क्या खिलाडी? क्या छात्र? क्या मजदूर? क्या किसान?क्या व्यापारी?क्या अफसर?क्या बाबु?आवाल वृद्ध नर-नारी क्रिकेटमय हो रहे हैं. शादी हो या तलाक ,जन्म हो मृत्यु ,शहर हो या गाँव ,खेत हो या कारखाना कहीं ज्यादा -कहीं कम, कहीं ख़ुशी -कहीं गम ...जो जहां है क्रिकेट की प्रतिध्वनी चाहे -अनचाहे सुनने को मजबूर है. विश्वकप की संयुक मेजवानी में भारत अर्थात बी सी सी आई की भूमिका बिग-ब्रदर जैसी है
मुझे क्रिकेट का ककहरा भी नहीं मालूम.बचपन में जहां -पला बढ़ा वहां क्रिकेट की नहीं मल-खम्ब,कबड्डी, अखाड़ेवाजी,लठ्ठ-वाजी और मुगदर -वाजी जैसे खेल अवश्य थे . गिल्ली डंडा और डंडा-डाल जैसे खेलों में कुछ -कुछ क्रिकेटी रंग हुआ करता था . अक्सर दवंग किस्म का लड़का मनमानी करता और वही खेलता {बेटिंग करता}था. उम्र में छोटे या दव्वु किस्म के बच्चे गेंद उठा लाने {फील्डिंग या गेंदवाजी करते } या तीमारदारी का काम करते थे. याने यदि भाई -भाई भी थे तो भी ताकत ने वर्गभेद खड़ा कर रखा था .कमजोर के हिस्से में ज्यादा परिश्रम और कम खुशियाँ आतीं और जिसके कल्ले में जोर होता तो परिश्रम और खुशियों का चयन स्वयम कर सकने में समर्थ होता. पूर्व भारतीय दिग्गज हर- फन-मौला क्रिकेट खिलाड़ी और विश्वविजयी कप्तान कपिलदेव निखंज के एक बयान ने मुझे इतना प्रभावित किया कि उस पर प्रस्तुत संक्षिप्त आलेख लिखने का लोभ संवरण न कर सका. उन्होंने हाल ही में इस दौर के विश्वकप में बल्लेबाजों कि मददगार पिचों के निर्माण पर सख्त आपत्ति लेते हुए निम्नांकित उदगार व्यक्त किये.
कपिलदेवने कहा " क्रिकेटमें गेंदबाजको तो मात्र एक मजदूर समझा जाता है. इसीलिये इस टूर्नामेंट में
में भी बल्लेबाजों को मदद करने बाली पिचें बनाई गईं है. यही वजह है कि अधिकांस टीमें धड़ा-धड ३०० के स्कोर पर पहुँच रहीं हैं ."
कपिलदेव ने खेल जगत की यादों से जुडी पुस्तक 'वर्ल्ड कप' के विमोचन कार्यक्रम में कहा-"विश्व कप जीतने के लिए टीम के पास अच्छा गेंदवाजी आक्रमण होना जरुरी है ,लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि क्रिकेट कि दुनिया में गेंदवाज को बल्लेबाज से कमतर आंका जाता है .एक विकेट गिराने पर दर्शक दीर्घा से उतनी शाबाशी भी नहीं मिलती जितनी बल्लेबाज को एक चौका मार देने पर मिल जाया करती है. क्रिकेट के मैंदान में बल्लेबाज मानों आफीसर है और गेंदवाज महज मजदूर "
अपनी कप्तानी में १९८३ में भारत को अब तक का एकमात्र वन डे विश्वकप दिलाने वाले कपिल ने कहा- "इस मर्तवा विश्वकप के लिए ऐंसी पिचें तैयार कीं गईं हैं जो बल्लेबाजों कि तो मददगार हैं किन्तु गेंदबाजों को विकेट लेने में पसीना बहाना पड़ रहा है. इन पिचों को पूर्णरूप से आदर्श तभी माना जा सकेगा जब गेंदबाजों को भी थोड़ी सी मदद मिले सके. क्रिकेट में जितने भी नए नियम बन रहे हैं वे सिर्फ बल्लेबाजों को ध्यान में रखकर बनाये जा रहे हैं,गेंदवाजों कि उपेक्षा से क्रिकेट का वजूद संकट में है"
जैसा कि मैनें इस आलेख के प्रारंभ में ही निवेदन किया है कि मैं क्रिकेट का बल्ला भी ठीक से नहीं पकड़ सकता किन्तु कपिलदेव के वयान से मेरे जैसे आम आदमी या सर्वहारा के लिए एक शानदार रूपक तो क्रिकेट के बहाने मिल ही गया. और वो रूपक क्या है?
प्रस्तुत आलेख में कुछ शब्द बदल दीजिये ,जैसे कि गेंदवाज को मजदूर तो कपिल ने ही नाम दिया है अतः यह नाम करण मेहनतकशों के इतिहास में कपिल के नाम से ही जाना जाएगा.अब बल्लेबाज को पूंजीपति या भूस्वामी नाम देवें.पिच याने [शासन) पूंजीवादी भृष्ट व्यवस्था. क्रिकेट याने उत्पादन के साधन विश्वकप याने पूंजीवादी आर्थिक सुधारवाद.
कपिल का यह कहना कि गेंदवाज पसीना बहाकर भी विकेट को तरसता है तो इसमें जो पिचों का कमाल है वो बल्लेवाजों का पक्षधर है यही इस दौर के नव्य आर्थिक उदारीकरण -भूमंडलीकरण -सर्वसत्तावादिकरण के निहितार्थ हैं.कपिल को धन्यवाद और आभार कि क्रिकेट का रूपांकन इस ढंग से किया कि मालिक -मजदूर ,अफसर-क्लर्क और बल्लेबाज-गेंदबाज के साथ -साथ पिच और ये संपूर्ण व्यवस्था बेनकाब हो रही है.... श्रीराम तिवारी
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