मंगलवार, 29 मार्च 2016

फासीबाद का दानव -किसी कल्कि अवतार के रूप में घोड़े पर बैठकर नहीं आयेगा !

किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र  के प्रबुद्ध लोगों में  व्यक्तिगत अथवा सांस्थानिक वैचारिक मतभिन्नता जायज है। किन्तु  इस वैचारिक असमानता का मतलब संवादहीनता ,अबोलापन  या दुश्मनी नहीं होना चाहिए। यदि कोई दक्षिणपंथी ,प्रतिक्रियावादी भी वही  तथ्य या सिद्धांत पेश करता है जो वैज्ञानिकवादी ,तर्कवादी, प्रगतिशील और मानवतावादी दृष्टिकोण के वामपंथी बुध्दिजीवी  प्रस्तुत करते हैं ,तो इसे एक सकारात्मक उपलब्धि के रूप में स्वीकार  किया जाना चाहिए ! यदि दोनों पक्ष एक ही 'सापेक्ष सत्य' के पक्षधर हैं तो ईर्ष्या  और अटल विरोध की तलाश अनुचित है। यदि  दोनों पक्ष एक दृष्टिकोण के नहीं भी हैं तो इसमें  अनहोनी कोई  बात नहीं। क्योंकि  प्रत्येक  द्वन्दात्मक संघर्ष का मौजूदा 'कार्य' प्रत्येक अगले नए 'कार्य ' का 'कारण' बनता है। कार्य-कारण रुपी दो विपरीत ध्रुव ही  किसी सकारात्मक परिणाम की द्वन्दात्मक केमिस्ट्री के मूल रासायनिक तत्व हुआ करते हैं। अतः राजनीतिक  मतभिन्नता को स्थाई दुश्मनी जैसा कदापि नहीं मानना चाहिए। संवाद की निरंतरता और सामूहिक हितों की स्वीकार्यता ही  लोकतत्र और मानव सभ्यता के उत्कृष्ट आभूषण हैं। धरती आसमान या किसी खास व्यक्ति अथवा संगठन के नारे लगने पर दुनिया  की गति  निर्भर नहीं है। ह्रदय की विशालता और उत्सर्ग  का जीवन ही सच्चा  राष्ट्रवाद है।

'भारत माता की जय ' के  संदर्भ में संघ सरसंघचालक श्री मोहन  भागवत ने अभी-अभी कहा है कि '' यह नारा किसी पर भी  जबरन थोपने की जरूरत नहीं है । हमें ऐंसा महान समृद्ध भारत बनाना है जहाँ दुनिया के तमाम लोग स्वतः ही 'भारत माता की जय ' बोलने  में गर्व महसूस करें । भारत को  विश्व का मार्गदर्शन करना है। हम भारतवासी किसी को जीतना या हराना नहीं चाहते। हम अपनी पद्धति ,अपने विचार किसी पर जबरन थोपना नहीं चाहते। हम तो सभी को अपना मानते  हैं ! '' यह  हृदय की विशालता नहीं तो और क्या है ? यदि  भागवत जी यह बयान तभी दे देते ,जब उनकी  काले कोट वाली केसरिया पलटन  पटियाला हॉउस कोर्ट के अंदर कन्हैया की पिटाई  कर रही थी! तब  उनका सरपरस्त जीन्यूज  छाप मीडिया भी झूँठ  और बदचलनी का भागीदार नहीं बनता। तब जेटली ,बैंकैया और राजनाथ की अगुवाई में  जो कुछ हुआ वह हस्तिनापुर को नहीं देखना पड़ता। तब जेएनयू के रणांगण में अनुपम खैर को गांडीव और रोहित वेमुला के लिए सुब्रमण्यम  स्वामी को टूटे हुए रथ का पहिया नहीं उठाना पड़ता।

 भागवत जी के  उपरोक्त  अनमोल बचन  ही यदि  हिंदुत्व की धुरी  हैं और यदि उनके श्री मुख्य से  'संघ' का हिंदुत्ववाद  ही  अभिव्यक्त हो रहा है ,तो  ऐंसे हिंदुत्ववाद से  किसे एतराज हो सकता है ? लेकिन  प्रेक्टिकल अनुभव  बता रहा है कि  हिंदुत्व के केंद्र में  तो सत्ता पाकर  बौराए हुए  कुछ  विध्वंशक लोग  विराजमान हैं। वे  वही सब धतकरम  किये जा रहे हैं जो  देश की अमन पसंद जनता को मंजूर नहीं।  सत्ता में बैठे लोगों का चरित्र  श्री मोहन भागवत जी के उपरोक्त शब्दों से मेल  नहीं खाता।  कुछ स्वयम्भू 'राष्ट्रप्रेमी' लोग 'असहिष्णुता' के विमर्श  को लेकर 'भारत माता की जय 'के नारे को लेकर अपने ही हमवतन लोगों पर  विषवमन किये जा रहे हैं। वे अपने आपको महान हिन्दुत्ववादी व  देशभक्ति का प्रमाण पत्र प्रदाता समझ बैठे  हैं। जेएनयू समेत देश के तमाम  विश्वविद्यालयों में छात्रों - प्रोफेसरों से और कुछ असदुद्दीन औवेसी जैसे दीगर लोगों से भी  जबरन  ''भारत  माता की जय '  बुलवाने के बहाने  वे अपने  'राजधर्म ' से पदच्युत होते जा रहे हैं। जबकि भागवत जी  अपने तयशुदा  एजेंडे को  बहुत खूबसूरती और कलात्मकता से आगे  रहे हैं।  लेकिन कतिपय ढोंगी स्वामी और भोगी -योगी लोग  हिंदुत्व की इस  बहती गंगा को गन्दा कर  रहे हैं। नकली राष्ट्रवाद और काल्पनिक देशद्रोह के  बहाने कुछ  अदूरदर्शी  हिन्दुत्ववादी  लोग  अल्पसंखयकों को चिढ़ा रहे हैं। चूँकि  भागवत जी भारतीय ह्रदय की विशालता का परिचय दे रहे हैं।  भारत राष्ट्र के लिए यह सुखद सन्देश और अमन  का पैगाम जैसा है।

मोदी सरकार की मजबूरी तो समझ में आती हैं कि आर्थिक मोर्चे पर असफल होने के बाद ,विदेश नीति पर विफल होने के बाद  उस के 'इंतजाम अली' और 'तरफदार'  लोग जनता का ध्यान बटाने के लिए कभी राष्ट्रवाद' कभी बीफ काण्ड' कभी 'देशद्रोह' और  कभी 'भारत माता  की जय ' का उद्घोष करते रहते हैं। किन्तु  यह नितांत समझ से परे  है कि शोषित -पीड़ित मजदूर ,ईमानदार कर्मचारी,अल्प आय वर्ग का निर्धन किसान ,छोटी पूँजी का व्यवसायी इस सरकार की गलत नीतियों पर चुप क्यों है ?  जाति -मजहब  के  फसादों पर तो यह नरमेदनि  बहुत वीरता  दिखाती है। किन्तु  अपने सामूहिक हितों और राष्ट्र की वास्तविक चेतना पर वह न तो  श्री मोहन भागवत  को सुन पाती है और न ही वह वामपंथ  की वर्ग चेतना को समझ पा रही है। यह  अतयन्त जटिल प्रश्न है कि अनवरत शोषण का शिकार -अत्याधुनिक तकनीक से लेस  किन्तु असुरक्षित भविष्य वाला परमुखापेक्षी   आधुनिक युवा वर्ग 'संघर्ष' की चेतना से लेस क्यों नहीं हो पा रहा है ?  प्रायवेट सेक़्टर में जिनकी आजीविका असुरक्षित है ,जो अधिकतम काम के घंटों का बोझ  ढोये चले जा रहे हैं ,जिन्हे चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है , बुढ़ापे में पेंशन जैसी कोई गारंटी नहीं है वे युवा अपनी ही पीढ़ी के सवालों पर मौन  हैं।  रिश्वतखोरी ,व्यापम , भृष्टाचार  और कुशासन  के कारण जिनका इस  सिस्टम में जीना मुहाल हो गया है ,वे आक्रोश व्यक्त करने के लिए  क्या किसी ज्योतिषी का इन्तजार कर  रहे हैं ? ये  शोषण के शिकार लोग अपनी चिंता को भगवान भरोसे छोड़कर आपराधिक सिस्टम और सरकार की तरफदारी किये जा रहे हैं।

 ''भारत में लोकतंत्र की  जड़ें काफी मजबूत हैं ,यहाँ फासीवाद कभी नहीं आ पाएगा '' संघ  प्रमुख श्री मोहनराव  भागवत  ने  विगत दिनों जब यह महत्वपूर्ण  बयान दिया तो मीडिया ने इसका कोई  खास संज्ञान नहीं लिया ।  देश की किसी नामचींह  राजनैतिक  हस्ती ने  भी इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। सोशल मीडिया तो   मानों  असहिष्णुता  का उगालदान बन कर  रह गया है  ,इसलिए वह  इस मामले में  गाफिल ही रहा है।सवाल उठना चाहिए कि  क्या भागवत जी ने  कोई फ़ालतू बात कही है ? क्या उन्होंने  कुछ गलत कह दिया ? यदि हाँ ! तो उसका  तार्किक विरोध  क्यों नहीं किया गया । और यदि भागवत  जी ने उचित कहा है तो  उनके उस  बयान का  समर्थन  करने  में  संकोच क्यों  ? विपक्षी कांग्रेस और  अन्य दलों ने  भी इस बयान का संज्ञान नहीं लिया ।  हो सकता है कि  भागवत जी के बयान को 'संघ' के एक  पदाधिकारी का बयान  मानकर उसे  राजनैतिक महत्व  देना मुनासिब न समझा  गया हो  !  वैसे भी  खुद संघ  वालों का  ही  कहना है कि उनका यह संगठन तो नितांत 'अराजनैतिक' है। सभी जानते हैं कि  यह सच नहीं  है। वास्तव में  संघ का प्रत्येक  कार्यकर्ता  और पदाधिकारी  पूर्णकालिक राजनीतिक प्राणी है।ये बात जुदा है कि कुछ नादान  लोगों को यह  गलतफहमी है कि वे इस असत्य आचरण की बदौलत अर्थात  राजनैतिक मिथ्याचार की ओट में  उस अभीष्ट को प्राप्त कर लेंगे जो  भारतीय  इतिहास  का स्वर्णयुग कहा जाता है ! हालाँकि वह स्वर्ण युग अभी तो इतिहास के  सामन्तकालींन डरावने  कूड़ेदान में धुल धूसरित पड़ा है। लेकिन मोहन भागवत जी बाकई  विद्वान हैं ,तभी तो उन्होंने भारत के भाल पर काल का लिखा  यह सन्देश पढ़ लिया कि 'भारत  में  फासीबाद की कोई सम्भावना नहीं है।

  भारत का अतीतजीवी पुरोगामी वर्ग अभी भी बहुतायत में  भारतीय कानून ,संविधान और  न्याय व्यवस्था को तभी तक  मान्य करता  है जब तक  कि उन्हें हर किस्म की अनुकूलता और सहूलियत रहे। अन्यथा  वक्त आने पर तो संघ -समर्थक वकील भी कानून को ठेंगा दिखाने लगता है। वह क़ानून का जानकार होकर भी   कोर्ट में ही जेएनयू छात्र कन्हैयाकुमार  की मार कुटाई करने लग  जाता  है। निर्दोष या आरोपी की  पिटाई पर शर्मिंदा होने के बजाय  वह गौरवान्वित भी होता है। वकील होने के वावजूद वह नकली 'हिन्दुत्ववादी' निहायत अराजक -गुंडा बनकर देश और दुनिया के सामने सीना ताने खड़ा है ,मानों सीमा पर शत्रुओं को मारकर अभी-अभी लौटा हो !यह प्रवृत्ति केवल हिंदुत्ववादियों तक ही सीमित नहीं है। इस्लामिक  जगत का तो और भी बुरा हाल है। उधर  तो दोनों तरफ से अक्ल का दिवाला निकल चुका  है। एक तरफ परसनल लॉ  के  बहाने  भारतीय संविधान और परम्परा से  हटकर उन्हें सब कुछ  चाहिए। दूसरी तरफ कुछ मजहबी कटटरपंथी कुछ ऐंसा जरूर करते फिरते  रहते हैं कि 'संघ परिवार' और फासीबाद को खाद पानी भी  मिलता रहे। इस तरह की अराजकता  किसी अन्य इस्लामिक मुल्क में नहीं देखी  जा सकती है। वे समझते हैं की अल्पसंख्यक वोट ध्रुवीकरण से इस धर्मनिरपेक्ष मुल्क भारत में  'जिहाद' को तामील कर लेंगे ,तो यह उनकी खामख्याली ही होगी। बल्कि आतंकी और जेहादी हरकतों का परिणाम भुत उलटा और घातक होगा। अल्पसंख्य्क वर्ग जितना  ज्यादा टेक्टिकल वोट करेगा और राष्ट्रवाद का मखौल उड़ाएगा  हिन्दुत्बाद  'उतना ही उद्दाम और प्रचण्ड होता  चला जाएगा। तब मोहन भागवत भी फासीबाद की आमद को नहीं रोक पाएंगे।मोदी जी तो बहुत ही सहिष्णु और उदार हैं ,कोई और बन्दा हिंदुत्व का आश्रय पाकर 'हिटलर' बन जाए तो कोई अचरज नहीं।

जो लोग विदेशी पूँजी की भीख मांग मांगकर देश का अर्थतंत्र चला रहे हैं और कारपोरेट पूँजी के निर्देश पर सरकार चला रहे हैं , वे  डॉ मनमोहनसिंह से जयादा देशभक्त  कैसे हो गए ? वे श्री मोहन भागवत से ज्यादा देशभक्त हैं क्या ? वेशक मोहन भागवत जी नितांत लोकतान्त्रिक  और सहिष्णुतावादी हस्ती हैं । लेकिन मोहन भागवत जी जब सत्ता पक्ष द्वारा वर्ती जा रही असहिष्णुता और अभिव्यक्ति  की आजादी पर हो रहे हमलों  पर मौन रहते हैं तो धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र समर्थकों में  चिंता व्याप्त  होना स्वाभाविक है।वे अलोकतांत्रिक घटनाओं पर  भी चुप रहते हैं। क्या उनके संगठन या सरकार में कोई ऐंसा है जो उनसे भी पर है ? यदि नहीं तो वे अन्य मामलों में चुप क्यों हैं ? भले ही वे विशुद्ध राजनीति से अलग हैं किन्तु देश के नागरिक की हैसियत से वे सही -गलत का समर्थन या निषेध तो कर ही सकते हैं !भारत के वर्तमान प्रधान मंत्री  नरेंद्र मोदी  भी पंडित नेहरू ,इंदिराजी और अटलजी जैसे पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष और विज्ञानवादी -तर्कवादी  जैसे ही  दिखते हैं। किन्तु उनकी भी हिम्मत नहीं कि  इस दौर की  'सत्ता जनित अराजकता' को  वे काबू में रख  सकें ! रोक पाना तो दूर की बात  है वे  इन अप्रिय घटनाओं पर  अपनी नाखुशी भी जाहिर नहीं करते। इतिहास साक्षी है कि  फासीबाद की आमद के अशुभ लक्षण  यही हैं।  फासीबाद रुपी दुष्ट दानव कोई  कल्कि अवतार के रूप  में घोड़े  पर बैठकर  नहीं आयेगा !  भागवत  जी या मोदी जी से किसी को कोई खतरा भले न हो ,किन्तु खतरा उस विचारधारा से है  जो जेएनयू  छात्र नेता कन्हैया कुमार को - पटियाला कोर्ट में पीटने वाले वकीलों  की है।

 संघ प्रमुख मोहन  भागवत जी व्यक्तिगत रूप से भले और सज्जन व्यक्ति हो सकते हैं । उनके बयान भी शुद्ध मानवतावादी और  सरलता सादगी से ओतप्रोत हो सकते हैं। किन्तु यह समझ से परे  है कि  संघ के अनुषंगी संगठनों या नेताओं ने उनकी इस 'फासीवाद' विषयक महत्वपूर्ण स्थापना को नजर अंदाज क्यों किया ?  ऐंसा लगता है कि सत्ता वालों को  तो फुरसत  ही नहीं कि वे मोहन भागवत की शिक्षाओं और उपदेशों पर ध्यान दें । उन्हें कन्हैया ,बेमुला को मारने -पीटने और गरियाने से फुरसत मिले तो वे श्री मोहनराव भागवत के निर्देशों को सुने -समझे या पढ़ें! हालाँकि  संघ में शायद  'सरसंघ चालक 'के विरोध का  कालम  ही नहीं है। किन्तु समर्थन का वयान तो दिया  ही जा सकता है ।फिर मोदी सरकार ने और भाजपा ने  भागवत जी के आरक्षण वाले बयान अथवा 'फासीबाद' वाले बयान का समर्थन क्यों नहीं किया ? यदि संघ प्रमुख  मोहन भागवत जी के  बयांन इस देश की  बहुसंख्य जनता को आशान्वित करते हैं कि इस देश में  'फासीबाद की कोई सम्भावना नहीं ' तो इस देश के  अल्पसंखयकों को भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए कि वे  जेहाद ' के लिए नाहक हलकान होते रहें !

श्री मोहन भागवत जी एक विराट 'अराजनैतिक संस्था 'के प्रमुख हैं,उनके बयांन गलत है तो विरोध कीजिये! किन्तु यदि सही है तो समर्थन  कीजिये ।  किस भी लोकप्रिय व्यक्ति या संस्था के सही -गलत बयानों और उनकी नीतियों की अनदेखी  महज इसलिए नहीं की जानी चाहिए  कि  वह आपको अप्रिय  हैं ! सापेक्ष सत्य के बरक्स जो लोग  वैचारिक तठस्थता का पाखण्ड  करते हैं  उनका अपराध  क्षम्य नहीं है।  इस दौर के भारत में   दक्षिणपंथी विचार और नीतियाँ  को समाज पर जबरन  लादने का 'दुष्कर्म' केवल भाषणों तक सीमित नहीं हैं। बल्कि यह भारत  का दुर्भाग्य है कि इस लोकतंत्र की महानता का बखान करने वाले लोग ही अभिव्यक्ति पर पहरे  बिठा रहे हैं।  आवाम को क्या बोलना है ,कैसे रहना है ,कैसे खाना -पीना है ,क्या पहिनना और क्या ओढ़ना है ,यह सब सांस्थानिक रूपसे निर्देशित करने और नहीं मानने पर 'देशद्रोही' कर्रा देने की हठधर्मिता के लिए जो विचारधरा जिम्मेदार है ,यदि उसी विचारधारा का प्रमुख कहे कि  'डरो मत ,फासिज्म नहीं आएगा ,हम हैं ना ' तो इस मासूम सी सूरत पर कौन  फ़िदा नहीं हो जाएगा। कोई हो न हो ,अपन को तो भागवत जी कुछ-कुछ भा गए हैं। लेकिन सिर्फ उतने ही भागवत जी मुझे पसंद हैं जो 'फासीबाद'नहीं आने की बात करते हैं। बाकी के भागवत जी  तो उनके हैं जिनसे देश  के लोकतंत्र को और देश की आवाम को खतरा है। इस विमर्श में यह पक्ष भी काबिले गौर है  कि  पूँजीवादी  व्यवस्था का जो  एकमात्र विकल्प है ,उस जनता की जनवादी क्रांति को भी वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नजर लग गयी हैं।

  पिछली शताब्दी  के उत्तरार्ध में चीन के महानायक कामरेड  देंग शियाओ पिंग  ने कहा था ''बिल्ली काली हो या सफ़ेद यदि चूहे मारती है तो काम की है ''! अभिप्राय साफ़ है कि समाज के सभी वर्गों को शोषण मुक्त करने का  काम वामपंथ को  शिद्द्त से करना चाहिए।  यदि  वामपंथ या  मार्क्सवाद के सिद्धांतों की चीटिंग करके कोई पूँजीवादी  सम्प्रदायिक किस्म का राजनीतिक मुन्ना भाई  या उसका गिरोह देश में खुशहाली लाता है तो देश की आवाम फासिज्म को भूल जाएगी।  गुलाम मानसिकता में जीने की तमन्ना रखने वाले लोग ही अभिव्यक्ति की आजादी छिन  जाने पर  चुप रह सकते हैं। खुशहाल निरापद जीने की आजादी और लिखने पढ़ने की आजादी का हनन करना और 'एकचालुकानुवर्तित्व' का जबरन अंधानुकरण  ही फासिज्म का अधुनातन अवतार है।

    
 श्रीराम तिवारी


 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें