बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

पूंजीवाद से बेहतर है साम्यवाद -रूमानियाई रिफ्रेंडम का सार .......

         वैश्विक आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप जनांदोलनों  की दावाग्नि वैसे तो सारी धरती को अंदर से धधका रही है . आधुनिकतम सूचना एवं संचार माध्यमों की भी जन-हितकारी भूमिका अधिकांश मौकों पर द्रष्टव्य रही है.  इस  आर्थिक संकट की चिंगारी का मूल स्त्रोत पूर्वी यूरोप और सोवियत  साम्यवाद के पराभव में सन्निहित है .
       दुनिया भर में और खास तौर से पूर्वी यूरोप में 'बाज़ार व्यवस्था 'के अंतर्गत जीवन का जो अनुभव आम जनता को हो रहा है ;उससे उनको बेहद आत्मग्लानि का बोध होने लगा है जिन्होंने तत्कालीन प्रतिक्रान्ति में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था . वे अपने देशों में छिपे हुए पूंजीवादी साम्राजवादी -सी आई ए के एजेंटों को पहचानने में भी  असफल रहे . उन देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी शायद यह समझ था कि सर्वहारा कि तानाशाही का अंतिम सत्य यही है .अब वर्तमान सर्वनाशी ,सर्वग्रासी ,सर्वव्यापी पूंजीवादी आर्थिक संकट से चकरघिन्नी हो रहे ये पूर्ववर्ती साम्यवादी और वर्तमान में भयानक आर्थिक संकट से जूझते राष्ट्रों कि जनता स्वयम आर्तनाद करते हुए छाती पीट रही है -काश.इतिहास को पलटा न गया होता ,काश साम्यवाद को ध्वस्त न किया होता ..
               हाल  ही में रूमानिया के २०१० के सी एस ओ पी /आई आई सी एम् ई आर सर्वे के सम्बन्ध में विशेषकर यह तथ्य उल्लेखनीय है कि जैसे- जैसे इस पतनशील बाजारीकरण -उधारीकरण और धरती के बंध्याकरण
 कि व्यवस्था कि असफलता का साक्षात्कार  होने लगा वैसे -वैसे पूर्ववर्ती साम्यवादी व्यवस्था के प्रति सकारत्मक जिज्ञासा परवान चढ़ने लगी है .इस सर्वे में अपनी राय जाहिर करने वालों में से अधिकांश  ने कहा है कि उनके देश में जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में थी -तो उस समय उनका जीवन ,आज कि पूंजीवादी व्यवस्था के सापेक्ष कई गुना बेहतर था .६०%जनता ने साम्यवादी व्यवस्था के पक्ष में अपनी राय जाहिर की  है .चार साल पहले भी ऐसा ही सर्वेक्षण हुआ था उसके मुकाबले  इस दफे चमत्कारिक रूप से  बृद्धि उन लोगो कि हुई जो साम्यवाद को पूंजीवाद से बेहतर मानते है .
       यह रोचक तथ्य है कि सर्वेक्षण कराने वाले संगठन सी एस ओ पी द्वारा किये गए सर्वे में पता चला  कि जिस रूमानियाई अंतिम साम्यवादी शासक  निकोलाई च्सेस्कू को उसी के देशवासी  पांच साल पहले तक जो खलनायक मानते आये थे वे भी दबी  जुबान से कहते हैं कि इससे {वर्तमान बेतहाशा महंगाई -बेरोजगारी -भृष्टाचार की पूंजीवादी व्यवस्था से } तो चासेश्कू का शासन  भी अच्छा था .सर्वेक्षण  के प्रायोजकों को सबसे ज्यदा निराशा उस सवाल के जबाब से हुई; जिसमें सर्वे में शामिल लोगों से पूछा  जा रहा था कि क्या उन्हें या उनके परिवारों को तत्कालीन कम्युनिस्ट व्यवस्था में कोई तकलीफ झेलनी पडी थी? उत्तर देने वालों में सिर्फ ७% लोगों ने साम्यवादी  शासन में तकलीफ स्वीकारी ,६% अन्य लोगों ने माना कि उन्हें स्वयम तो नहीं किन्तु उनके सप्रिजनों में से किसी एक आध को तत्कालीन साम्यवादी शासन में तकलीफ दरपेश हुई थी .सर्वे में नगण्य लोग ऐसे भी पाए गए जिनका अभिमत था कि "पता नहीं" अब और तब में क्या फर्क है ?`६२ % लोग आज एक पैर  पर साम्यवादी शासन कि पुनह अगवानी के लिए लालालियत हैं .
       इस सर्वे का प्रयोजन एक पूंजीवादी कुटिल चाल के रूप में किया गया था, रूमानिया के अमेरिकी सलाहकारों और "इंस्टिट्यूट फार इंवेस्टिगेसन- द क्राइम्स आफ कम्युनिज्म एंड मेमोरी आफ रुमानियन एक्साइल्स "ने कम्युनिज्म को गए-गुजरे जमाने की कालातीत व्यवस्था साबित  करने के लिए भारी मशक्कत की थी .प्रतिगामी विचारों की स्वार्थी ताकतों ने इस सर्वेक्षण के लिए वित्तीय मदद की थी .कम्युनिज्म के खिलाफ वातावरण स्थायी रूप से बनाए  रखने की कोशिश में सर मुड़ाते ही ओले पड़े, जनता के बहुमत ने फिर से कम्युनिज्म की व्यवस्था को सिरमौर बताकर  और वर्तमान नव-उदारवादी निगमीकरण   की पतनशील व्यवस्था को दुत्कारकर सर्वे करने वालों को भौंचक्का कर दिया है . अब तो सर्वेक्षण के आंकड़ों ने सारी स्थिति को भी साफ़ करके रख दिया है .
         तत्कालीन कम्युनिस्ट व्यवस्था से तकलीफ किनको थी ? यह भी उजागर होने लगा है. चूँकि साम्यवादी शासन में निजी संपत्ति की एक निश्चित अधिकतम और अपेक्षित सीमा निर्धारण करना जरुरी होता है .ऐसा किये बिना उनका उद्धार नहीं किया जा सकता जिनके  पास रोटी-कपडा-मकान-आजीविका और सुरक्षा की गारंटी नहीं होती .
अतएव न केवल रोमानिया बल्कि तत्कालीन सोवियत संघ समेत समस्त साम्यवादी राष्ट्रों में यह सिद्धांत लिया गया की एक सीमा से ज्यादा  जिनके पास है वो राष्ट्रीकरण के माध्यम से या तो सार्वजनिक सिस्टम से या न्यूनतम सीमा पर निजीतौर से उन लोगों तक पहुँचाया जाये जिनके पास वो नहीं है .तब उन लोगों को जो कमुनिस्ट शासन में खुशहाल थे ,कोई कमी भी उन्हें नहीं थी किन्तु उनकी अतिशेष  जमीनों या संपत्तियों को राज्य के स्वामित्व में चले जाने से वे भू-स्वामी और कारखानों के मालिक साम्यवादी शासन और साम्यवादी विचारधारा से अंदरूनी अलगाव रखते थे .वर्तमान सर्वेक्षणों के नतीजों की समीक्षा में आई आई सी एम् ई आर ने यह दर्ज किया है कि २० वीं सदी के कम्युनिज्म का आमतौर पर धनात्मक आकलन करने वाले अकेले रूमानियाई ही नहीं हैं .२००९ में अमेरिका-आधारित प्यु रिसर्च सेंटर ने मध्य-पूर्वी यूरोप के कई देशों में जो सर्वे किया था उसमें पता चला था कि
पूर्ववर्ती समाजवादी या साम्यवादी देशों कि आबादी में ऐसें लोगों का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है जो यह मानते हैं कि आज कि वर्तमान पूंजीवादी-मुनाफाखोरी और वैयक्तिक  लूट कि लालसा से लबरेज व्यवस्था कि बनिस्बत  साम्यवादी शासन  कहीं बेहतर था .
           श्रीराम तिवारी

3 टिप्‍पणियां:

  1. Namaskar Shriramji,
    devnagri me nahi likh sakta.... Kshama-prarthi hoon. Kash ham sab Internet par usi aasani se likh aur padh sakte jis asaani se english me likhte aur padhte hain.
    Aapke Blog se mera parichay aaj hi hua hai, aur main atyant harshit hoon yeh jankar, ki Kranti ki aag jal rahi hai aur aap jaise kabil purush ne yeh Mashaal haath me utha rakhi hai. Pichhle kuchh dinon se main in Vishayon ko lekar chintit rehta tha aur aaj aapka lekh padhkar mujhe apne sawaalon ke uttar milte nazar aa rahe hain.
    Aapke is srijanatmak lekh ke liye main aapka hardik abhinandan karta hoon aur ummeed karta hoon ki desh ki janta aapki aawaaz ko sune aur samajhne ki koshish kare.
    Khed ka vishay yeh hai ki aapke lekh par na to adhiktippaniyan hain aur na hi bahut log follow kar rahe hain.Agar aap apne baat English mein kahen to adhik logon tak pahuch sakenge.
    Yadi samay mile to jawab dijiyega..... Mujhe intzaar rahega.
    Dhanyawaad

    Dr Arun Kumar Dwivedi

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