वह नहीं जो  शोषण की ताकतों के पक्ष में है और मेहनतकशों या आम आदमी के खिलाफ है .बल्कि उसे भी शामिल किया जाना चाहिए जो मजदूरों,किसानों,छात्रों और महिलाओं के पक्ष में है। जाते-जाते अंग्रेजों ने जो कानून हमें सौंपे उन्हें जांचा परखा जाना चाहिए था। चूँकि ब्रिटिश संविधान तो १२वी शताब्दी के मेंग्नाकार्टा से लेकर चर्च और पोप द्वारा भी संचालित था। अरब लोग कुरआन और हदीस से अनुशासित थे। और भारतीय उपमहाद्वीप की अधिकांश जनता मनुस्मृति,भगवद्गीता , रामायण और अन्य संहिताओं से संचालित थी। बीसवीं शताब्दी  की पूँजीवादी संसदीय प्रजातंत्र की विधिक यात्रा में अंगर्जों  ने इन तमाम मजहबी-धार्मिक परम्परागत कानूनों की जगह एक  लिखित संविधान बनाया। भारतीय सम्विधान  भी उसी की नकल है। न केवल ब्रिटेन,न केवल भारत ,बल्कि अधिकांश कॉमनवेल्थ राष्ट्र और दुनिया के अधिकांश अन्य देश  भी उसी ब्रिटिश संविधान  के प्रभाव से अवतरित हुए हैं। इसमें यूनान की रिपब्लिक और डेमोक्रेसी वाले सिद्धांत भी समाहित हैं। इसमें रूस की क्रांति और साइंस का योगदान भी कम नहीं है। इसे हजारों लोगों ने सदियों में तैयार किया है। इसी का भारतीय संस्करण  स्वतंत्र  भारत की संविधान  सभा के विद्वान नेताओं ने तैयार किया था। जिसके कुशल संपादन   बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर ने किया था । आजादी के बाद  समय -समय पर जरूरत के मुताबिक  इसमें अनेक संशोधन  भी किये जाते रहें हैं। लेकिन जन असंतोष दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि भारत की जनता की आकांक्षाओं पर यह संविधान खरा नहीं उतरा है।

आज यदि पुलिस भृष्ट है ,नौकरशाही भृष्ट है ,गरीब-अमीर के बीच असमानता  बढ़ रही  है ,साम्प्रदायिकता बढ़ रही है,तो यह संसदीय लोकतंत्र की नाकामी ही कही जा सकती है। घृणा की कुटिल राजनीति भी मेकियावेली के  उस सिद्धांत को सही सावित कर रही है ,जिसमें उसने कहा था ''पूँजीवादी राजनीति का नैतिकता से कोई वास्ता नहीं '' और तब वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। वर्तमान व्यवस्था को संचालित करने वाले स्टेक होल्डर्स ,संविधान निर्माता और लोकतंत्र के चारों स्तम्भ भी भारत राष्ट्र की जनता को निराश करने के आरोप से मुक्त नहीं हो सकते। संसदीय लोकतंत्र के  सभी तत्व  एक साथ  मिलकर भी भारत की आवाम को  ६९ साल में न तो संगठित  कर पाये हैं और न ही एक साथ विकाश का स्तर ऊँचा क्र पाये हैं।  पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र में आवाम का बहुमत पाने के लिए पूँजीवादी नेता और पार्टियाँ जनता को केवल 'वोटर' समझते रहे हैं। वोटरों को लुभाने  के लिए धर्म-मजहब और जातिवाद  जैसे हथकण्डे अपनाए जाते रहे हैं और उसके आधार पर आरक्षण का सहारा लेते रहे हैं। उनके लिए सत्ता प्रमुख रहा है और 'राष्ट्र' गौड़ है। मौजूदा पूँजीवादी राजनीति  उस खैराती अस्प्ताल की तरह है ,जहाँ  हर मर्ज की दवा तो है किन्तु कोई रोगी कभी ठीक नहीं होता। इस दूकान पर-नारों का ,जुमलों का ,आरक्षण जैसे टोटकों का आडंबर  इफरात में मिलता है। भले ही भारतीय  संविधान ,में बाकी सब कुछ विदेशी है किन्तु आरक्षण रुपी जातीय जहर की घुट्टी अवश्य शुद्ध देशी है।  इस अवैज्ञानिक आरक्षण नीति से भारतीय  शोषित दलित-दमित समाज का कितना विकाश हुआ यह  गांवों में जाकर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ,जहाँ लोग  बूँद-बूँद पानी के लिए तरस रहे हैं। आरक्षण की मरहम से समाज में सदभाव तो नहीं बढ़ा किन्तु  दुराव,अलगाव और हिंसक द्वन्द का  मर्ज  बढ़ता ही जा रहा है।

अतीत  में दुनिया के  सभी महान लोगों ने बिना  किसी आरक्षण के ही अकूत सफलताएं अर्जित  की हैं। बिना किसी आरक्षण  के ही एक  निर्धन बालक नेपोलियन फ़्रांस का सम्राट बना । बिना किसी आरक्षण के ही वीर  शिवाजी  ने  मुग़ल साम्राज्य को ध्वस्त किया । बिना किसी आरक्षण के ही कबीरदास ,रैदास,ने लोक प्रसिद्धि पाई । बिना आरक्षण के मंगल पांडेय,चन्द्र शेखर आजाद,अशफाकउल्ला खान ,भगतसिंह,राजगुरु,सुखदेव ने ब्रटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया । बिना आरक्षण के ही ईरान से निष्काषित पारसियों ने भारत में जे आर  डी टाटा और  रतन टाटा पैदा किये। बिना आरक्षण के ही पंजाब,हरियाणा,मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र ,राजस्थान,छ्ग  और यूपी के मेहनती किसानों ने भारत को  गेहूं-चावल -सब्जी और खाद्यान्न से मालामाल कर दिया। लेकिन  जिन्हे आरक्षण मिला उन्होंने देश के लिए क्या किया ? जिन्हे अब तक कोई आरक्षण नहीं मिला ,उन भूँख प्यास  से पीड़ित  दलित /आदिवासी गरीबों की  बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार है?  करोड़ों निर्धन दलित-सवर्ण -सूखा पीड़ित क्षेत्रों में एक -एक रोटी के लिए और एक-एक बाल्टी पानी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।  उनकी दुरावस्था के लिए उनके आरक्षणधारी  भाईट कॉलर्स  लोग क्या कर रहे हैं।  चिराग पासवान ने  जब कहा कि  ''मालदार सम्पन्न  आरक्षण धारियों को अपने  ही गरीब दलित बंधुओं के पक्ष में आरक्षण लाभ त्याग देना चाहिए '' तो कितने दलित कलेक्टरों,कमिश्नरों,मंत्रियों और प्रोफेसरों ने चिराग का समर्थन किया ? किसी ने उसका संज्ञान तक  नहीं लिया ,सब चुप्पी साधे रहे  हैं क्यों ?

गुलाम भारत में एक दलित बालक ने अपनी योग्यता और संघर्ष के बलबूते पर ,दुनिया से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वह  एक अंतयज  बालक 'भीम' से  बाबा साहिब डॉ भीमराव  अम्बेडकर हो गए। उन्होंने अपनी अथक संघर्ष  से ही भारत के दलित-शोषित समाज को एकजुट किया। बिना किसी आरक्षण के ही  वे भारतीय संविधान के सृजनहार कहलाये  । लेकिन  १९३५ में इण्डिया एक्ट के तहत अंग्रेजों द्वारा  फेंकी गयी आरक्षण की  घातक अफीम को कुछ नेताओं ने रेवड़ियाँ समझ लिया । प्रारम्भ में यह आरक्षण  महज  दस साल के लिए ही था । यह भारत राष्ट्र को कमजोर बनाए रखने की फितरत थी। इसे सामाजिक समरसता तो नहीं किन्तु घृणा बैरभाव जरूर बढ़ा है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो प्रमाणित करते हैं कि मात्र आरक्षण या आर्थिक उपलब्धियों से सामाजिक सम्मान की कोई गारंटी नहीं है । रुपया-धन -दौलत तो  चोर - डाकू -लुटेरे भी हासिल कर लेते हैं। किन्तु उससे उनका सामाजिक सम्मान बढ़ेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। कोई आरक्षणधारी  कितना ही धन जोड़ ले ,कितनी भी  मनुस्मृति जला ले  किन्तु वह इस तरह की लटके-झटके बाजी से रत्ती भर सामाजिक सम्मान नहीं पा सकता। वह कोई  हर्षद मेहता,कोई तेलगी ,कोई  दाऊद इब्राहीम , कोई घोड़ेवाला ,कोई दारूवाला ,कोई  कोयले वाला , कोई टू -जी ,३-जी स्पेक्ट्रम  वाला ,कोई 'सत्यम 'वाला ,कोई  विजय माल्या -कोई बैंक लूटने वाला ,कोई  लोकायुक्त द्वारा  पकड़ा गया  भृष्ट व्यक्तियों के समाज में शामिल तो  हो सकता है ,किन्तु सम्मान की उम्मीद नहीं कर सकता । क्योंकि ये तमाम लुटेरे समाज में हिकारत से देखे जाते हैं। भले ही वे 'भारत माता की जय ' के नारे लगाते रहें वंदे मातरम 'कहते रहें ! उन्हें तो कबीर बाबा भी कह गए कि ''नहाय  धोए क्या भया  ,जो मन मैल न जाय ''!

यदि सामाजिक सम्मान चाहिए तो ययति नहीं दधीचि होना पडेगा, विश्वामित्र नहीं वशिष्ठ होना पडेगा। इंद्र नहीं रघु होना पडेगा।  सहस्त्रार्जुन नहीं परशुराम होना पड़ेगा। राजा मानसिंग नहीं राणा प्रताप होना पड़ेगा। ओरंगजेब नहीं -शरमद और दारा शिकोह होना पड़ेगा ! जिन्ना नहीं भगतसिंह होना पडेगा। अंग्रेज भक्त राजे-रजवाड़े नहीं बल्कि  गांधी ,नेहरू ,सुभाष और  शास्त्री होना पडेगा। यद्द्पि आरक्षण नीति से कुछ मुठ्ठी भर लोगों का आर्थिक उत्थान भले हो गया हो  किन्तु समाज में व्याप्त जातीय असमानता कहाँ कम हुई ? वह तो ज्यों की त्यों बरकरार है ।  ज्यादा विकराल हो गयी  है। दलितों,आदिवासियों और पिछड़ों को सवर्ण वर्ग से प्रॉबल्म  है।  आरक्षित वर्गों में दलित से महादलित को प्रॉबल्म है। पिछड़ों को अगड़ों से और अगड़ों को आरक्षित वर्गों से प्रॉबल्म है। इस तरह  शोषित -वंचित गरीबों को आपस में लड़ाकर वोट  हासिल करने की  खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्ति के जनक अंग्रेज तो चले गए. किन्तु अपनी 'फुट डालों राज करो'की कूटनीति यहीं छोड़  गए। सामाजिक  अलगाव का मूल कारण  यही दुर्नीति है। इसके कारण देश की बहुसंखयक शोषित-पीड़ित दमित जनता एकजुट संघर्ष के लिए तैयार नहीं है। और इसी कारण देश में महँगाई ,बेकारी और आतंक की समस्याएं  का निदान भी नहीं हो पा  रहा है। तमाम चुनौतियाँ और ज्यादा  आक्रामक रूप से दरपेश हो रहीं  हैं !

जो लोग  जातीय पिछड़ेपन या सामाजिक-आर्थिक शोषण -उत्पीड़न के  मुआवजे के तौर पर आरक्षण का लाभ लेते रहे हैं या ले रहे हैं ,उन्हें अब यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि वे अब भी  सामाजिक  भेदभाव का शिकार हो रहे  है।  यदि चार-पीढ़ी तक आरक्षण सुख भोगने के उपरान्त  भी शिकायत है तो  इसके दो कारण  हो सकते हैं। एक तो यह कि सामाजिक  भेदभाव मिटा पाने में यह  आरक्षण नीति  पूरी तरह असफल रही है ! और दूसरा कारण यह कि जिसे भेदभाव कहा गया वह  भेदभाव है ही नहीं। बल्कि वह एक नैसर्गिक बीमारी भी हो सकती है। जब  एक ही परिवार के सदस्यों में ही  बुद्धि ,विवेक , रंग, रूप- आकार की असमानता संभव  है तो समाज और राष्ट्र में यह शारीरिक,मानसिक और भौतिक असमानता  क्यों नहीं हो सकती ?  यह असमानता  मानव निर्मित नहीं  बल्कि कुदरती अर्थात /नैसर्गिक ही है। आरक्षण का लाभ ले रहे उस  अरबपति  गजभिए को कौन नहीं  जानता ?  जो  सागर विश्वविद्यालय का भृष्ट वाइस चांसलर  भी रहा है। जिस पर कई मुकदमें चल रहे  हैं।  उसके पास बहुत पैसा है ,किन्तु सामाजिक  सम्मान नहीं  है। उस जैसे सैकड़ों-हजारों मिलेंगे जो आरक्षण की कृपा से करोड़पति हो गए और उन्हें  'मनुबाद' अब भी सपने में डराता  है।

आरक्षण की वैशाखी से आर्थिक ,राजनैतिक और भौतिक लाभ  तो हासिल  हो जाता है ,किन्तु मानसिक विकास नहीं हो पाता।सामाजिक  सम्मान भी जीरो बटा  सन्नाटा ही रहता है। आरक्षण की बदौलत कोई व्यक्ति महान  नहीं बन सकता। भगतसिंह ,सुखदेव ,राजगुरु ,पेरियार ,ज्योतिबा फूले और खुद बाबा साहिब जैसा सम्मान पाने के लिए आरक्षण की नहीं त्याग और बलिदान की जरूरत होती है।  उदात्त  चरित्र  और मानवीय मूल्यों की कद्र वही जानता है जो अंगारों पर चलता है। प्रवाह के अनुकूल तो मुर्दे ही बहा करते हैं। प्रतिकूल प्रवाह में तैरकर जो किनारे लगता  है ,सामाजिक सम्मान का अधिकारी भी वही होता है। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि  वह दलित है या सवर्ण  है ,काला  है या गोरा है ,स्त्री है या पुरुष है ।  क्रिकेट  के खेल में जब कोई भारतीय खिलाड़ी जीत दिलाता है  ,चौके -छक्के लगाता है  विकेट लेता है तब कोई भी भारतीय यह नहीं पूँछता  कि किस खिलाड़ी की क्या जात  है ?  अभी उज्जैन सिहंस्थ पर स्वामी सत्यमित्रानन्द जी ने तमाम सफाई कामगारों को अपने साथ शिप्रा  स्नान के लिए आह्वान किया है।  यदि यही  मनुवाद  है तो इससे बेहतर दुनिया में कोई और 'वाद' नहीं। सत्यमित्रानन्द को देखकर तो बाबा साहिब  क्या और खुद कार्ल  मार्क्स भी शर्मा जाएंगे।  खेद है कि देश का  दक्षिण पंथी मीडिया और वामपंथ भी भेड़  चाल से आरक्षण और जतीयतावाद को ही हवा दिए जा रहा है।

विगत दिनों  संघ ने नागौर प्रतिनिधि सम्मेलन में आरक्षण बाबत कुछ कार्यनीतिक लाइन निर्धारित की है। संघ का सुझाव है कि''आरक्षण तो जारी रहे ,किन्तु उसकी समीक्षा अवश्य हो। और जो लोग आरक्षण की कीमत पर या अन्य कारणों से सम्पन्न हो गए हैं वे खुद आगे आकर आरक्षण का त्याग करें ताकि दलित और आदिवासी समाज के  वास्तविक वंचित वर्गों को उसका लाभ मिल सके। '' यह भी कहा गया है कि जो लोग आरक्षण पाकर सम्पन्न हो गए हैं यदि वे आरक्षण छोड़ दें तो वह अन्य निर्धन  दलित आदिवासी वर्ग के वंचित को  ही दिया जाये। वेशक  संघ के इस बयान में कोई षड्यंत्र नहीं है । कोई भेदभाव नहीं। यह पूर्णत : तथ्य गत विचार है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। बिहार के पूर्व मुख्य्मंत्री  श्री जीतनराम मांझी ने और उनके परिवार ने उसका तुरंत पालन भी किया  है। और आरक्षण नहीं लेने की घोषणा  भी कर  दी  है। किन्तु  मोदी जी ने संघ की विचारधारा के  उलट  बयान  दिया है कि  ''आपका आरक्षण कोई नहीं छीन सकता '' याने मोदी जी का मतलब है कि गजभिए [पूर्व वाइस चांसलर सागर विश्विद्यालय] जैसे भृष्ट अरबपति और उनके परिवार वाले यदि चार पीढ़ी से आरक्षण भकोस रहे हैं ,तो वे आइन्दा भी अनंतकाल तक उसे भकोसते  रहेंगे। क्योंकि मोदी जी उनके साथ हैं। वेचारे मोहन भागवत और बहिया जी जोशी  की वाणी का  कोई महत्व नहीं रहा। मोदी जी तो  सवर्ण निर्धन हिन्दुओं के वोट मानों अपना जर खरीद समझकर  भाजपा की  जेब  में ही सुरक्षित समझ बैठे होंगे ! और वे अम्बेडकर जी की भक्ति में लीन  होकर  देश के  दलितों,आदिवासियों,और पिछड़ों को पुटियाते रहेंगे। लगता है  कि वे 'हिन्दुत्वादी' नहीं बल्कि  एक पक्के कांग्रेसी की शक्ल  में  ही देश का नेतत्व कर  रहे हैं। और उनके इस अवतार से  कांग्रेस का भविष्य  घोर अंघकारमय हो चला है।

अतीत में अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना जबरन कब्जा बनाए रखने के लिए अनेक तरह के हथकंडे अपनाए थे। उन्होंने हिन्दुओं को मुसलमानों से भिड़ाया ,मुसलमानों को सिखों से भिड़ाया। सवर्ण गरीब मजदूरों को दलित -आदिवासी मजदूरों  के  सामने खड़ा करते रहे। वे  हिंदी भाषियों को अहिन्दीभाषियों से भिड़ाते रहे। जाते-जाते  अंग्रेजों ने अपनी 'फुट डालो राज करो '  की नीतियों का कानूनी पुलंदा भारतीय संविधान सभा  को थमा  दिया।उसी उधार के सिंदूर अर्थात ब्रिटिश कानून के पुलंदे को कुछ लोग 'इंडिया एक्ट-१९३५' भी कहते हैं। अंग्रेजों द्वारा 'डिवाइडेड इण्डिया' याने भारत -पाकिस्तान के तत्कालीन नेताओं  ने उन्ही अंग्रेजी कानूनों में कुछ हेर-फेर करके अपने अपने  संविधान बना लिए । पाकिस्तान ने शरीयत कानून के साथ -साथ इस्लामिक स्टेट का जामा पहिंन  लिया। लेकिन  भारतीय  नेताओं ने जरा ज्यादा उदारता और मानवीयता का परिचय दिया। उन्होंने भारत को ''सर्व प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक  'धर्मनिरपेक्षता,समाजवादी गणतंत्र ' माना। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का मूल मंत्र भी यही है। इसको ही भारतीय संविधान सभा ने  स्वीकार किया है । साथ ही दलित,पिछड़े आदिवासी के हित में आरक्षण की व्यवस्था और अल्पसंखयकों के हित में परसनल लॉ इत्यादि के कुछ  विशेष कानूनी  प्रावधान भी  रखे गए । अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गयी  कानूनी जमा पूँजी और इस जातीय. मजहबी हेर-फेर के साथ  भारतीय संविधान सभा ने  भारतीय संविधान को नया आकार दिया। डॉ राजेंद्रप्रसाद की अध्यक्षता में और डॉ भीमराव अम्बेडकर की सम्पादकीय भूमिका  में भारतीय संविधान को आहूत किया। और २६जनवरी -१९५० से इसे  भारतीय  गणतंत्र के लिए समर्पित /अंगीकृत /स्वीकृत किया गया ।

 आजादी के बाद भारतीय  राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने  वोटों की फ़िक्र में कुछ वर्गों के साथ निरंतर पक्षपात किया। उन्होंने  अपने तात्कालिक निजी हितों के लिए कुछ खास  वर्गों को  ही उपकृत किया। यह बहुत साफ़ बात है कि  कांग्रेस ने सवर्ण गरीबों की बहुत अनदेखी  की।उन्होंने  केवल आरक्षित वर्ग  की छुधा शांत करने और अल्पसंख्य्क वर्गों को सहलाने की ही कोशिश की है। हालाँकि  ये दोनों  वर्ग भी कांग्रेस से असंतुष्ट होकर कभी एनडीए के साथ  ,कभी  किसी क्षेत्रीय दल  के साथ और कभी  टिकैत ,ठाकरे ,पेरियार और कासीराम जैसे किसी खास जातीय नेता  के साथ हो लिए। कांग्रेस एवं  उसके वित्तपोषक एवं  हितग्राही लोग  सत्ता की लूट का मजा लेते रहे। किन्तु अधिक समय तक यह सिलसिला जारी नहीं रह सका। कांग्रेस तो सत्ताच्युत होकर अब फटेहाल है। किन्तु आरक्षण वालों ने भाजपा और संघ वालों को दामन थाम  लिया है।  इसी तरह कुछ दिनों बाद अल्पसंख्य्क वर्ग भी संघ और भाजपा के पाले में होगा। यह कोई राजनैतिक ध्रवीकरण नहीं है बल्कि निहायत स्वार्थपूर्ण मौकापरस्ती का प्रत्यक्ष प्रमाण  है। मोहन भागवत ,भैया जी जोशी और संघ के अन्य वरिष्ठ बौद्धिक जन कह रहे हैं की आरक्षण तो जारी  रहे ,किन्तु उसकी समीक्षा अवश्य हो। समें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए ,किन्तु  हत भाग्य मोदी जी का कहना है कि आरक्षण धारी  निश्चिन्त रहें लनी बोले सो बोले सूप ही साथ नहीं दे रहा है। आरक्षण के बहाने बिहार चुनाव जैसा माहौल फिर बन रहा है।
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विगत शताब्दी के उत्तरार्ध में जब  विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 'मंडल' कमीशन को हवा देकर  पिछड़ों को उकसाया तो  उत्तरप्रदेश ,बिहार, झारखंड हमेशा के लिए कांग्रेस से विमुख होते चले  गए। मंडल आयोग  की प्रतिक्रिया में जब आडवाणी की रथयात्राओं ने कमंडल और त्रिशूल को ताकत दी तो न केवल मध्यप्रदेश,राजस्थान ,छ्ग और गुजरात ने कांग्रेस छोड़ दी बल्कि कर्नाटका और आंध्र में भी भगवा झंडा लहराया जाने लगा।  हालाँकि आडवाणी जी की व्यक्तिगत तमन्ना कभी पूरी नहीं हुई।  वे वोटिंग पीएम ही तरह गए। किन्तु १९९९ में एनडीए  अलायंस की दम पर अटलजी अवश्य  भारत के  प्रधान मंत्री बन गए। संघ परिवार के द्वारा देश भर में गुजरात मॉडल के अथक -अनवरत  कुप्रचार की  बदौलत और कांग्रेस  की आपराधिक छवि  की असीम अनुकम्पा से  मई -२०१४ में एनडीए एवं  भाजपा को बम्फर जीत मिली गयी । नरेंद्र मोदी जी प्रधान मंत्री बने। पहली बार देश के तमाम सवर्ण  गरीबों का लगा कि  अब उनके भी अच्छे दिन आयंगे। स्वर्गीय अशोक सिंघल ने कहा था 'आठ सौ  साल  बाद कोई  हिन्दू सत्ता में आया है '' कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगा  होगा । क्योंकि अटलजी जैसे शुद्ध कान्यकुब्ज ब्राह्मण भी तो पीएम बन चुके थे ,उनको भी हिन्दू नहीं माना ,यह सरासर अन्याय और अधर्म है।

 खैर अटल जी को तो भारत रत्न मिल गया। आडवाणी जी यदि सलामत रहे तो उन्हें  जीते  जी बहुत कुछ मिल जाएगा और मरणोपरांत भारत रत्न तो पक्का है ही। किन्तु उन बेचारे सवर्ण हिन्दुओं का क्या होगा जो एक हजार साल से सताए जा रहे हैं ? कभी  बौद्धों ,कभी शैवों ,कभी शाक्तों ,कभी शकों ,कभी खिलजियों ,कभी हूणों कभी  मंगोलों ,कभी तुर्कों ,कभी पठानों और कभी अंगर्जों द्वारा निरंतर सताए जाते रहे गरीब  सवर्ण हिन्दुओं को  इतिहास में पहली बार अपने उद्धार की उम्मीद की  जगी थी। विशेष कर  सनातन से सताए जा रहे गरीब  सवर्णों  हिन्दू को यह  आस जगी थी कि अब उनके  भी अच्छे दिन आने वाले  हैं। किन्तु उन्हें यह जानकर अत्यन्त पीड़ा हुई कि वोट की खातिर मोदी जी भी अब  कांग्रेसी पैटर्न  की आर्थिक नीति ही नहीं बल्कि वही पुरानी अन्याय पूर्ण आरक्षण व्यवस्था की भी जमकर पैरवी किये जा रहे हैं।  १४ अप्रेल -२०१६ को अम्बेडकर जयन्ती पर महू  यात्रा इसी  प्रमाण है।  जो लोग  अभी तक हर-हर मोदी ,घर-घर मोदी का नारा लगाते थे वे अब वोट की खातिर 'जय भीम' का नारा लगा रहे हैं। क्या  संघ का यह वास्तविक सिद्धांत  है ? यदि हाँ ,तो करोड़ो  गरीब सवर्ण हिन्दू संघ के लिए अपनी कुर्बानी क्यों दे रहे  हैं  ? यदि  भाजपा  और मोदी जी  भी वही कर रहे हैं जो मायावती,कांग्रेस और अन्य जातिवादी नेता करते  रहे हैं तो 'पार्टी बिथ डिफ़रेंस 'का क्या मतलब ?

हालॉंकि वामपंथ का भी दलितों,आदिवासियों ,महिलाओं और शोषितों के  उत्थान के प्रति  बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा  है। लेकिन हरल्ले यूपीए -प्रथम का साथ देकर बहुत नुकसान  उठाया।  कांग्रेस के नेता खुद तो भृष्टाचार में आकंठ डूबे रहे।  साथ ही कांग्रेस ने आरक्षण वालों को भी इतना ऊपर  चढ़ा दिया कि अब कोई उतरने का नाम ही नहीं लेता। अब मोदी जी को कहना पड़  रहा है कि ''आपका  आरक्षण कोई नहीं छीन सकता ,खुद बाबा  साहिब भी आ जाएँ तो  वो भी दलित-पिछड़ों -आदिवासियों का यह आरक्षण नहीं  छीन सकते ''  मतलब साफ है कि  आरक्षण की  नीति  भले ही दलितों ,आदिवासियों और पिछड़ों की बर्बादी के लिए जिम्मेदार हो किन्तु उसके  बदलाव  की बात करने का साहस किसी में नहीं। केवल वेचारे मोहन  भागवत  ही 'सबके लिए समान अवसर' की बात कर रहे  हैं।  हालांकि मार्क्सवादी भी बहुत पहले से सभी को समान अवसरों की वकालत करते आ रहे हैं ,किन्तु इस दौर में पीएम मोदी जी , समस्त वामपंथी दल  मायावती ,मुलायम,लालू,नीतीश सभी एक ही स्वर में जातीय  आधार पर आरक्षण -जिंदाबाद का नारा लगा रहे हैं। चूँकि यह मुझे ठीक नहीं लग आरहा और मोहन भागवत जो कह रहे हैं यदि वामपंथ का भी वही लक्ष्य है तो इस बात पर मोदी के स्वर में स्वर नहीं बल्कि भागवत के स्वर में स्वर मिलाया जाना चाहिए।मार्क्सवादी दर्शन का सिद्धांत सिर्फ व्यवस्था का चरित्र चित्रण नहीं करता। बल्कि वह बताता है कि किसी खास  व्यवस्था  को  कैसे बदला  जाये ! आर्थिक,सामाजिक ,राजनैतिक हर स्तर  का शोषण कैसे  खत्म हो। मेहनतकशों के काम के घंटे सुनिश्चित हों। उनके शिक्षा ,स्वास्थ्य और मनोरंजन पर ध्यान दिया जाये। समाज में हर किस्म का भेद मिटा दिया जाये।लेकिन आरक्षण और जातीय  विमर्श ने  भारतीय वामपंथ को संसदीय राजनीति के  हासिये पर धकेल दिया है।

विगत बिहार विधान सभा चुनावों के दौरान  मोहन भागवत जी ने कहा था कि  जातीय आधारित आरक्षण की समीक्षा अवश्य होनी चाहिए। उनके इस बयान को लालू यादव ,नीतिश और उनक 'महागठबंधन'के अन्य कुछ  जातिवादी नेताओं ने खूब मिर्च-मशाले के साथ दुष्प्रचारित किया।  मोहन भागवत  के  आरक्षण संबंधी उस  बयान पर मैंने तब भी एक आलेख एफबी पर पोस्ट किया था। जिसका मजमून अभी भी मेरे ब्लॉग पर सुरक्षित है।  मेरे वामपंथी मित्रों को तो मेरा वह आलेख पसंदा आया था किन्तु मोहन भागवत  जी के शिष्यों को और  संघ' के अपढ़ -मूढ़मति लम्पटों को उस पर  आपत्ति थी।  इतना ही नहीं  इस आरक्षण के बबाल पर खुद मोदी जी ने  भी बिहार चुनावों में भागवत जी से उलट  बयान बाजी की थी। अर्थात जो आरक्षण चल रहा है ,उसे जारी रखने की पुरजोर पैरवी की थी। यह बात अलग है कि  इस गुरु अवज्ञा के वावजूद भी मोदी जी [भाजपा +एनडीए]  विहार विधान सभा का चुनाव बुरी तरह हार गए।

अभी -अभी मोहनराव भागवत जी ने फिर दुहराया कि ''जिन्हे आरक्षण मिल रहा है ,और यदि उनमें से कुछ लोग सम्पन्न वर्ग में आ गए हैं , तो वे स्वेच्छा से आरक्षण का लाभ लेना त्याग दें। ताकि दलित -पिछड़े वर्ग के वास्तविक गरीबो को उसका लाभ दिया जा सके।''भागवत जी का यह बहुत उपयोगी और देशभक्तिपूर्ण वयान  केवल संघ के मुखपत्रों तक ही सीमित क्यों रहना चाहिए ?क्या देशभक्ति का ठेका केवल 'संघ' के पास है। क्या  मोहन भागवत  कहेंगे  'इंकलाब जिंदाबाद' तभी उन पर यकीन किया जाएगा  ?  भागवत  जी के  इस बयांन पर वामपंथ और कांग्रेस ने  चुप्पी साध ली। क्यों ? सत्ता पक्ष और  मोदी जी भी अपने गुरु के बिलकुल  विपरीत जा रहे हैं। उनके बयान  तो मायावती,लालू और अन्य जातीयता वादी नेताओं से भी अधिक धाँसू हैं।  आरक्षण के बारे में मोदी जी का अभी का  कथन कुछ  इस प्रकार है ''जिन्हे आरक्षण मिल रहा है ,वे निश्चिन्त रहें ,उन्हें यह हमेशा मिलता रहेगा ,कोई नहीं छीन सकता ,खुद बाबा साहिब भी आ जाएँ तो नहीं चेन सकते ''  मोदी जी अब  न केवल बाबा साहिब अम्बेडकर  की दुहाई दे रहे हैं। अपितु वे १४ अप्रेल -२०१६ को  अम्बेडकर जन्मस्थली महू भी  मध्यप्रदेश के लाखों आदिवासियों-दलितों को इस अवसर पर आरक्षण जारी रखने की सौगंध खाने जा रहे  हैं। जय भीम ! श्रीराम तिवारी

 

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