अभी कुछ दिन पहिले ही क्रिकेट खेलने भारत पधारे पाकिस्तानी टीम के एक खिलाड़ी ने कह दिया कि 'भारत में हमे पाकिस्तान से ज्यादा प्यार मिला '! वन्दे का इतना कहना भर था कि कुछ पाकिस्तानी अंधराष्ट्रवादियों के सीने पर साँप लोटने लगे ! बेचारा आफरीदी सोच रहा होगा कि भारत -पाकिस्तान की जनता और सरकारें अपना-अपना अड़ियल रुख छोड़ें , आगे बढ़ें ,क्रिकेट खेलें ,खुश रहें और प्रगति करें !आमीन !लेकिन इतना अच्छा विचार शैतान को क्यों पसंद होगा ?तत्काल शैतान ने जावेद मियांदाद की खोपड़ी में घुसकर आफरीदी द्वारा प्रस्तुत 'मैत्रीभाव' के अंकुरण पर सल्फ्यूरिक एसिड का पूरा टेंकर ही उड़ेल दिया। उसने तो आफरीदी को नसीहत भी दी है कि सिर्फ क्रिकेट खेलो ! ज्यादा गांधीगिरी मत दिखाओ ! याने पाकिस्तान के आतंकी शिविर क्या सफ़ेद कबूतर उड़ाने के लिए हैं ? इसी तरह भारत का कोई बन्दा जब पाकिस्तान से दोस्ती की बात करता है , यहाँ असहिष्णुता की बात करता है या अल्पसंख्यकों की भावनाओं के सम्मान की बात करता है तो तत्काल कहा जाता है कि 'पाकिस्तान चले जाओ ! यदि दोनों मुल्कों में अमन चाहिए तो पाकिस्तान में और ज्यादा आफरीदी चाहिए और भारत में घर-घर कन्हैया चाहिए !
संस्कृत सुभाषित कहता है ;- ''स्वदेशे पूज्यते राजा ,विद्वान् सर्वत्र पूज्य ते '' । अर्थात राजा या शासक तो केवल अपने देश में ही सम्मानित होता है ,किन्तु विद्वान -बुद्धिजीवी सारे सन्सार में सम्मानित होता है। इस संस्कृत सुभाषित की आधुनिक पेरोडी कुछ इस तरह हो सकती है :-''स्वदेशे पूज्यते शासक ,कन्हैया सर्वत्र पूज्यते '' ! अर्थात इस दौर में संकीर्णता वालों की तूती वेशक भारत में बोल रही है। खास तौर से आसाराम,श्री-श्री ,नित्यानंद जैसे साधु-संतों के डेरों तक ही इसकी महिमा सीमित है। जबकि जेएनयू का छात्र कन्हैया हो या वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया हो ,इनकी तूती सारे संसार में बोल रही है। वृन्दावन के कृष्ण कन्हैया ने द्वापर युग में अपनी युवावस्था में देवराज इंद्र से पंगा लिया था। ब्रिज के ग्वालवालों को इंद्र के बजाय 'गोवर्धन' पर्वत की पूजा का सिद्धांत पेश किया था। और यमुना तथा बृज भूमि की पूजा पर बल दिया था। क्योंकि ये दोनों ही ब्रजवासियों की जीवंतता के प्राकृतिक साधन थे।
जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया भी देश के युवाओं को आधुनिक 'इंद्र' अर्थात पूँजीवादी -साम्राज्य्वाद से सावधान कर रहा है। वह साम्प्रदायिकता रुपी कंस के खिलाफ सिंहनाद कर रहा है। यह जेएनयू का कन्हैया जनवाद रुपी गोवर्धन और धर्मनिरपेक्षता रुपी यमुना के प्रति सम्मान व्यक्त करता है। कन्हैया और उसके जाबाज साथी जब कहते हैं कि 'जेएनयू में हम भारत का झंडा फहराएंगे ,और दुनिया के तमाम देशों के झंडे भी लहराएंगे। वे जेएनयू में पाकिस्तान का झंडा भी लहराएंगे' तो मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। किन्तु जब मैंने गम्भीर -विचार मंथन किया तो मुझे लगा कि जेनएयू छात्र कन्हैया और उसके साथी तो आर्य ऋषियों की बराबरी करने जा रहे हैं। वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह आर्य सिद्धांत के अनुरूप और हिन्दू शास्त्र सम्मत है। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार :
अयं निजः परोवेति ,गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु ,वसुधैव कुटुम्बकम।।
अर्थात :- ये मेरा है ,वो उसका है - इस तरह का अपना -पराया विचार केवल अल्पबुद्धि के मनुष्य ही करते हैं। जबकि उदात्त चरित्र के महानतम लोग समस्त वसुधा को अर्थात सारे सन्सार को अपना कुटुम्ब् मानते हैं। यही सर्वहारा अन्तर्राष्टीयतावाद है। यह केवल मार्क्सवादी सिद्धांत ही नहीं बल्कि भारतीय शास्त्रीय सिद्धांत भी है। कोई भी हिन्दू इस सिद्धांत पर गर्व कर सकता है। क्योंकि मार्क्सवाद और हिन्दू शास्त्रों के अलावा यह संसार के अन्य किसी भी सिद्धांत दर्शन में यह उपलब्ध नहीं है। केवल मार्क्सवाद ही इसकी बराबरी कर सकता है। और उसी विचारधारा से प्रेरित होकर कामरेड कन्हैया कुमार ने जेएनयू में दुनिया के सभी देशों के झंडे फहराने का जो एलान किया है,उस पर जिन्हे आपत्ति होगी वे न तो हिन्दू' हो सकते हैं और न वे राष्ट्रवादी हो सकते हैं। बल्कि कन्हैया का विरोध करने वाले द्वापर में भी पाखंडी -धृतराष्ट्रवादी थे और इस कलयुग में भी जेएनयू के कन्हैया का विरोध करने वाले भी केवल ढोंगी-पाखंडी और महापातकी ही होंगे !भारत में या भारत के बाहर जो लोग दावा करते हैं कि वे 'हिंदुत्व' की रक्षा के लिए कटिबध्द हैं , यदि वे लोग उपरोक्त शास्त्रीय श्लोक के अनुसार आचरण नहीं करते तो घोर पाखंडी हैं। श्रीराम तिवारी !
संस्कृत सुभाषित कहता है ;- ''स्वदेशे पूज्यते राजा ,विद्वान् सर्वत्र पूज्य ते '' । अर्थात राजा या शासक तो केवल अपने देश में ही सम्मानित होता है ,किन्तु विद्वान -बुद्धिजीवी सारे सन्सार में सम्मानित होता है। इस संस्कृत सुभाषित की आधुनिक पेरोडी कुछ इस तरह हो सकती है :-''स्वदेशे पूज्यते शासक ,कन्हैया सर्वत्र पूज्यते '' ! अर्थात इस दौर में संकीर्णता वालों की तूती वेशक भारत में बोल रही है। खास तौर से आसाराम,श्री-श्री ,नित्यानंद जैसे साधु-संतों के डेरों तक ही इसकी महिमा सीमित है। जबकि जेएनयू का छात्र कन्हैया हो या वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया हो ,इनकी तूती सारे संसार में बोल रही है। वृन्दावन के कृष्ण कन्हैया ने द्वापर युग में अपनी युवावस्था में देवराज इंद्र से पंगा लिया था। ब्रिज के ग्वालवालों को इंद्र के बजाय 'गोवर्धन' पर्वत की पूजा का सिद्धांत पेश किया था। और यमुना तथा बृज भूमि की पूजा पर बल दिया था। क्योंकि ये दोनों ही ब्रजवासियों की जीवंतता के प्राकृतिक साधन थे।
जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया भी देश के युवाओं को आधुनिक 'इंद्र' अर्थात पूँजीवादी -साम्राज्य्वाद से सावधान कर रहा है। वह साम्प्रदायिकता रुपी कंस के खिलाफ सिंहनाद कर रहा है। यह जेएनयू का कन्हैया जनवाद रुपी गोवर्धन और धर्मनिरपेक्षता रुपी यमुना के प्रति सम्मान व्यक्त करता है। कन्हैया और उसके जाबाज साथी जब कहते हैं कि 'जेएनयू में हम भारत का झंडा फहराएंगे ,और दुनिया के तमाम देशों के झंडे भी लहराएंगे। वे जेएनयू में पाकिस्तान का झंडा भी लहराएंगे' तो मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। किन्तु जब मैंने गम्भीर -विचार मंथन किया तो मुझे लगा कि जेनएयू छात्र कन्हैया और उसके साथी तो आर्य ऋषियों की बराबरी करने जा रहे हैं। वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह आर्य सिद्धांत के अनुरूप और हिन्दू शास्त्र सम्मत है। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार :
अयं निजः परोवेति ,गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु ,वसुधैव कुटुम्बकम।।
अर्थात :- ये मेरा है ,वो उसका है - इस तरह का अपना -पराया विचार केवल अल्पबुद्धि के मनुष्य ही करते हैं। जबकि उदात्त चरित्र के महानतम लोग समस्त वसुधा को अर्थात सारे सन्सार को अपना कुटुम्ब् मानते हैं। यही सर्वहारा अन्तर्राष्टीयतावाद है। यह केवल मार्क्सवादी सिद्धांत ही नहीं बल्कि भारतीय शास्त्रीय सिद्धांत भी है। कोई भी हिन्दू इस सिद्धांत पर गर्व कर सकता है। क्योंकि मार्क्सवाद और हिन्दू शास्त्रों के अलावा यह संसार के अन्य किसी भी सिद्धांत दर्शन में यह उपलब्ध नहीं है। केवल मार्क्सवाद ही इसकी बराबरी कर सकता है। और उसी विचारधारा से प्रेरित होकर कामरेड कन्हैया कुमार ने जेएनयू में दुनिया के सभी देशों के झंडे फहराने का जो एलान किया है,उस पर जिन्हे आपत्ति होगी वे न तो हिन्दू' हो सकते हैं और न वे राष्ट्रवादी हो सकते हैं। बल्कि कन्हैया का विरोध करने वाले द्वापर में भी पाखंडी -धृतराष्ट्रवादी थे और इस कलयुग में भी जेएनयू के कन्हैया का विरोध करने वाले भी केवल ढोंगी-पाखंडी और महापातकी ही होंगे !भारत में या भारत के बाहर जो लोग दावा करते हैं कि वे 'हिंदुत्व' की रक्षा के लिए कटिबध्द हैं , यदि वे लोग उपरोक्त शास्त्रीय श्लोक के अनुसार आचरण नहीं करते तो घोर पाखंडी हैं। श्रीराम तिवारी !
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