गुरुवार, 3 मार्च 2011

दरवेश का चोला पहनने से डाकू- संत नहीं हो जाते...

 लगता है कि  आदरणीय मुकेश धीरूभाई अम्बानी को बोधत्व प्राप्त हो गया है. देश के सबसे बड़े रईस और रिलायंस इंडस्ट्रीज के सर्वेसर्वा श्री मुकेश अम्बानी ने गत मंगलवार {१ मार्च-२०११}को नई दिल्ली में  फिक्की {फेडेरशन ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज} के ८३ वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए जो आप्त वाक्य कहे वे उन्हें भारतीय इतिहास में अमरत्व प्रदान करने के लिए काफी हैं. उपस्थित तमाम दिग्गज  पूंजीपतियों को सम्बोधित करते हुए मुकेश भाई ने कहा कि 'अब वक्त आ गया है कि हम पूंजीपति लोग - सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन को अपने एजेंडे में शामिल करें' उन्होंने व्यवसाय, काराबोर  और कार्पोरेट सेक्टर को जन-सरोकारों से जोड़ने कि बात कहकर न केवल उद्द्योग जगत बल्कि देश और दुनिया के वामपंथी विचारकों को भी  आश्चर्य चकित कर दिया  है.
      मुकेश अम्बानी ने अमीर भारत और गरीब भारत के बीच की बढ़ती जाती खाई की ओर उपस्थित उद्योगपतियों का ध्यानाकर्षण करते हुए आह्वान किया कि वे इन दोनों -शाइनिंग इंडिया और निर्धन भारत को जोड़ने के लिए काम करें . उन्होंने कहा- 'कारोबार का एकमात्र उद्देश्य मुनाफा ही नहीं होना चाहिए' मुकेश भाई ने कहा -सिर्फ कार्पोरेट सामाजिक जबाबदेही{सी एस आर} कि जगह अब सतत सामाजिक सरोकार {continuous  socail business }के माडल को अपनाया जाना चाहिए. सामाजिक जबाबदेही के साथ वित्तीय जबाबदेही भी जरुरी है. किसी कारोबार का एकमात्र  उद्देश्य मुनाफा कमाना ही नहीं होना चाहिए. जब तक लाखों लोगों के जीवन को बदलने वाले व्यापक उद्देश्य के साथ कारोबार
नहीं किया जायेगा- कोई भी कारोबार सतत नहीं चल पायेगा.
      उन्होंने देश के दो पहलुओं पर रोशनी डालते हुए कहा -एक तरफ तो उद्द्योग जगत को भारी लाभ हो रहा है और दूसरी ओर ऐसे  करोड़ों लोग हैं जो मूल भूत सुविधाओं -स्वच्छता ,पीने का पानी ,स्वास्थ सेवाओं से महरूम हैं.
      मुकेश भाई ने कहा" कि देश कि प्रति-व्यक्ति आय १००० डालर से कम है, जो कि चीन के एक तिहाई से भी कम है. उन्होंने भारतीय मध्यम वर्ग को विराट संभावनाओं का कारक बताते हुए  कहा कि यदि एक अरब से ज्यादा विपन्न  लोग असंतुष्ट हैं, तो बाकि के संपन्न लोग खुशहाल कैसे  रह सकते हैं? भारत कि विकास  गाथा तब तक पूरी नहीं होगी जब तक देश के करोड़ों लोगों को प्रगति में भागीदार नहीं बनाया जाता."
        जहां तक मुकेश अम्बानी का इंडिया और भारत के बीच खाई पाटने कि सद- इच्छा का सवाल है  तो उसका हमें सम्मान करना चाहिए. किन्तु एक अज्ञात भय भी है कि उस कुत्सित विचार का क्या होगा? जो सुनील मित्तल भारती ने इसी फोरम में ,वर्ष -२००८ में व्यक्त किया  था . तब माननीय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंग जी के समक्ष उनके इस आग्रह पर कि उद्योग जगत को देश के गरीबों का भी ध्यान रखना चाहिए  ,निजी क्षेत्र में उच्च पदों पर ज्यादा  आकर्षक वेतन देने से सरकारी क्षेत्र पर दवाव पड़ता है, आप सी ई ओ लोगों को भारी भरकम वेतन नहीं लेना चाहिए ,वगेरह -वगेरह .सुनील मित्तल भारती ने तब तपाक से उत्तर दिया "कि  हम  यहाँ व्यापार के माध्यम से मुनाफा कमाने आये हैं जन सरोकारों या जनता कि परेशानियों से हमें कोई लेना-देना नहीं" सुनील मित्तल भारती  के इस कटु वक्तव्य  से तब मुझे बहुत बुरा लगा था तत्काल एक आलेख भी उनके अमर्यादित व्यवसायिक सरोकारों पर मैनें  लिखा था -जिसका तात्पर्य यह  था कि भारतीय लोकतंत्र पर पूंजीपतियों का कब्जा कराने में सिद्धहस्त  श्री मनमोहन सिंग जी को एक नव-धनाड्य पूंजीपति के आगे इस तरह असम्मानित होना स्वीकार नहीं करना चाहिए .लोकतंत्र के लिए यह उचित सन्देश नहीं है.लगता है कि सुनील मित्तल भारती ने माल्थस ,एडम स्मिथ और कीन्स  को पढ़े बिना ही कार्पोरेट जगत में कुछ उसी तरह से अवसरों को भुना लिया जैसे कि युद्धकाल में वेइमान बनिया  कमाता है.
              आज      श्री मुकेश अम्बानी और श्री सुनील मित्तल भारती दोनों ही भारत के दिग्गज पूंजीपति हैं. दोनों ने खूब धन कमाया. दोनों का राजनीती और समाज पर अपनी-अपनी हैसियत का प्रभाव है ,किन्तु दोनों के विचारों में दो विपरीत ध्रुवों जैसा अंतर क्या दर्शाता है? मित्तल का दर्शन है "मुनाफा और केवल मुनाफा" उसका परिणाम होगा शोषित आवाम का विद्रोह या जन-क्रांति .
 मुकेश अम्बानी ने जो जन-कल्याणकारी कार्पोरेट कल्चर कि पैरवी की है वो नयी नहीं है .विगत कुछ महीनों पहले अमेरिकी पूंजीपति बिल गेट्स ने ,वारेन बफेट  ने अपनी सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा जन सरोकारों में लगाने का ऐलान किया था .उनका कहना था कि जो जहां से लिया वो वहां वापिस तो नहीं किया जा सकता किन्तु उसका आंशिक तो लौटाया ही जा सकता है. भारत के अजीम प्रेमजी भी इस विषय में पहल कर  चुके हैं .इससे पहले भारत के स्थापित पूंजीपतियों  -बिडला ,टाटा और अन्य पूंजीपतियों ने भी "दान" और 'लोक- कल्याण ' कि परम्परा में सदियों से  अपनी भागीदारी जारी रखी थी. 
          जिस देश में इतने दूरदर्शी और घाघ पूंजीपति होंगे वहां जनता का जनाक्रोश समय-समय पर दान -दक्षिणा के नाम पर  निसृत होते रहने से किसी तरह कि बगावत या क्रांति कि संभावना नहीं रहेगी .  .भारत और अमेरिका में इसी वजह से क्रांति कि संभावनाएं वैसी नहीं वन पा  रही हैं जैसी कि सोवियत संघ ,चीन ,क्यूबा ,वियेतनाम या कोरिया में बनी थीं .आज अरब   राष्ट्रों में क्रांति के नाम पर जो बबाल मच  रहा है उसका कारण भी वही व्यवस्था जनित आक्रोश है .चूँकि वहां के  पूंजीपति और शासक  वर्ग सुनील मित्तल भारती कि तरह  जनता के सरोकारों को अपने व्यापारिक  और प्रबंधकीय  सरोकारों से अपडेट नहीं कर पाए अतः वे जनता के हाथों पिट रहे हैं ,देश कि सत्ता  और लूटी गई सम्पदा का अधिकार भी उनसे छीना जा रहा है. भारत में जब तक मुकेश अम्बानी जैसे लोग अथाह पैसा कमाते हुए गरीब जनता का मुंह बंद करने के लिए  तथाकथित  जनकल्याणकारी सरोकारों कि पैरवी करते रहेंगे  तब तक जनाक्रोश सघन नहीं हो पायेगा , जब तक जनाक्रोश सघन नहीं होगा तब तक आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक  क्रांति कि संभावनाएं भी क्षीण रहेंगी . अस्तु! मुकेश अम्बानी के वक्तब्य को एक घाघ पूंजीपति की वर्तमान वैश्विक परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में भारत कि निर्धन जनता को निरंतर कष्ट उठाते रहने , शांति बनाये  रखने ,क्रांति से दूर रहने,  इंडिया बनाम भारत में मेल -मिलाप बनाये रखने ,  और पूंजीपतियों को राज्य सत्ता का  कृपा- भाजन बनाये रखने  में देखा जाना चाहिए.
                                       श्रीराम तिवारी

3 टिप्‍पणियां:

  1. अंतिम नौ पंक्तियों में आपने सही निष्कर्ष दिया है लेकिन इसकी काट भी तभी हो सकती है जब हम जनता को ऐसी बख्शीशों के असली उद्देश्यों को समझा सकें.

    जवाब देंहटाएं
  2. Fikki adhiveshan me Mukesh Ambani dwara kahe gae shabd kahi sasti lokpriyta prapt karne ke liye to nahi hai? Agar aisa nahi hai to aapko sabse pahle mai badhai deta hoo. Dekhte hai ise karyroop dene ke liye Mukesh Bhai kya karte hai.Itni jaldbaji me kuchh kaha nahi ja sakta... Ramlal Gothwal

    जवाब देंहटाएं
  3. भगवान भला करे, अब तो अपनी जीत निश्चित है...?---S P Jain

    जवाब देंहटाएं