मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

अरब़ राष्ट्रों में अभी तो ये अंगड़ाई है-आगे ओर लड़ाई है .....

     आजकल  लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअममार  गद्दाफी अपने हमवतनो के आक्रोश से भयभीत होकर देश छोड़ने की फ़िराक में हैं. ससे पूर्व इजिप्ट, ट्युनिसिया और यमन में भारी विप्लवी जन आक्रोश ने दिखा दिया था कि इन अरब देशों कि जनता दशकों से तानाशाही पूर्ण शासन  को बड़ी वेदनात्मक स्थिति में झेलती आ रही थी. .विगत दो वर्षों में  वैश्विक आर्थिक संकट कि कालीछाया ने न केवल महाशक्तियों अपितु छोटे-छोटे तेल उत्पादक अरब राष्ट्रों को भी अपनी आवरण  में ले लिया था .इन देशों की आम जनता को दोहरे संकट का सामना करना पड़ा .एक तरफ तो उनके अपने ही मुल्क की सामंतशाही की जुल्मतों का दूसरी तरफ आयातित वैश्विक भूमंडलीकरण की  नकारात्मकता का सामना करना पड़ा. इस द्वि -गुणित संकट के प्रतिकार के लिए जो  जन-आन्दोलन की  अनुगूंज अरब राष्ट्रों में सुनायी दे रही है, उसका श्रेय वैश्विक आर्थिक संकट की  धमक और   इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विकिलीक्स संस्करण तथा  सभ्यताओं के द्वंद की अनुगूंज को जाता है .
                                       द्वितीय  विश्वयुद्ध के उपरांत दुनिया दो ध्रुवों में बँट चुकी थी किन्तु, अरब समेत कई राष्ट्रों ने गुटनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया था . भारत ,मिस्र ,युगोस्लाविया , लीबिया , ईराक,  ईरान तथा अधिकांश लातिनी अमेरिकी राष्टों ने गुट निरपेक्षता को मान्य किया था. यह दुखद दुर्योग है कि पूंजीवादी राष्ट्रों, एम् एन सी और विश्व-बैंक  के किये धरे का फल तीसरी दुनिया के देशों को भोगना पड़ रहा है. इसके आलावा अरब देशों में पूंजीवाद जनित रेनेशां कि गति अत्यंत धीमी होने से आदिम  कबीलाई जकड़न यथावत बरकरार थी .इधर मिश्र ,जोर्डन को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक द्वारा आर्थिक सुधार  के अपने प्रिय माडलों के रूप में पेश किया जाता रहा था. इन देशों के अन्धानुकरण में अन्य अरब राष्ट्र कहाँ पीछे रहने वाले थे, अतेव सभी ने बिना आगा पीछे सोचे विश्व अर्थ-व्यवस्था से नाता जोड़ लिया. नतीजा सब को विदित है कि जब इस वैश्विक अर्थतंत्र का तना{अमेरिका}ही हिल गया तो तिनको और पत्तों की क्या बिसात  ...विश्व  वित्तीय संकट का बहुत प्रतिगामी प्रभाव कमोबेश  उन सभी पर पड़ा जो इस सरमायादारी से सीधे  जुड़ाव रखते थे. .इजिप्ट में ३० लाख, जोर्डन में ५ लाख और अन्य देशों में भी इसी तरह लाखों युवाओं की आजीविका को वित्तीय क्षेत्र से जोड दिया गया था. सर्वग्रासी आर्थिक संकट के दरम्यान ही स्वेज-नहर से पर्यटन तथा निर्यातों में भारी गिरावट आयी .परिणामस्वरूप सकल घरेलु उत्पादनों में भी गिरावट आयी .मुद्रा स्फीति बढ़ने , बेरोजगारी बढ़ने , खाद्यान्नों की आपूर्ति बाधित होने से जनता की सहनशीलता जबाब दे गई .महंगाई और भ्रष्टाचार  ने भारत को भी मीलों दूर छोड़ दिया. हमारे ऐ.राजा या सुरेश कलमाड़ी या मायावती भी अरेवियन अधुनातन नाइट्स{शेखों}  के सामने पानी भरने लायक भी नहीं हैं .
                    यह स्पष्ट है कि शीत-युद्ध समाप्ति के बाद पूंजीवादी एकल ध्रुव  के रूप में अमेरिका ने दुनिया को जो राह दिखाई थी वो बहरहाल अरब-राष्ट्रों को दिग्भ्रमित करने का कारण बनी .अतीत में भी कभी तेल-संपदा के बहुराष्ट्रीयकरण के  नाम पर, कभी स्वेज का आधिपत्य जमाये रखने के नाम पर, कभी अरब इजरायल संघर्ष के बहाने और कभी इस्लामिक आतंकवाद में सभ्यताओं के संघर्ष के बहाने नाटो के मार्फ़त हथियारों कि खपत इन अरब राष्ट्रों में भी वैसे ही की जाती  रही, जैसे कि दक्षिण एशिया में भारत पाकिस्तान या उत्तर-कोरिया बनाम  दक्षिण कोरिया को आपस में निरंतर झगड़ते रहने के लिए की जाती रही है ;और अभी भी की जा रही है .ऊपर से तुर्रा ये कि हम {अमेरिका ]तो तुम नालायकों {भारत -पकिस्तान ,कोरिया या अरब-राष्ट्र ]पर एहसान कर रहे हैं ,वर्ना तुम  तो आपस में लड़कर  कब के मर -मिट गए होते? हालांकि इस {अमेरिका}  बिल्ली के भाग से सींके नहीं टूटा करते .सो अब असलियत सामने आने लगी है .
                        अरब देशों के वर्तमान कलह और हिंसात्मक द्वन्द कि पृष्ठभूमि में कबीलाई सामंतशाही का बोलबाला भी शामिल किया जाना चाहिए, लोकतान्त्रिक अभिलाषाओं को फौजी बूटों तले रौंदते जाने
को अधुनातन सूचना एवं संपर्क तकनीकि ने असम्भव बना दिया है. संचार-क्रांति ने आधुनिक मानव को ज्यादा निडर ,सत्यनिष्ठ ,प्रजातांत्रिक ,क्रांतीकारी, धर्मनिरपेक्ष  और परिवर्तनीय बना दिया है ,उसी का परिणाम है कि आज अरब में ,कल चीन में परसों कहीं और फिर कहीं और ....और ये पूरी दुनिया में सिलसिला तब तलक नहीं रुकने वाला  'जब तलक सबल समाज द्वारा निर्बल समाज का शोषण नहीं रुकता , जब तलक सबल व्यक्ति द्वारा निर्बल का शोषण नहीं रुकता -तब तलक क्रांति कि अभिलाषा में लोग यों ही कुर्बानियों  को प्रेरित होते रहेंगे .'हो सकता है कि इन क्रांतियों  का स्वरूप अपने  पूर्ववर्ती   इतिहास कि पुनरावृति न हो. उसे साम्यवाद न कह' 'जास्मिन क्रांति 'या कोई और सुपर मानवतावादी  क्रांति का नाम दिया जाये  ,हो सकता है कि भिन्न-भिन्न देशों में अपनी भौगोलिक -सामाजिक -धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना के आधार पर अलग-अलग किस्म कि राजनैतिक व्यवस्थाएं नए सिरे से कायम होने लगें. यह इस पर निर्भर करेगा कि  इन वर्तमान  जन-उभार आन्दोलनों  का नेतृत्व किन शक्तियों के हाथों में है ? क्या वे आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवादी द्वंदात्मकता कि जागतिक समझ रखते हैं? क्या वे समाज को मजहबी जकड़न से आजाद करने कि कोई कारगर पालिसी या प्रोग्राम रखते हैं ? क्या वे वर्तमान कार्पोरेट जगत और विश्व-बैंक के आर्थिक सुधारों से उत्पन्न भयानक भुखमरी , बेरोज़गारी  से जनता को निजात दिलाने का ठोस विकल्प प्रस्तुत करने जा रहे हैं?
       यदि नहीं तो किसी भी विप्लवी हिंसात्मक सत्ता परिवर्तन का क्या औचित्य है ? कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई अंध साम्प्रदायिकता कि आंधी चले और दीगर मुल्कों में तबाही  मचा दे, जैसा कि सिकंदर, चंगेज,  तेमूर ,बाबर ,नादिरशाह या अब्दाली ने किया था ....

                                                                                      श्रीराम तिवारी  

4 टिप्‍पणियां:

  1. लेटेस्ट पोस्ट पर अखबार आ जाता है उसे पढ़ नहीं पते हैं. कृपया अखबार हटा दें.

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  2. .एकदम सही विश्लेषण है आपका.नाम चाहें जो हो क्रांति जरूर होगी और शोषण की समाप्ति भी होगी ही भले ही अभी संकेत न हो.

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  3. आपकी क्रांतिकारी सोच को लाल सलाम ....प्रस्तुत आलेख श्रीराम तिवारी ने संपादित किया यह सही है किंतु यह देश ओर दुनिया के तमाम मेहनत कशों की हार्दिक आकांक्षा को प्रतिध्वनित करता है ...यह विश्व सर्वहारा को समर्पित करता हूँ ...shriram tiwari

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