सोमवार, 28 मार्च 2011

दक्षिण में हिन्दी अब पराई नहीं...

     जिस दिन उत्तर-भारत में रंगपंचमी का धूम धड़ाका हो रहा था  उसी दिन मैं चेन्नई के प्रख्यात आर जी एम् सांस्कृतिक सभागार में शाम को एक अत्यंत गरिमामय सांस्कृतिक कार्यक्रम देख रहा था. अधिकांश  कार्यक्रम टीन एजर्स लड़कियों ने प्रस्तुत किये .संचालन प्रोफ़ेसर मिस चंद्रा ने किया सभी टोलियाँ बारी-बारी से अपने नृत्य ,संगीत ,शस्त्र- कौशल तथा गायन वादन कार्यक्रम प्रस्तुत कर प्रशंसा बटोरते जा रहे थे. जहां तक भाषा और माध्यम का प्रश्न है तो यह स्वाभाविक ही था कि ९९%तमिल और १%इंग्लिश का प्रयोग हो रहा था. मुझे और मेरे अलावा उत्तर भारत के विभिन्न शहरों से पहुंचे हिंदी भाषी श्रोता और दर्शकों को सिर्फ दृश्य और पश्य का सहारा था. कार्यक्रम के अंत में संचालिका ने पहले तमिल में और बाद में इंग्लिश में दर्शकों से कोई कविता सुनाने का आग्रह किया. मुझसे रहा न गया और झपटकर माइक लपका और दनादन अपनी सद्यप्रकाशित 'वसंत ऋतू ' कविता कि चार पंक्तियाँ सस्वर सुना डालीं. जब मैं कविता सुना चूका तो मानों सुई पटक सन्नाटा छा गया. कुछ क्षणों बाद सामूहिक करतल ध्वनि से मुझे सम्मान नवाजा गया.
       इसके बाद संचालिका ने एक  अपनी टीम को वापिस मंच पर बुलाया और जब संगीत कि स्वर लहरियों ने उस  सुहानी शाम को गुंजायमान  किया तो कई लोग मंच पर थिरकने लगे -गीत के बोल थे ...केशरिया बालम पधारो जी म्हारे देश ...इसके बाद तो जैसे झिझक टूटी और फिर पंजाबी वैशाखी का नृत्य, असमी बिहू नृत्य और ब्रिज बरसाने के होली नृत्य गीत ने मुझे अचम्भे में डाल दिया .इसमें कोई शक नहीं कि गीत आडिओ केसेट के माध्यम से ध्वनित हो रहे थे किन्तु बॉडी लेंगुवज और अंग-सञ्चालन से बेहतर ताल मिलकर प्रस्तुती देने वाली लड़कियां ने बाद में समवेत स्वर में- होली आई रे कन्हाई .....गा कर सुखद विस्मय में डाल दिया.
  बाद में जिज्ञाषा-वश जब आयोजकों से भाषा के बारे में और खासतौर से तमिल और हिंदी के रिश्तों के बारे में पूँछतांछ कि तो मुझे जो बताया गया उससे अभिभूत हुए बिना नहीं रहा. बजाय मेरे सवालों के जबाब देने के एक कन्नड़ मूल के तमिलभाषी ने मुझसे पूंछा कि मुझे कितनी भाषाएँ आतीं हैं? मैंने   कहा कि आधी हिंदी ,आधी संस्कृत और आधी इंग्लिश कुल जमा डेड  भाषा का माद्दा,प्रतिप्र्श्नकर्ता  महोदय ने बताया कि वे एल आई सी के सेवानिवृत डायरक्टर  हैं और हिंदी ,इंग्लिश ,फ्रेंच, बंगला, मराठी ,तमिल,मलयालम तो भरपूर आती है और कन्नड़ उनकी मातृभाषा है .उन्होंने ये भी बताया कि हिंदी का विरोध एक राजनैतिक चालबाजी मात्र थी.
मैंने  पुनः जिज्ञाषा व्यक्त की-  १९९१ में तत्कालीन मद्रास और पूरे तमिलनाडु में जहाँ कहीं भी मैं गया, हर केन्द्रीय कार्यालय और रेलवे स्टेशन पर हिंदी के शब्दों पर कालिख पुती रहती थी अब तो हर जगह -सरकारी बैंक ,बीमा ,बी एस एन एल ,केन्द्रीय और सार्वजानिक उपक्रमों के बाहर तीन भाषाओँ-तमिल ,हिंदी, इंग्लिश  में नाम पट्टिका चमक रही है. यह कैसे सम्भव हुआ?
      मुझे बताया गया कि वक्त कि मांग, ज़माने कि रफ़्तार और गठबंधन कि राजनीत ने सभी को लचीला बना दिया है. अब कोई भी क्षेत्रीय या राष्ट्रीय-दल भाषा और धरम के नाम पर जनता को मूर्ख बनाकर शासन  नहीं कर सकता. अब संभल कर चलना पड़ता है ,पता नहीं किस मोड़ पर किसकी जरुरत आन पड़े. इसीलिये कट्टर तमिल या द्रविण-वादी आजकल अपने बच्चों को चोरी छिपे हिंदी सिखा रहे हैं कि कल को यदि अखिल-भारतीय सेवाओं में जाना हो,गठ्बंधानीय राजनीती करनी  पड़े या बोलीवुड में कोई चांस मिले तो बिना हिंदी कोई किनारा नहीं,अतः न  केवल चेन्नई ,न केवल तमिलनाडु बल्कि समूचे दक्षिण भारत में स्वतःस्फूर्त रूप से हिंदी सीखी जा रही है. सरकार के हिंदी अधिकारी और राजभाषा समितियां इत्यादि सब चोंचले भर रह गए हैं.अत्यंत सोचनीय तो यह है कि उत्तर-भारतीय जनता को दक्षिण कि भाषाओँ तक ले जाने का कोई उपक्रम न तो सरकार का है और न एन जी ओ का है. देश कि एकता और अखंडता के लिए सामाजिक -सांस्कृतिक समन्वय के लिए उत्तर-भारतीयों को दक्षिण  कि भाषाओँ में भी दिलचस्पी लेनी चाहिए.
          श्रीराम तिवारी

2 टिप्‍पणियां:

  1. मैं भी तिवारीजी के इस लेख तथा उनके अनुभव से सहमत हूँ. मैं स्वयं दो माह पूर्व चेन्नई गया था, मैने वहाँ के लोगों में हिन्दी में बातचीत करने की ललक देखी, उनकी हिन्दी में बातचीत करने की कोशिश भी देखी. आज से पंद्रह वर्ष पूर्व उत्तर भारत के लोगों के प्रति जो रूखा व्यवहार हमें देखने को मिलता था वह अब नहीं है. मैं एक बात और कहना चाहूँगा की चेन्नई भारत का एक महानगर(मेट्रो) होने के बावजूद वहाँ के लोगों में इसका ज़रा भी कुप्रभाव (कुसंस्कृति) देखने में नहीं आती है, दूसरी ओर देश के मध्य स्तर के शहर भी पश्चिम के रंगों मे रंगे नज़र आ रहें हैं चाहे वह इंदौर, भोपाल, वडोडरा, अहमदाबाद ,हो या पुणे, नागपुर जयपुर. मुंबई, दिल्ली तो अब अंतरराष्ट्रीय शहर हैं उनका तो कहना ही क्या.... Yeshwant Kaushik

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  2. तिवारी जी,
    पढकर बहुत प्रसन्नता हुई। समय के अभाव में संक्षिप्त टिप्पणी दे रहा हूं।

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