लगभग ८५ साल पहले २३ मार्च -१९३१ के रोज शहीद भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव को फाँसी हुई थी ? इन शहीदों को फांसी क्यों हुई थी ? साइमन कमीशन क्या था ? ट्रेड बिल क्या था ? ट्रेड यूनियन एक्ट -१९२६ क्या है ? लाला लाजपत राय किस आंदोलन का नेतत्व कर रहे थे ? लाला जी और उनके साथियों पर किस के आदेश से लाठी चार्ज हुआ था ? शहीद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम कहाँ फेंके थे ? बम फेंकते हुए उन्होंने हवा में जो पर्चे उछाले थे उनमें क्या लिखा था ? इक्लाब -जिंदाबाद का नारा लगाते हुए उन्होंने जानबूझकर गिरफ्तारी क्यों दी ? बटुकेश्वर दत्त को फाँसी क्यों नहीं हुई ? शहादत से पूर्व शहीद भगतसिंग ने कितनी अवधि जेल में गुजारी और उन्होंने किस क्रांतिकारी विचाधारा को सिरोधार्य किया ?
इन प्रश्नों के उत्तर जिनके पास हैं ,वे ही शहीद भगतसिंह की शहादत का आदर करने योग्य है। यदि किसी शख्स को इन सवालों के जबाब नहीं मालूम ,तो उसे भगतसिंह के बारे में शायद कुछ नहीं मालूम ! उसकी देशभक्ति ,क्रांतिकारिता केवल दिखावा है। भगतसिंह के विचारों को नहीं जानने वाले ,नहीं मानने वाले और 'भारत माता की जय ' के नारे लगाकर देशभक्ति का ढोंग रचाने वाले लोग पाखंडी हैं ! जो लोग शहीद भगतसिंह की बिचारधारा का अनुसरण कर रहे हैं ,वही सच्चे अर्थों में वामपंथी हैं, प्रगतिशील हैं और सच्चे देशभक्त हैं !
जुलाई १९३० के अंतिम रविवार को भगतसिंह लाहौर सेंट्रल जेल से वोर्स्टल जेल में बंद अपने अन्य क्रांतिकारी साथियों से मिलने आये थे। राजगुरु,शिव वर्मा सुखदेव इसी जेल में थे। अंग्रेज़ सरकार की तयशुदा रणनीति के अनुसार योजना यह थी कि भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी युवाओं को गुमराह सावित कर -माफ़ीनामा लिखवाकर छोड़ दिया जाए ,ताकि 'क्रांति' की मशाल बुझ जाए । अंग्रेजों ने 'अहिंसावादी'- कांग्रेसी नेताओं को -गांधी जी ,पंडित नेहरू ,सुभाष बोस ,पटेल ,मौलाना आज़ाद ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और अन्य दिग्गजों को साफ कह दिया कि वे अपना अहिंसक आंदोलन तभी आगे बढ़ा सकते हैं ,जबकि वे भगतसिंह इत्यादि क्रांतिकारियों से अपने आपको अलग रखें । कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन में खूब -खुसुर-पुसर होती रही ,किन्तु गांधी जी एवं उनके चेलों ने वायसराय के आदेश का अक्षरसः पालन किया। शहीद भगतसिंह तो व्यक्तिगत रूप से क्रांति की उस बलिबेदी पर हवन होने को पूर्णत : तैयार थे। किन्तु अन्य साथियों के मन में शायद जीवन की कुछ जिजीविषा शेष थी और गांधी जी से हस्तक्षेप की उम्मीद भी थी। लेकिन गांधी जी ने चुप्पी साध ली।
अपने क्रांतिकारी साथियों का हौसला बढ़ाते हुए तब भगतसिंह ने कहा था ''साथियो ! हमें गर्दन से फांसी के फंदे पर तब तक लटकाया जाएगा ,जब तक कि हम मर न जायें !यही असलियत है। में इसे जनता हूँ। तुम लोग भी जानते हो !फिर इसकी तरफ से आँखे बंद क्यों करते हो ?''
'' देशभक्ति के लिए हमें यह सर्वोच्च पुरस्कार है। और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूँ। वे [अंग्रेज] सोचते होंगे कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे अपनी 'सत्ता' सुरक्षित रख पाएंगे !यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं ,लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते ! वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं किन्तु मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकते। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे 'विचार 'उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर नहीं हो जाते !''
'' लेकिन वे भूल रहे हैं कि ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक जीवित भगतसिंह से एक मरा हुआ भगतसिंह ज्यादा खतरनाक सावित होगा। मुझे फांसी होने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध इस राष्ट्र के कण-कण में व्याप्त हो जाएगी। वह नौजवानों में चेतना लाएगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे। देश के नौजवानों का यह आक्रोश ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुंचाएगा । मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इन्तजार कर रहा हूँ जब देश के लिए ,देश की जनता के लिए मेरी सेवाओं का मुझे सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा '' [ संदर्भ :-शहीद भगतसिंह की चुनी हुई कृतियाँ -लेखक शिव वर्मा पृष्ठ ५९-६० ]
शहीद भगतसिंह की भविष्यबाणी के एक वर्ष के दरम्यान ही सच सावित हो गयी थी। उनका नाम मौत को भी चुनौती देने वाले साहस,बलिदान ,देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। और उनके द्वारा देश के युवाओं को दिया गया ''इंकलाब -जिंदाबाद' का नारा केवल भारत का ही सर्वोत्कृष्ट नारा नहीं बना, बल्कि दक्षेश के सभी देशों का सर्वाधिक लोकप्रिय नारा यही है स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में और भी बहुत से नारे लगते रहे। गांधी जी का -अंग्रेजो भारत छोडो , सुभाष चंद बोस का -तुम हमें खून दो ,हम तुम्हे आजादी देंगे , तिलक का -स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे, बंकिमचंद का 'वन्दे मातरम' ,इकबाल का 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ,कांग्रेस का जय हिन्द ,समाजवादियों का -हिन्दुस्तान जिंदाबाद और देश के लिए मर -मिटने वाले अमर शहीदों का ''भारत माता की जय '' के नारे आजादी के आंदोलन में खूब लगते रहे । स्वाधीनता संग्राम में इन नारों से न केवल भारत भूमि बल्कि दशों दिशायें गुंजायमान होतीं रहीं। यद्द्पि ये सभी नारे भारत की आजादी के मूल मंत्र रहे हैं। ये अब भी प्रासंगिक हैं और प्रेरणा - स्फूर्ति देते हैं। किन्तु इंकलाब -जिंदाबाद तब भी क्रांतिकारी युवाओं को ताकत प्रेरणा देता रहा और आज भी यह नारा हर किस्म के जायज संघर्ष में युवाओं का पथप्रदर्शक बना हुआ है। इस नारे में देशभक्ति है ,जनता की आवाज है , मौजूदा चुनौतियों से निपटने का माद्दा है ,क्रांति की खनक है और खासतौर से इस नारे में शहीद भगतसिंह ,राजगुरु सुखदेव ,चंद्रशेखर आजाद ,विद्या भावी इत्यादि की शहादत का असर बाकी है।
हर साल २३ मार्च को भारत ,नेपाल,और पाकिस्तान के तमाम क्रांतिकारी वामपंथी साथी इंकलाब -जिंदाबाद नारा लगाकर -भगतसिंह और अन्य तमाम अमर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
इंदौर में 'भारतीय जन नाट्य मंच ' के तत्वाधान में शहादत सप्ताह [१६ मार्च से २३ मार्च] मनाया गया । इसके उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए सुप्रसिद्ध लेखक इतिहासकार ,जेएनयू के सेवानिवृत प्रोफेसर चमनलाल ने मॉस कम्युनिकेशन के विद्यालयीन छात्रों और नगर के प्रबुद्ध नागरिकों को सम्बोधित करते हुए उनके प्रश्नों के उत्तर दिए। हालाँकि कार्यक्रम का मुख्य विषय -'देश प्रेम के मायने और भगतसिंह '! रखा गया। ट्रेड यूनियन के साथियों ,साहित्यकारों और अन्य जनवादी मित्रों के साथ हम भी इस शहीद दिवस कार्यक्रम में मौजूद थे। प्रोफेसर चमनलाल से उनके सम्वोधन उपरान्त छात्र-छात्राओं ने कुछ प्रासंगिक घटनाओं पर प्रश्न भी पूंछे।
पहला सवाल :- क्या 'भारत माता की जय ' बुलवाना धर्मनिरपेक्षता या राष्ट्रवाद का प्रतीक है ?
उत्तर :-इसके जबाब में प्रोफेसर चमनलाल ने बताया कि आजादी से बहुत पहले ही कांग्रेस के अधिवेशनों में तत्कालीन नेताओं की जय के साथ-साथ 'भारत माता की जय ' के नारे लगते रहे। लेकिन अंग्रेज इससे चिढ़ते थे। और वे इसे देशद्रोह मानते थे। आजादी के बाद विद्यालयों में छात्रों को अपने अमर शहीदों की जय के साथ ही 'भारत माता की जय' का नारा लगाना सिखाया जाता रहा है। लेकिन यह नारा हमारे संविधान निर्माताओं के द्वारा स्वीकृत नहीं किया गया। स्वयं डा अम्बेडकर ने कहीं इसका जिक्र नहीं किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने १५ अगस्त -१९४७ को लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम जो सन्देश दिया था उसमें 'भारत माता की जय ' का एक बार भी जिक्र नहीं। महात्मा गांधी हमेशा जय हिन्द ही कहते रहे। उनकी पुस्तक 'हिन्द स्वराज'में जय हिन्द तो है किन्तु 'भारत माता की जय ' नहीं है। सरदार पटेल ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और सुभाष चन्द्र बोस इत्यादि नेताओं के तमाम उपलब्ध रिकार्डेड और स्पीच में 'जय हिन्द' का नारा ही सर्वत्र गूँजता सुनाई देता है। इंदिराजी , मोरारजी और अन्य तमाम पूर्व प्रधानमंत्रियों ने भी कभी 'भारत माता की जय' का नारा नहीं लगाया। अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधान मंत्री बने तो लाल किले की प्राचीर से उन्होंने भी 'जय हिन्द' का नारा ही तीन बार दुहराया। भारत की जनता में पहली बार लाल किले की प्राचीर से सिर्फ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ही 'भारत माता की जय ' का नारा दिया है। कुछ क्षण मौन धारण करने के उपरान्त प्रोफेसर चमनलाल ने उपस्थित श्रोताओं और प्रश्नकर्ताओं से ही प्रति प्रश्न किया -क्या मोदी जी से पहले वाले सभी प्रधान मंत्री 'देशद्रोही'थे ?
दूसरा सवाल :-भगतसिंग और उनके साथी 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते थे , क्या वे देशभक्त नहीं थे ?
उत्तर :-शहीद भगतसिंह ने कहा था -हमारी शहादत के बाद देश की जनता और नेता आजादी का जश्न मना रहे होंगे। वे हमें भूल जाऐंगे । लेकिन आजादी के बीस साल बाद उन्हें अचानक मालूम पडेगा कि इस देश में कुछ नहीं बदला है । गोरे अंग्रेजों की जगह देशी काला साहब उनके सिर पर बैठ चुका है। आर्थिक ,सामाजिक और वर्गीय असमानता यथावत है। तब देश की आवाम जिस बदलाव के बारे में सोचेगी। जिस क्रांति के लिए संगठित होकर संघर्ष को प्रेरित होगी ,उसे ही 'इंकलाब' कहा जाएगा। इस बदलाव की चाहत याने क्रांति की आहट को भांपकर भृष्ट व्यवस्था के पोषक जनता का ध्यान भटकायेंगे और 'नकली राष्ट्रवाद का चोला पहिनकर ऊँट पटांग नारों में उलझा देंगे। शहीद भगतसिंह की वह भविष्यबाणी भी अक्षरशः सही सावित हो रही है। समता,न्याय पर आधरित -शोषण विहीन नवीन व्यवस्था के सृजन के निमित्त 'इंकलाब जिंदाबाद 'का नारा लगाने वाले छात्रों को देशद्रोही सिद्ध करने की वैसी ही मशक्क़त की जा रही है जैसी की तत्कालीन अंग्रेज वायसराय ने भगतसिंह को फांसी पर चढ़ाने के लिए की थी। जय -हिन्द ! भारत माता की जय !
इंकलाब -जिंदाबाद ! अमर शहीदों को लाल सलाम !! शहीद भगतसिंह राजगुरु-सुखदेव अमर रहे !!!
श्रीराम तिवारी
इन प्रश्नों के उत्तर जिनके पास हैं ,वे ही शहीद भगतसिंह की शहादत का आदर करने योग्य है। यदि किसी शख्स को इन सवालों के जबाब नहीं मालूम ,तो उसे भगतसिंह के बारे में शायद कुछ नहीं मालूम ! उसकी देशभक्ति ,क्रांतिकारिता केवल दिखावा है। भगतसिंह के विचारों को नहीं जानने वाले ,नहीं मानने वाले और 'भारत माता की जय ' के नारे लगाकर देशभक्ति का ढोंग रचाने वाले लोग पाखंडी हैं ! जो लोग शहीद भगतसिंह की बिचारधारा का अनुसरण कर रहे हैं ,वही सच्चे अर्थों में वामपंथी हैं, प्रगतिशील हैं और सच्चे देशभक्त हैं !
जुलाई १९३० के अंतिम रविवार को भगतसिंह लाहौर सेंट्रल जेल से वोर्स्टल जेल में बंद अपने अन्य क्रांतिकारी साथियों से मिलने आये थे। राजगुरु,शिव वर्मा सुखदेव इसी जेल में थे। अंग्रेज़ सरकार की तयशुदा रणनीति के अनुसार योजना यह थी कि भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी युवाओं को गुमराह सावित कर -माफ़ीनामा लिखवाकर छोड़ दिया जाए ,ताकि 'क्रांति' की मशाल बुझ जाए । अंग्रेजों ने 'अहिंसावादी'- कांग्रेसी नेताओं को -गांधी जी ,पंडित नेहरू ,सुभाष बोस ,पटेल ,मौलाना आज़ाद ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और अन्य दिग्गजों को साफ कह दिया कि वे अपना अहिंसक आंदोलन तभी आगे बढ़ा सकते हैं ,जबकि वे भगतसिंह इत्यादि क्रांतिकारियों से अपने आपको अलग रखें । कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन में खूब -खुसुर-पुसर होती रही ,किन्तु गांधी जी एवं उनके चेलों ने वायसराय के आदेश का अक्षरसः पालन किया। शहीद भगतसिंह तो व्यक्तिगत रूप से क्रांति की उस बलिबेदी पर हवन होने को पूर्णत : तैयार थे। किन्तु अन्य साथियों के मन में शायद जीवन की कुछ जिजीविषा शेष थी और गांधी जी से हस्तक्षेप की उम्मीद भी थी। लेकिन गांधी जी ने चुप्पी साध ली।
अपने क्रांतिकारी साथियों का हौसला बढ़ाते हुए तब भगतसिंह ने कहा था ''साथियो ! हमें गर्दन से फांसी के फंदे पर तब तक लटकाया जाएगा ,जब तक कि हम मर न जायें !यही असलियत है। में इसे जनता हूँ। तुम लोग भी जानते हो !फिर इसकी तरफ से आँखे बंद क्यों करते हो ?''
'' देशभक्ति के लिए हमें यह सर्वोच्च पुरस्कार है। और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूँ। वे [अंग्रेज] सोचते होंगे कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे अपनी 'सत्ता' सुरक्षित रख पाएंगे !यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं ,लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते ! वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं किन्तु मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकते। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे 'विचार 'उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर नहीं हो जाते !''
'' लेकिन वे भूल रहे हैं कि ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक जीवित भगतसिंह से एक मरा हुआ भगतसिंह ज्यादा खतरनाक सावित होगा। मुझे फांसी होने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की सुगंध इस राष्ट्र के कण-कण में व्याप्त हो जाएगी। वह नौजवानों में चेतना लाएगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे। देश के नौजवानों का यह आक्रोश ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुंचाएगा । मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इन्तजार कर रहा हूँ जब देश के लिए ,देश की जनता के लिए मेरी सेवाओं का मुझे सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा '' [ संदर्भ :-शहीद भगतसिंह की चुनी हुई कृतियाँ -लेखक शिव वर्मा पृष्ठ ५९-६० ]
शहीद भगतसिंह की भविष्यबाणी के एक वर्ष के दरम्यान ही सच सावित हो गयी थी। उनका नाम मौत को भी चुनौती देने वाले साहस,बलिदान ,देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। और उनके द्वारा देश के युवाओं को दिया गया ''इंकलाब -जिंदाबाद' का नारा केवल भारत का ही सर्वोत्कृष्ट नारा नहीं बना, बल्कि दक्षेश के सभी देशों का सर्वाधिक लोकप्रिय नारा यही है स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में और भी बहुत से नारे लगते रहे। गांधी जी का -अंग्रेजो भारत छोडो , सुभाष चंद बोस का -तुम हमें खून दो ,हम तुम्हे आजादी देंगे , तिलक का -स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे, बंकिमचंद का 'वन्दे मातरम' ,इकबाल का 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ,कांग्रेस का जय हिन्द ,समाजवादियों का -हिन्दुस्तान जिंदाबाद और देश के लिए मर -मिटने वाले अमर शहीदों का ''भारत माता की जय '' के नारे आजादी के आंदोलन में खूब लगते रहे । स्वाधीनता संग्राम में इन नारों से न केवल भारत भूमि बल्कि दशों दिशायें गुंजायमान होतीं रहीं। यद्द्पि ये सभी नारे भारत की आजादी के मूल मंत्र रहे हैं। ये अब भी प्रासंगिक हैं और प्रेरणा - स्फूर्ति देते हैं। किन्तु इंकलाब -जिंदाबाद तब भी क्रांतिकारी युवाओं को ताकत प्रेरणा देता रहा और आज भी यह नारा हर किस्म के जायज संघर्ष में युवाओं का पथप्रदर्शक बना हुआ है। इस नारे में देशभक्ति है ,जनता की आवाज है , मौजूदा चुनौतियों से निपटने का माद्दा है ,क्रांति की खनक है और खासतौर से इस नारे में शहीद भगतसिंह ,राजगुरु सुखदेव ,चंद्रशेखर आजाद ,विद्या भावी इत्यादि की शहादत का असर बाकी है।
हर साल २३ मार्च को भारत ,नेपाल,और पाकिस्तान के तमाम क्रांतिकारी वामपंथी साथी इंकलाब -जिंदाबाद नारा लगाकर -भगतसिंह और अन्य तमाम अमर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
इंदौर में 'भारतीय जन नाट्य मंच ' के तत्वाधान में शहादत सप्ताह [१६ मार्च से २३ मार्च] मनाया गया । इसके उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए सुप्रसिद्ध लेखक इतिहासकार ,जेएनयू के सेवानिवृत प्रोफेसर चमनलाल ने मॉस कम्युनिकेशन के विद्यालयीन छात्रों और नगर के प्रबुद्ध नागरिकों को सम्बोधित करते हुए उनके प्रश्नों के उत्तर दिए। हालाँकि कार्यक्रम का मुख्य विषय -'देश प्रेम के मायने और भगतसिंह '! रखा गया। ट्रेड यूनियन के साथियों ,साहित्यकारों और अन्य जनवादी मित्रों के साथ हम भी इस शहीद दिवस कार्यक्रम में मौजूद थे। प्रोफेसर चमनलाल से उनके सम्वोधन उपरान्त छात्र-छात्राओं ने कुछ प्रासंगिक घटनाओं पर प्रश्न भी पूंछे।
पहला सवाल :- क्या 'भारत माता की जय ' बुलवाना धर्मनिरपेक्षता या राष्ट्रवाद का प्रतीक है ?
उत्तर :-इसके जबाब में प्रोफेसर चमनलाल ने बताया कि आजादी से बहुत पहले ही कांग्रेस के अधिवेशनों में तत्कालीन नेताओं की जय के साथ-साथ 'भारत माता की जय ' के नारे लगते रहे। लेकिन अंग्रेज इससे चिढ़ते थे। और वे इसे देशद्रोह मानते थे। आजादी के बाद विद्यालयों में छात्रों को अपने अमर शहीदों की जय के साथ ही 'भारत माता की जय' का नारा लगाना सिखाया जाता रहा है। लेकिन यह नारा हमारे संविधान निर्माताओं के द्वारा स्वीकृत नहीं किया गया। स्वयं डा अम्बेडकर ने कहीं इसका जिक्र नहीं किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने १५ अगस्त -१९४७ को लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम जो सन्देश दिया था उसमें 'भारत माता की जय ' का एक बार भी जिक्र नहीं। महात्मा गांधी हमेशा जय हिन्द ही कहते रहे। उनकी पुस्तक 'हिन्द स्वराज'में जय हिन्द तो है किन्तु 'भारत माता की जय ' नहीं है। सरदार पटेल ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और सुभाष चन्द्र बोस इत्यादि नेताओं के तमाम उपलब्ध रिकार्डेड और स्पीच में 'जय हिन्द' का नारा ही सर्वत्र गूँजता सुनाई देता है। इंदिराजी , मोरारजी और अन्य तमाम पूर्व प्रधानमंत्रियों ने भी कभी 'भारत माता की जय' का नारा नहीं लगाया। अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधान मंत्री बने तो लाल किले की प्राचीर से उन्होंने भी 'जय हिन्द' का नारा ही तीन बार दुहराया। भारत की जनता में पहली बार लाल किले की प्राचीर से सिर्फ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ही 'भारत माता की जय ' का नारा दिया है। कुछ क्षण मौन धारण करने के उपरान्त प्रोफेसर चमनलाल ने उपस्थित श्रोताओं और प्रश्नकर्ताओं से ही प्रति प्रश्न किया -क्या मोदी जी से पहले वाले सभी प्रधान मंत्री 'देशद्रोही'थे ?
दूसरा सवाल :-भगतसिंग और उनके साथी 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते थे , क्या वे देशभक्त नहीं थे ?
उत्तर :-शहीद भगतसिंह ने कहा था -हमारी शहादत के बाद देश की जनता और नेता आजादी का जश्न मना रहे होंगे। वे हमें भूल जाऐंगे । लेकिन आजादी के बीस साल बाद उन्हें अचानक मालूम पडेगा कि इस देश में कुछ नहीं बदला है । गोरे अंग्रेजों की जगह देशी काला साहब उनके सिर पर बैठ चुका है। आर्थिक ,सामाजिक और वर्गीय असमानता यथावत है। तब देश की आवाम जिस बदलाव के बारे में सोचेगी। जिस क्रांति के लिए संगठित होकर संघर्ष को प्रेरित होगी ,उसे ही 'इंकलाब' कहा जाएगा। इस बदलाव की चाहत याने क्रांति की आहट को भांपकर भृष्ट व्यवस्था के पोषक जनता का ध्यान भटकायेंगे और 'नकली राष्ट्रवाद का चोला पहिनकर ऊँट पटांग नारों में उलझा देंगे। शहीद भगतसिंह की वह भविष्यबाणी भी अक्षरशः सही सावित हो रही है। समता,न्याय पर आधरित -शोषण विहीन नवीन व्यवस्था के सृजन के निमित्त 'इंकलाब जिंदाबाद 'का नारा लगाने वाले छात्रों को देशद्रोही सिद्ध करने की वैसी ही मशक्क़त की जा रही है जैसी की तत्कालीन अंग्रेज वायसराय ने भगतसिंह को फांसी पर चढ़ाने के लिए की थी। जय -हिन्द ! भारत माता की जय !
इंकलाब -जिंदाबाद ! अमर शहीदों को लाल सलाम !! शहीद भगतसिंह राजगुरु-सुखदेव अमर रहे !!!
श्रीराम तिवारी
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