शनिवार, 19 मार्च 2011

फागुन के दिन चार होली खेल मणा रे .......

     ब्लोगिंग  की दुनिया के तमाम सुधिजनो को होलिकोत्सव  की शुभकामनायें...

     मित्रो ,मैं होली नहीं खेलता ,बचपन  से ही पढ़ाकू ,एकांगी ,लजालू और दुनिया भर की चिंताओं का भार- वहन करने वाला 
मैं अकिंचन बहुधा भरी पूरी भीड़ में सदा अकेला ही रहा हूँ. होली खेलने और मनाने में आनंदित होने वालों  की ओर देखता हूँ तो सदा ही मुंह  बिचका कर अपने कमरे में कैद  होकर होली के त्यौहार मनाने और उसको ईजाद करने वालों को मन ही मन कोसता हूँ .होली में आनंदित होने वाले कहते हैं कि इसका श्री गणेश बरसाने या मथुरा से हुआ था .कृष्ण ने गोपियों {बहुवचन}के साथ खूब रास रचाया और खूब होली खेली . हिन्दू समाज में जितने लुच्चे-लफंगे हैं, अमर्यादित आचरण की जानिब के शख्स हैं वे अपने कदाचरण को जस्टीफाई करने के लिए कृष्ण, राधा और ब्रिज की सनातन परम्पराओं  की आड़ लेते रहे  हैं .
           आज घर गली  में दो-दो होलिकाएं जल रहीं  हैं लाखों वृक्ष कटे जाते हैं ,चारों और असमान  में धुल-धुआं  और केमिकल रंगों  की जहरीली घटाएँ छायीं  हैं. यह किस ख़ुशी  में किया जा  रहा है.  क्या जापान  में हो रहे जलजलों  से हम जरा भी आहत नहीं? क्या भारत  में इस साल सूखा  ,पाला और भुखमरी  से आत्महत्या  करने वाले किसानों की मौत  पर हम रंग  गुलाल अबीर  का छिडकाव नहीं कर रहे ?
          वैसे  तो सभी त्यौहार विकृत हो चुके  हैं किन्तु होलिका दहन  या होलिकोत्सव तो नितांत अमानवीय और धरा-द्रोही  हो चुका है. कोई किसी के चेहरे को कला कर दे  या लाल, उतना तो फिर भी  ठीक किन्तु  करोड़ों गैलन  पानी सड़कों  पर, नालियों में बहा देना  कौनसी सभ्यता है. जंगल, जमीन, पेड़ और असमान सब  चीख रहे  हैं की हे मानवों  {दानवों}दया करो अब तो, धरती  को बक्श दो. इससे अछि तो मीराबाई थी की अपने प्रियतम  {कृष्ण} से सूफिया प्रेम की फाग  खेलने को  भक्तिराग   के रंग में गति है-
    फागुन के दिन चार  ...होली  ..खेल मना  रे....
                                                                              -श्रीराम तिवारी

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