राज्य सभा में विपक्ष के नेता और वरिष्ठ कांग्रेसी गुलाम नबी आजाद ने 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ' की तुलना खूँखार इस्लामिक जेहादी संगठन 'आईएसआईएस' से की है। 'संघ परिवार'वाले तो गुलाम नबी आजाद के इस वयान से कदापि सहमत नहीं होंगे। और यह कोई अचरज की बात भी नहीं है ! यह तो सनातन की रीति है कि जो कांग्रेस वाले बोले वो भाजपा और संघ परिवार को मंजूर नहीं। और जो भाजपा या संघ वाले बोलें वो कांग्रेस को भी मंजूर नहीं ! अभी हाल ही में जनाब गुलाम नबी आजाद ने 'जमीयत उलेमा -ए - हिन्द द्वारा आयोजित समारोह के मंच से उपरोक्त तुलना की है। स्वाभविक है कि आजाद के इस वयान का कांग्रेस तो समर्थन करेगी किन्तु 'संघ परिवार' इसका विरोध करेगा ! लेकिन आजाद के इस वयान का एक तीसरा आयाम भी है जिसका विहंगावलोकन बहुत जरुरी है।
वर्तमान एनडीए सरकार की प्रमुख घटक भाजपा को लोक सभा चुनाव में २८२ सीटें प्राप्त हुई थी। जबकि वोट सिर्फ ३१% ही मिले हैं। जाहिर है की यह सारी पुण्याई 'संघ' की है। वोटों के हिन्दुत्ववादी धुर्वीकरण के परिणाम स्वरूप आज पूरा भारत 'संघ' के कब्जे में है। संघ और भाजपा को यह उपलब्धि भी लोकतान्त्रिक तरीके से प्राप्त हुई है। इस विराट उपलब्धि के लिए संघ को ९० साल इन्तजार करना पड़ा है। समस्त हिंदूवादी संस्थाएं ,साधु-संत ,बाबा,स्वामी ,श्री-श्री सबके सब 'संघ' की सेवा में ही दिन रात जुटे हैं। यदि दो-चार वामपंथी बुद्धिजीवियों की हत्या को अपवाद मान लिया जाये तो बाकी अधिकांस मामलों में 'संघ' ने बिना हिंसा के ही यह लक्ष्य प्राप्त किया है। इतनी विराट उपलब्धि के बाद संघ को आईएसआईएस बनने की क्या जरूरत है ? आईएसआईएस के समर्थन में दुनिया का एक भी प्रतिष्ठित मुस्लिम धर्म गुरु या उलेमा नहीं है। आईएसआईएस के पास महज कुछ तेल के कुए और एक दो शहर ही हैं। इसके अलावा उनके खिलाफ सारा यूरोप,अमेरिका रूस और नाटो देश भी हैं। जबकि संघ के खिलाफ दुनिया का कोई देश नहीं है।
आईएसआईएस वालों के विमर्श में सामूहिक नर संहार और जेहाद दृष्ट्व्य है ,जबकि बेचारे संघ वालों को तो उनके मोदी राज में भी अपने इष्ट भगवान श्रीराम को 'टाट' में रखना पड़ रहा है। संघ वालों का शील ,शौर्य , धैर्य और वैचारिक दरिद्रता का आलम ये है कि गणवेश के खाकी हॉफ पेंट से भूरे फुलपेंट तक आने में उन्हें ७० साल लग गए। आइएसआईएस तो इतने साल तक जिन्दा भो नहीं रहेगा ! फिर न जाने क्या सोचकर गुलाम नबी आजाद ने संघ की तुलना आईएसआईएस से की होगी ?वैसे भी आईएसआईएस तो नरभक्षी -आदमखोर शेर है जिसकी तुलना उस 'संघ' से नहीं की जा सकती जो पूँजीपतियों से गुरु दक्षिणा लेकर गौ,गंगा ,गायत्री और भारत माता की जय बोलते हैं। और जब संघ के कृपापात्र एनडीए वाले चेले सत्ता में आ जाते हैं तो वे भी अम्बानी,अडानी से ज्यादा और कुछ नहीं सोच पाते।
राजनीति का साधारण कार्यकर्ता भी यह समझता है कि 'नमक से नमक नहीं खाया जाता ' आप खुद गुड खाकर दूसरों से गुलगुलों का परहेज नहीं करा सकते ! ताज्जुब की बात है कि ४० साल तक कांग्रेस संगठन और सत्ता की राजनीति में आकंठ डूबे रहे गुलाम नबी आजाद को ततसंबंधी ज्ञान नहीं है। जब उनके राजनैतिक ज्ञान का यह आलम है तो उन जैसों पर निर्भर रहने वाले राहुल गांधी का तो ईश्वर -अल्लाह ही मालिक हो सकता है। जनाब गुलाम नबी आजाद यदि एक विशेष 'साम्प्रदायिक मंच 'पर जाकर किसी अन्य साम्प्रदायिक संगठन की ओर अंगुली उठाएंगे तो क्या यह उनकी और कांग्रेस की ततसंबंधी वैचारिक सोच का दिवालियापन नहीं होगा ? भारत की जनता इतनी भी मंदमति नहीं है कि इस पक्षपाती धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़ा नहीं कर सके !
वेशक ! जिस जमीयत उलेमा -ए -हिन्द के मंच से गुलाम नबी आजाद 'संघ' पर निशाना साध रहे थे ,उसकी तुलना अवश्य 'संघ' से की जा सकती है। किन्तु आईएसआईएस से 'संघ' की तुलना करना निहायत ही कोरी गप्प है। आजाद को मालूम हो कि आईएसआईएस और संघ में सिर्फ इतनी समानता है कि दोनों ही संगठन - अक्ल के दुश्मन हैं। अर्थात दोनों को वैज्ञानिक नवाचार कदापि पसंद नहीं। और सरल शब्दों में कहा जाये तो ये दोनों ही संगठन साइंस -टेक्नॉलॉजी का उपभोग तो जमकर करते हैं किन्तु अपने पुरातन अवैज्ञानिक संकीर्ण - दकियानूसी विचारों को अभी भी सलीब की तरह कंधे पर लादे हुए भटक रहे हैं। किस भी बिचार या तथ्य को वैज्ञानिक नजरिये से देखना उन्हें मंजूर नहीं। सैकड़ों -हजारों साल पुरानी काल्पनिक मान्यताओं की मृतप्राय बंदरिया को ये लोग अभी भी सीने से चिपकाये हुए हैं। जो इनको प्रगतिशीलता या नवाचार सीखने की बात करता है ,वे उसे राष्ट्रद्रोही , नास्तिक या काफिर करार देते हैं। बस इतनी ही समानता इन दोनों संगठनों में है। इसके अलावा 'संघ' और आईएसआईएस में कोई समानता नहीं है ! संघ यदि पूर्व है तो आईएसआईएस पश्चिम है।
इस्लामिक संगठनों के उद्भव ,उनके आंतरिक - बाह्य संघर्षों का इतिहास उतना ही पुराना है ,जितना पुराना इस्लाम का इतिहास है। मुहम्मद पैगंबर हुजूर [सल.]के जन्नतनशीं होने के उपरान्त उनके उत्तराधिकारियों और सपरिजनों के आंतरिक संघर्ष का कारण महज वैयक्तिक नहीं था। बल्कि 'खिलाफत 'के उस द्वन्द के मूल में वैचारिक और सांगठनिक अन्तर्द्वन्द भी था। जिसका रक्तरंजित उद्दीपन कर्बला के मैदान में कुछ ज्यादा ही परिलक्षित हुआ। और उस कबीलाई संघर्ष का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इसके अलावा इस्लाम से बाहर की दुनिया में भी 'काफिरों' के खिलाफ 'जेहाद' जारी है। इस असहिष्णुतावादी छुद्र अवधारणा से संसार का हर सभ्य समाज और अमनपसंद इंसान भली भाँति परिचित है। यदि गुलाम नबी आजाद यह सब बाकई नहीं जानते तो यह उनकी अज्ञानता है। और यदि जानते हैं ,किन्तु मानते नहीं तो यह उनकी बेईमानी है। आईएसआईएस तो उस रक्तरंजित परम्परा का आधुनिक संस्करण मात्र है। अलकायदा जैसे धूमिल हो चुके संगठनों की गर्म राख में से जन्मा आईएसआईएस - इस्लामिक जेहाद के द्वन्द का बहावी संस्करण मात्र है। बोको हरम ,तालिवान , जेश-ए -मुहम्मद और पीएलआई जैसे अन्य सैकड़ों आतंकी संगठनों से इतर आईएसआईएस को कुछ आंशिक कुख्याति इसलिए मिली कि उसके कब्जे में - इराक,सीरिया में तेल के कुए फ्री कोकट आ गयेहैं ।
इस्लामिक आतंकवाद के सापेक्ष संघ याने आरएसएस का इतिहास उतना अधिक पुराना नहीं है। संघ का चरित्र भी आईएसआईएस जैसा आक्रामक और हिंसक नहीं है। वेशक संघ के लोग 'बड़बोलेपन' की आदत के सिंड्रोम से जरुर पीड़ित कहे जा सकते है। वे झूंठी अफवाह फ़ैलाने ,अल्पसंख्यकों-दलितों-कम्युनिस्टों और धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील लोगों को 'राष्ट्रद्रोही' बताने में बदनाम हो सकते हैं । वे देशभक्ति के नाम पर भारत के नौनिहालों को फासीवाद की 'जन्म घुट्टी' पिला सकते हैं। वे बुद्धिजीवियों को भी गरिया सकते हैं ,किन्तु संघ के लोग आईएसआईएस की बराबरी नहीं कर सकते हैं। हालाँकि 'संघ' वाले कभी-कभी अपने आपको संविधान से भी ऊपर मान बैठते हैं। मात्र ३१% हिन्दुओं के वोट पाकर जब वे सत्ता में आ सकते हैं तो उन्हें क्या गरज पडी कि आईएसआईएस जैसा खून खराबा करते फिरें ? वेशक वे राज पाकर भी खुद राज नहीं करते बल्कि चेले-चपाटों से चलवाते हैं। संघ को लगता है कि 'अतिथि देवो भव' के आप्त वाक्य ने उनके पूर्वजों को गुलाम बना दिया था ,इसलिए अब वे हर विदेशी को शक की नजर से देखते हैं।
संघ वाले तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि विभाजन और आजादी के उपरान्त जो कुछ बचा -खुचा खंडित भारत उन्हें विरासत में मिला है उसे कोई और नुक्सान न पहुंचाये ! उन्हें पाकिस्तान की इस्लामिक स्थापना पर भी एतराज है कि जब इस्लाम के नाम पर अलग राष्ट्र ले ही लिया है तो अब खंडित भारत को तो बख्स दो। कुछ साल पहले तक 'हिन्दू राष्ट्र' ,हिंदुत्व ,अखंड भारत ,धारा -३७०,यूनिफार्म सिविल कोड इत्यादि पर संघ के बड़े-बड़े दावे रहे हैं ,किन्तु एनडीए एक -याने अटल सरकार और एनडीए दो -याने मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद वे शायद अपनी कमजोरियों को पहचान गए हैं। अतः अब मुसलमानों को साधने के लिए इंद्रेशकुमार ,सुधांशु कुलकर्णी जैसे लोग जुटे हैं। अम्बेडकरवादियों को साधने में खुद मोदी जी ही जुट गए हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों की अहमियत को वोट की मजबूरी में या समझदारी में साधा गया -ये तो वक्त ही बताएगा। किन्तु इसमें ऐंसा कुछ नहीं कि गुलाम नबी आजाद ने जो संघ की तुलना आईएसआईएस से की है वो सिरे से ही बकवास है।
यदि संघ के लोग अब कुछ -कुछ व्यावहारिक बात करने लगे हैं तो इसमें कौनसी आफत आ गयी। यदि विचारधारा संस्थापन के लिए कम्युनिस्ट आजाद हैं ,समाजवादी आजाद हैं ,दलितवादी आजाद हैं ,ओवेसी जैसे लोग भी आजाद हैं, तो संघ को उसकी जूनी - पुरानी साम्प्रदायिक विचारधारा' के व्यामोह से कैसे रोका जा सकता है? वैसे भी संघ ने इस सिस्टम से बहुत कुछ समझोता कर लिया है। यही वजह है कि 'राम मंदिर ' के लिए अदालत के सम्मान की बात होने लगी है। यही कारण है कि जम्मू कश्मीर में जब खंडित जनादेश आया तो संघ ने राम माधव को पीडीपी +भाजपा की सरकार बनवाने भेज दिया। जब कश्मीर में भारत विरोधी नारे क्लेगे और भाजपा वालों के सामने लगे तो 'संघ' को और मोदी जी को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पडी। मोदी जी ने सुशासन और विकास का नारा देकर इन नारों को नकार दिया। और तभी यह सिद्ध हो गया कि संघ ने अतीत का व्यामोह छोड़ दिया है। खुद मोदी जी भी संघ के एजेंडे पर कोई बात नहीं करते, बल्कि विकास और सुशासन पर ही अपना ध्यान केंद्रित किये हुए हैं। क्या इस तरह के नरमपंथी अहिंसक साम्प्रदायिक संगठन 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' की तुलना उस आईएसआईएस जैसे खूँखार -बर्बर संगठन से की जा सकती है ?
वेशक हिंदुत्वादियों पर कई बार हिंसा फ़ैलाने और असहिष्णुता के आरोप लगे हैं। कुछ नेता ,विधायक और मंत्री भी दागी हो सकते हैं। यह भी समभव है कि वे अपने उग्र व्यवहार और साम्प्रदायिक उन्माद की धुन पर कुछ भोले भाले लोगों को नाचने पर मजबूर करते रहे हों ,किन्तु वे किसी भी किस्म की हिंसक कार्यवाही में खुद कभी शामिल नहीं होते। महात्मा गांधी ,नरेंद्र दाभोलकर,गोविन्द पानसरे,कलीबुरगी जैसे लोगों की हत्याओं पर 'संघ' की ओर अंगुली अवश्य उठती रही है ,किन्तु इन हत्याओं में जो भी शामिल पाये गए हैं वे 'संघ' के सदस्य नहीं थे। भले ही वे हत्यारे सनातन सभा के हों ,हिन्दू महा सभा ,बजरंगदल और विश्व हिन्दू परिषद वाले हों या हिन्दुत्ववादी रहे हों ,भले ही वे उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियन क्रिश्चयन दम्पत्ति को जिन्दा जलाने वाले दारा जैसे गुंडे रहे हों ,किन्तु 'संघ' का इन हत्याओं से सीधा कोई संबन्ध कभी सावित नहीं हो पाया । और यदि कुछ शक सुबहा किसी को रहा भी हो, तो भी संघ वालों की तुलना आईएसआईएस से तो कदापि नहीं की जा सकती। संघ वाले साम्प्रदायिक और असहिष्णु तो कहे जा सकते हैं ,किन्तु वे आतंकी या हत्यारे नहीं हैं !
दरसल हिंदुत्व का कांसेप्ट तो बिगत बीसवीं शताब्दीके के पूर्वार्ध में ही साकार हुआ था। भारत में १९०६ में मुस्लिम लीग के गठन के बहुत दिनों बाद १९२५ में 'संघ'का गठन हुआ था। प्रारम्भ में संघ की शक्ल सूरत मुस्लिम लीग के प्रतिस्पर्धी जैसी थी। यह अकाट्य सत्य है कि डॉ मुंजे और सावरकर ने भी अंग्रेजों को सहज मित्र मानकर ही हिंदुत्व की रणनीति बनाई थी। क्योंकि मुस्लिम लीग ने भी अंग्रजों से मित्रता 'खिलाफत आंदोलन 'के दौरान बहुत पहले ही कर ली थी। द्वतीय विश्वयुद्ध के दौरान जब जिन्नाह पाकिस्तान के निर्माण की ओर बढ़ रहे थे और जब जर्मनी में नाजी हिटलर ने सत्ता में बने रहने के लिए 'आर्य 'स्वस्तिक और जर्मन 'राष्ट्रवाद' का सहारा लिया तो भारत के 'हिन्दुत्ववादी' गुरु गोलवलकर उनसे बहुत प्रभावित हुए। लेकिन उन्होंने सिर्फ विचारों से 'संघ' को सजाया -संवारा है। नाजीवादी कार्यक्रम क्रियान्वन का 'संघ' को वैसा अवसर नहीं मिला जैसा कि जर्मनी में हिटलर को मिला था। हिटलर जैसा अवसर भारत में किसी को कभी भी नहीं मिलेगा। संघ को भी नहीं ! क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यह विश्व का सबसे महान लोकतंत्र है। जबकि आईएसआईएस का न कोई राष्ट्र है ,न कोई संविधान है ,केवल खुनी होली खेल रहे हैं !
जिस तरह नाजी जर्मनी और लोकतान्त्रिक भारत की कोई तुलना नहीं। जिस तरह भारतीय सम्विधान और हिटलर कालीन जर्मन संविधान की कोई तुलना नहीं ,जिस तरह छत-विक्षत और तानाशाही शासित अरब राष्ट्रों की महान लोकतान्त्रिक राष्ट्र भारत से कोई तुलना नहीं ,उसी तरह 'संघ' की भी आईएसआईएस से कोई तुलना नहीं ! आईएसआईएस वालों की एक खासियत है कि वे भले ही हत्यारे और जाहिल हैं ,किन्तु वे कथनी-करनी में भेद नहीं रखते। वे जो कहते हैं वही करते हैं। वे दूसरों को देशभक्ति का या इस्लाम परस्ती का उपदेश नहीं देते। बल्कि हर किस्म के जेहादी संघर्ष में खुद आगे रहते हैं। और मजहब अर्थात इस्लाम के बहावीकरण पर ज्यादा जोर देते हैं। संघ वाले खुद कुछ नहीं करते , सिर्फ कहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं वो नहीं करते। वे हिंदुत्व और के उपदेश देते रहते हैं ! जबकि उनके पालित-पोषित सत्यम राजू,विजय मालया, ललित मोदी जैसे लोग देश को लूट्ते रहते हैं। ये लोग वसुंधरा राजे,सुषमा स्वराज,स्मृति ईरानी ,शिवराज और येदुरप्पा के कारनामो को ढकने की कोशिश करते रहते हैं। इन के बहका वे में आकर कुछ 'गैर संघी' लोग भी स्वार्थी और हिंसक हो जाय करते हैं। धर्मान्धता और पाखंड में लिप्त कुछ लोग 'संघ' की आड़ में पापकर्म में लिप्त हैं। वे न केवल 'संघ' को बल्कि तमाम हिन्दुओं को बदनाम भी बदनाम करते रहते हैं।श्रीराम तिवारी
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