शुक्रवार, 18 मार्च 2011

यूरोपियन रेनेसां और फ्रांसीसी क्रांति से भारत ने क्या सीखा !

यूरोपियन रेनेसां और फ्रांसीसी क्रांति की मध्यावधि में यूरोपियन दर्शन-शास्त्रियों  द्वारा   एक सर्वमान्य, सर्वव्यापी सिद्धांत स्थापित किया जा चुका था कि "सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म होता है., और पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा" इसी दरम्यान भारतीय उपमहाद्वीप में भी प्रतिगामी एवं अधोगामी दोनों ही प्रकार के मिले-जुले सामाजिक- राजनैतिक -आर्थिक बदलावों का यूरोपियन रेनेसां जैसा ही कुछ कुछ  दृष्टिगोचर हुआ था.
                जहां फ्रांसीसी क्रांति और सोवियत अक्टूबर क्रांति  की लहरों  ने और उसकी  समस्थानिक आनुषांगिक तरंगों ने सम्पूर्ण यूरोप, अमेरिका ,अफ्रीका और अधिकांश  एशिया महाद्वीप की सनातन से दलित -शोषित -गुलाम रही आवाम को बन्धन-मुक्ति की राह दिखाई ,वहीं दूसरी ओर उसी दौरान अंग्रेज कौम और उसकी समर्थक भारतीय सामंतशाही ने  भारत की शोषित -पीड़ित   आवाम को दोहरी -तिहरी गुलामी की घातक बेड़ियों में जकड़ने का एतिहासिक घृणित  कुकृत्य किया है.
        दुनिया भर के आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों कि आमराय है कि पूंजीवादी समाज व्यवस्था को सामंती -  राजसी पतनशील व्यवस्था   से बेहतर  होना, मानव समाज कि एतिहासिक मानवीय सकारात्मक छलांग  का आवश्यक परिणाम है. उनका यह निष्कर्ष भी है कि पूंजीवादी निजाम अपने तमाम भयावह विनाशकारी विकृत रूपों के बरक्स एक शानदार भूमिका में प्रगतशील हुआ करता है. कबीलाई समाज से सामंतशाही  संमाज में  स्थापित होने कि लम्बी प्रक्रिया का उल्लेख मैं नहीं करूंगा, क्योंकि एक तो यह दीर्घ कालीन सामाजिक -एतिहासिक संक्रमण कि विपथ गाथा है,दूसरी बात ये है कि यह परिवर्तन हर मुल्क में अपने -अपने मिज़ाज में दरपेश हुआ है. सेकड़ों पुस्तकों में यह विषय समेत पाना दुरूह लगता है.
                          यूरोपियन समाजों को वैज्ञानिक भौतिकवादी विकास  धारा ने जिस भी रूप में ढाला वह अपने पूर्ववर्ती अधम व्यवस्थाओं से बेहतरथा. भारत या पूर्ववर्ती सम्पूर्ण अखंड हिन्दोस्तान  कि आवाम का वर्गीय स्वरूप बेहद जटिल और रूढ़ होने से यहाँ पूंजीवाद का जन्म भी 'उत्तरा के गर्भस्थ शिशु' परीक्षित जैसा ही हो पाया. भारत के समकालीन सामंतों कि अय्याशियों  ,बदमाशियों और निरंकुश्ताओं कि वजह से भारत का "जागृत" जन-गन तीन हिस्सों में विभाजित था. एक- जो सामंती दमन के प्रतिकार को भाग्य या किस्मत का या कर्मफल  का परिणाम मानकर "हरी इच्छा भावी बलवाना." से बंधे थे. दो-अपने आपको तत्कालीन व्यवस्था के अनुकूल बनाकर उस शोषण और दमन कि व्यवस्था के अंग बनकर उसी में नष्ट होने को अभिशप्त थे.तीन-राज्य सत्ता से बड़ी ईश्वरीय सत्ता कि परिकल्पना  कर ,अतीत कि पुरातन   गाथाओं के उदात्त चरित्रों को महाकाव्यों के मार्फ़त आम जनता कि भाषा प्रस्तुत करने वाले -महाकवि और भक्तिमार्गी संतजन.
    अतीत के काल्पनिक उज्जवल -धवल चरित्रों को अपने समकालिक बदमिजाज़ शासकों  के सामने  आदर्शरूप में प्रस्तुत करने कि एतिहासिक, साहित्यिक सृजनशीलताको किसी भी रूप में रूढ़ या पुरोगामी नहीं कहा जा सकता.कबीर  तुलसी ,सूरदास ,चेतन्य , केशव रहीम रैदास और मीरा इत्यादी के भक्ति साहित्य में मानवीय मूल्यों को पाने कि ललक साबित  करती है कि अधिकांश भक्तिकालीन साहित्य सृजन प्रगतिशील और मानवतावादी था. कुछ इनसे अलग किस्म के तत्व भी इस दौर में हुए जो अपने समकालिक सामंतों कि ठकुर सुहाती या  भडेती करने में लगे रहे. चंदवर दाई,विद्द्यापति ,कल्हण,जयदेव,जगनिक और बिहारी जैसे  भी थे जो स्वामीनिष्ठ भाव से काव्य सृजन में-कनक ,कामिनी और कंचन कि तलाश में लगे रहे.
                हालाँकि इस भक्ति का इश्वर ,अध्यात्म या दर्शन से कोई सरोकार नहीं था.यह प्रारंभ में दासत्व का कातरभाव मात्र था. यह दक्षिण भारत में जागृत महामानवों की जन-मानस को अनुपम देन थी कि वे अपने आपको सनातन दासत्व से मुक्त करें किन्तु परिवर्ती काल में कुछ धूर्तों ने इस भक्तिरूपी वेदनामूलक मलहम को मंदिरों में सीमिति कर दिया और वहां अकिंचनों ,अनिकेतों ,दासों तथा तथाकथित शूद्रों का प्रवेश निषेध कर दिया.इस प्रकार जो भक्तिमार्ग प्रारंभ में मानव कि चतुर्दिक मुक्ति का साधन था वो उत्तरकाल में शासक  वर्गों के खुशामदियों द्वारा शोषण का साधन बना दिया गया. यही वजह है कि रेनेसां और पुनर्जागरण जैसी सामाजिक क्रांतियों के बावजूद  भारत और दुनिया भर में पूंजीवादी क्रांतियों के उभार के बावजूद  भारत में ,पाकिस्तान में ,बंगला देश में और अफगानिस्तान तक में अधिकांश  समाज'खाप पंचायतों' जैसाहीहै. इसके खिलाफ कोईबाबा ,कोईसामाजिक कार्यकर्त्ता या स्वनामधन्य वुद्धिजीवी जुबान नहीं खोल रहा, सिर्फ भृष्टाचार कि दुग्दुगी बजाकर पूंजीवादी जामात कि लूट को बरकरार रखने में यथेष्ठ सहयोग किया जा रहा है.  यही काम आज के नवउदारवादी वैश्विक व्यापारिक दौर में भारत के  कुछ चतुर चालक 'बाबा'  लोग कर रहे हैं या  करने वाले हैं. 
                  जैसा कि  इस आलेख के प्रारंभ में भी मैंने  लिखा है कि पूंजीवाद कि एक मात्र अच्छाई है कि वह जातीयता के संकीर्ण बन्धनों को काट फैंकता है. भले ही वह विश्व युद्धों का जन्मदाता भी है ,किन्तु सामाजिक क्रांतियों का वह एतिहासिक अलमबरदार है. पूंजीवादी और उसके बाद साम्यवादी क्रांतियों ने पूर्वी यूरोप,सोवियत यूनियन  चीन,क्यूबा इत्यादि में तो जातिवाद  कभी का समाप्त हो चुका है ,यहाँ तक कि जो  साम्यवाद से  परहेज करनेवाले घोर पूंजीवादी राष्ट्र हैं उनमें भी जातीयता  का इतना वीभत्स रूप नहीं है ,जितना कि भारत में. भारत में अर्ध-पूंजीवादी एवं अर्ध-सामंती मिलावट ने अजीबोगरीब स्थिति निर्मित कर डाली है. यहाँ पूंजीवाद ने आर्थिक मोर्चे पर तो  गरीबों को और ज्यादा गरीब बनाकर रख छोड़ा है और पूंजीपतियों को करोड़ पति से अरब पति ,खरबपति बना दिया है .इतना ही नहीं इस अर्ध-पूंजीवादी निजाम ने एक और कमाल कर दिखाया कि जहां पहले  लगभग १०-१५ पूंजीपति थे इस देश में ,वहीं अब ६७  'त्रिलियानार्स' भारत को दुनिया भर में सुशोभित कर रहे हैं.शायद यह इसकी इन्तहा ही है कि भारत का एक पूंजीपति 'बैंक ऑफ़ अमेरिका ' के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर  में नामजद किया जा चुका है.हम मुकेश धीरुभाई अम्बानी को बधाई देते हैं किन्तु भारत के आमजनों कि आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर जो दुर्गति हो रही है उसमें इस उद्दाम पूंजीवाद ने भी बजाय सामाजिक बन्धनों को ढीला करने के, सारे देश {केरल बंगाल त्रिपुरा को छोड़कर} का 'खापीकरण' कर के रख दिया है.प्रश्न यह है कि जिस पूंजीवाद ने भारत जैसे गरीब मुल्क को इतनी इज्जत बक्शी  कि एक भारतीय को अमेरिकी बैंक में सर्वेसर्वा बनवा दिया वहीं ७७ करोड़ भारतीयों को एक वक्त  भरपेट भोजन जुटाने कि असफलता के साथ यह तमगा सा माथे पर ज्यों का त्यों बरकरार क्यों  है ?अक्सर कहा जाता है कि 'हम सब भारतीय एक नहीं बल्कि अनेक हैं .हम ब्राम्हण ,बनिया ,ठाकूर,जाट,गूजर,आर्य द्रविण दलित ,महादलित ,पिछड़ा महापिछ्डा और हिन्दू -मुस्लिम -सिख ईसाई बगेरह मात्र हैं.इस सामंत्कालीन सोच और पतनशील व्यवस्था को पूंजीवाद भारत में एक इंच भी इधर से उधर खिसकाने में असमर्थ रहा है?भले ही इस लफंगे पूंजीवाद ने यूरोप और अमेरिका या दुनिया भर में जीत के झंडे गाड़े हों किन्तु भारत को तो दोनों ओर से बुरी तरह रोंदा है .एक तरफ सामंती जातीय जकड़न ,साम्प्रदायिक घृणा और दूसरी ओर कृतिम उत्पीडन ,हत्या ,बलात्कार ,भय -भूंख ,और भृष्टाचार इत्यादि ने दो पाटों के बीच में भारत कि जनता को दबोचकर रखा है. इस व्यवस्था के खिलाफ जब तक आवाम का सामूहिक अवज्ञा आन्दोलन जैसा कदम नहीं उठता तब तक कांग्रेस ,भाजपा या वामपंथ भी इस कि चूल भी नहीं हिला सकते.
        जो काम भारत के मध्ययुग में श्रृंगार-वादियों या पोंगा-पंडितों ,कठमुल्लों ने सामंतवाद को खुश रखने के लिए किया था वही काम बाबा रामदेव या उनसे हित-संबल पाने वाले अब पूंजीवादी पतनोमुखी  व्यवस्था के लिए कर रहे हैं. उनके पास कोरी शाब्दिक लफ्फाजी के अलावा कुछ नहीं है.
      श्रीराम तिवारी

1 टिप्पणी:

  1. का.जब हम बाम-पंथी मैदान खाली छोड़ देंगे तब बाबा राम देव जैसे ठग जनता को उलटे उस्तरे से मूंदेंगे ही.
    अधर्म को धर्म के रूप में पेश किया जाता है और हम लोग सीधे धर्म को ही खारिज करते हैं,नतीजा जनता की लूट के रूप में सामने आता है.इसी लिए मैंने धर्म-शोधन का कार्य शुरू कर रखा है.'एकला चलो 'की तर्ज पर.

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