यु पी ऐ प्रथम के दौर में जब -जब आर्थिक सुधारों के नाम पर देश की सम्पदा और मेहनतकशों के श्रम को मुफ्त में लूटने के लिए कार्पोरेट जगत को पूरी सफलता नहीं मिली ,तब -तब सरमायेदारों की तिजारत के संबाहक पूंजीपति परस्त मीडिया ने डाक्टर मनमोहन सिंह को मजबूर प्रधानमंत्री के रूप में जनता के समक्ष पेश किया. उस दौर में चाहे पेट्रोल डीज़ल -रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि का सवाल हो , शक्कर -तुअर दाल या घासलेट की कीमतों में बढ़ोत्तरी का सवाल हो , सार्वजानिक उपक्रमों को निजीकरण करने , श्रम कानूनों में मालिक परस्त संशोधनों का सवाल हो कामन मिनिमम प्रोग्राम का सवाल हो
या वन -टू-थ्री एटमी करार का सवाल हो -हर जगह वामपंथ ने देशभक्तिपूर्ण भूमिका अदा की तो उन्हें रोड़े अटकाने वाले बताया गया . तब भी सत्ता से विमुख भूंखे-भेरानो ने आरोप लगाया की प्रधानमंत्री जी तो कमजोर हैं .स्वयम प्रधनमंत्री जी ने देश की तात्कालिक वित्तीय लूटपाट पर अंकुश लगाने के बजाय जुलाई -२००८ को संसद में अपनी सरकार बचाने के लिए वामपंथ के तथाकथित बंधन से मुक्त होने के लिए क्या -क्या धत-करम किये वे जग जाहिर है . इस घटना में उन्हें धोखा हुआ , वे समझे की वे ताकतवर होते जा रहे हैं .जबकि बस्तुत; वे मजबूर प्रधानमंत्री के रूप में और तेजी से विख्यात {?}हुए .तत्कालीन विपक्ष के दिग्गज नेता ने उन्हें कमजोर और विवश प्रधानमंत्री तक कह डाला .हालाकिं विपक्ष में एन डी ऐ और खास तौर से भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा चिढ वामपंथ से थी . क्यों ? क्योंकि वामपंथ ने ही एन डी ऐ को सत्ता से विमुख कराया था . २००४ के आम चुनाव में जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और वाम को इतनी {६२} सीटें मिल गईं की वो जिस तरफ होगा सरकार उसकी ही बनेगी .एन डी ऐ और यु पी ऐ में से किसी एक को सत्ता में बिठाने की स्थिति में वाम ने धर्म-निरपेक्षता के आधार पर कांग्रेस के नेत्रत्व में यु पी ऐ को बिना किसी शर्त के देश और देश की गरीब जनता के हित में बाहर से समर्थन दिया था ,ये वामपंथ की मजबूरी थी .पूंजीपतियों ने भाजपा और कांग्रेस को विभिन्न चुनावों में पार्टी फंड में अकूत धन दिया था और ये दोनों ही बड़े दल मजबूर थे और हैं- कि पूंजीपतियों को भरपूर मुनाफा कमाने की खुली छूट होना चाहिए .वामपंथ मजबूर है कि मेहनतकश जनता को उसके हक दिलाने के लिए संघर्ष करे .सो अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते यु पी ऐ का दुखद अंत हुआ .अब यु पी ऐ द्वितीय के दौरान
माननीय प्रधान मंत्री जी "अलाइंस पार्टनर्स " के हाथों मजबूर हैं सो भृष्टाचार परवान चढ़ा हुआ है .वहां अब कोई वामपंथ रुपी लगाम या रोक टोक नहीं है .अब तो न्याय-पालिका और वतन-परस्त मीडिया का ही सहारा है कि इस मजबूरी के निहतार्थ को जनता तक पहुंचाए. राकपा के नेता शरद पंवार कि मजबूरी है, सो वे खास मौकों पर ऐसें वयान देते हैं कि महंगाई आसमान छूने लगती है . श्रीमती सोनिया गाँधी कि मजबूरी है सो वे स्वयम प्रधान-मंत्री नहीं बनना चाहतीं .भाजपा मजबूर है कि हिन्दुत्ववादियों और पूंजीवादियों दोनों को साधे. दोनों को साधने के फेर में एक भी हाथ नहीं आ रहा है .दुविधा में दोउ गए ....न सत्ता मिली न मंदिर बन पा रहा है .
कार्यपालिका और व्यवस्थापिका अफसरों के हाथों मजबूर है, .अफसर और राजनेतिक दलाल भृष्टाचार के लिए मजबूर हैं , क्योंकि रिश्वत देकर नौकरी मिली या मन वांछित जगह पोस्टिंग करानी है मंत्री मजबूर कि जिस पार्टी के कोटे से सत्ता में हैं उसके सुप्रीमो तक माकूल धन पहुँचाना है .
देश के बेकार, बेरोजगार, मजबूर हैं कि जिन्दा रहने के लिए कुछ तो करना होगा सो कोई मजदूर है, कोई चोर है ,कोई बाबा हो जाता है. ये सभी लोग बजाय इस व्यवस्था के खिलाफ नीतिगत विरोध के अपने कर्म या भाग्य को कोसतें हैं .कुछ मक्कार बदमाश जो प्रमादी होते हैं वे पूंजीपतियों कि ओर से अपने ही वर्गीय बंधुओं पर कुठारा-पात करते हुए , अपना गुवार निकालते रहते हैं, पेड़ को जो कुल्हाडी काटती है उसका बेट बन जाना उनकी मजबूरी है
जिस देश में ईमानदार ,अनुशाषित नागरिक को लल्लू और बदमाश -काइयां आदमी को स्मार्ट कहा जाता हो वहां ये सामजिक असमानता -कदाचार ,निर्मम शोषण -उत्पीडन कि पत्नोंमुखी व्यवस्था को उखाड़ फैंकना भी जनता की मजबूरी हो जाना चाहए ....श्रीराम तिवारी
आपके निष्कर्ष सही हैं.प्रारंभिक लेखन अखबार से छिप जाता है.
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