शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट का विकल्प सत्ता परिवर्तन नहीं -अपितु नीति परिवर्तन ही सही विकल्प है

    विगत दिनों महाराष्ट्र के मनमाड  कस्बे में एक एस डी एम् को कुछ गुंडों ने जिन्दा जला डाला और खबर है कि इस कुकृत्य में शामिल खलनायक  भी उसी आग में झुलस कर बाद में अस्पताल में तड़प- तड़प  कर मर गया. यह वाकया सर्वविदित है की पेट्रोल में घासलेट की मिलावट करने वाले असमाजिक तत्वों ने यह दुष्कर्म क्यों किया ? प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत भी  सार्वभौम  है कि किसी निर्दोष  का कुछ जलाओगे तो या तो खुद भी जलोगे या झुलस जाओगे या कम से कम आंच तो आयेगी ही. सोवियत  समाजवादी व्यवस्था को आग लगाने वाले यह सिद्धांत  भूल गए और उस शानदार समाजवादी व्यवस्था को आग लगा दी. जिसकी  अकाल मौत से उत्पन्न आर्थिक संकट रुपी भूत ने यों तो पूरी दुनिया को ही अपनी उष्म लपटों के आगोश में ले लिया था, किन्तु खास तौर से उसको आग लगाने वाले अमेरिका और यूरोप शनै: शनै: आर्थिक असंतोष की लपटों से घिरते चले गए. बाद में उसकी आंच उन सभी देशों और वित्तीय संस्थानों ने ज्यादा महसूस की जो इन आग लगाने वालों के ज्यादा  नजदीक थे ..
                                            अमेरिका में २००७ से इस आंच में तीव्रता का अनुभव किया जाने लगा था. आर्थिक मंदी के चलते वेरोजगारी की दर ६% से बढ़कर १३%हो गई थी  .यही हाल उसके बगल गीरों -इंग्लॅण्ड और फ्रांस का  होने लगा था .  और इस भयावह  वित्तीय विक्षोभ ने कितना  विकराल रूप धारण  कर लिया  है, इसकी खबर सभी को है .फ्रांस की मेहनतकश जनता ने वहां की सरकार द्वारा पेंसन में छेड़छाड़ ,रिटायरमेन्ट की उम्र में बृद्धि ,बढती हुई मंहगाई ,और कारखाना बंदी के खिलाफ जबर्दस्त लामबंदी आरम्भ कर दी है .मेहनतकशों के समर्थन में विश्वविद्यालय के छात्रों और युवाओं ने संघर्ष छेड़ रखा है. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की कुर्सी खतरे में है .
             इंग्लॅण्ड में डेविड केमरून सरकार ने जनकल्याण के खर्चों में ८१ अरब पौंड की कटौती घोषित कर अपनी अंदरूनी  दुर्व्यवस्था   को ही जाहिर किया है .देश के सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने की जरुरत जब दुनिया के उस मुल्क को भी होने लगे जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, तो इस आर्थिक उदारीकरण बनाम वैश्वीकरण बनाम उद्दाम पूंजीवादी करण के वास्तविक निहतार्थ क्या हैं ? खबर है कि इंग्लॅण्ड कि सरकार ने ५० हजार कर्मचारियों {पब्लिक सेक्टर में ] की छटनी करने का प्रस्ताव किया है ,इस तरह के थेगडे वाले उपचार   आग में घी का काम कर रहे हैं इंग्लॅण्ड के मजदूरों में असंतोष उफान पर है .
        जर्मनी ,ग्रीक .पुर्तगाल ,स्पेन, इटली, इत्यादि में बेरोजगारी ७ से १४ फीसदी हो चुकी है आर्थिक संकट के पूंजीवादी उपचार निष्फल हो रहे हैं .एशिया में जापान की अंदरूनी आर्थिक स्थिति को काबू में रखने के लिए अमेरिकी नव्य आर्थिक सुधारों से इतर आर्थिक संकट का बोझ निर्यात किये जाने की तजबीज हो रही है . विशाल कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था .मजबूत सार्वजनिक उपक्रम और मजदूरों के संगठित संघर्षों से भारत में इस आर्थिक मंदी का असर ज्यादा नहीं बढ़ने दिया. जो भी असर हुआ है उसका बोझ बड़ी चालाकी से देश की आवाम पर डालकर एलीट क्लास और शासक वर्ग खुश हैं. वे पूंजीवादी धडों में बटे होने पर भी अमेरिकी सरमायेदारी का समवेत समर्थन और पूंजीवादी निजाम को लोकतान्त्रिक  खोल पहनाये रखने में हम-सोच, हम-प्याला, हम-निवाला हैं .जनता का आक्रोश इनके खिलाफ न फुट पाए सो ये समाज को साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद में बांटकर 'फुट डालो राज करो ' से अभिप्रेरित हैं .आगामी दिनों में देश की जनता के संघर्ष तेज होने के आसार हैं .
         चीन ने जहाँ देश के अंदर साम्यवादी नीतियों को परिमार्जित किया है वहीं वैश्विक क्षितिज पर पूंजीवाद को उसी की भाषा में जबाब देकर न केवल चीन को आर्थिक महाशक्ति बनाया अपितु अमेरिका समेत तमाम पूंजीवादी राष्ट्रों को चुनौती दी है ,उसके राष्ट्रीय हित अक्षुण हैं . सोवियत व्यवस्था से मुख मोड़ लेने के वावजूद उसके दीर्घकालीन असर से वर्तमान रसिया और उसके फेडरल राष्ट्रों की वित्तीय स्थिति बहरहाल तो काबू में है, किन्तु जब कुएं में भांग पडी हो तो क्या मछली और क्या मगर ? वैश्विक पूंजीवादी नव्य आर्थिक नीतियों की असफलता इसके अंदर के ही द्वंद्व  में अन्तर्निहित हैं .न्यूयार्क का सेवेंथ एवेन्यू -जहाँ पर एक मल्टीस्टोरी पर कभी 'लेमन ब्रदर्स 'के नाम की स्क्रीन चमका  करती थी आज उस पर 'बर्कले केपिटल 'का बोर्ड चमक रहा है वालस्ट्रीट के कारोबारियों को अब लेमन ब्रदर्स का नाम तक पसंद नहीं .विगत तीन वर्षों में अमेरिका और यूरोप में लेमन ब्रदर्स जैसी हजारों कंपनियां धराशायी हो चुकी हैं.
       पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी के चलते लगभग १० करोड़ लोग सीधे -सीधे अपने जीवकोपार्जन से हाथ धो बैठे हैं और विभिन्न राष्ट्रों को  जन कल्याणकारी  मदों में कतारव्योंत करनी पड़ी सो अलग . विश्व पूंजीवादी आर्थिक संकट का यह पहला अनुभव नहीं है.१८७३ में सबसे  पहले आर्थिक मंदी का कहर भुगता था .सामंतवाद के गर्भ से उत्पन्न होते ही यह अपने आंतरिक द्वन्द का शिकार हो चला था. उसके पश्चात् १९२८ में    आई आर्थिकमंदी ने तो पूरे सात वर्ष तक दुनिया भर   को रुलाया मानो साढ़े  साती की सगी अम्मा हो. कल-कारखानों में अतिउत्पादन एवं बाजार में मांग-आपूर्ति में असंतुलन होने की वजह से यह दीर्घकालीन आर्थिक संकट जारी रहा था. वस्तुत सम्पूर्ण पूंजीवादी अर्थ-तंत्र असंतुलन एवं मुनाफे पर आधारित होने से वर्गीय समाजों में बेजा अंतर का निर्माणकर्ता है जिसमें पूँजी का भारी-भरकम गुरुत्व अधिकांश अतिशेष पूँजी और साथ ही श्रम को भी अपने में लील लेता है .इस प्रकार गरीब और अमीर के बीच का फासला तो बढ़ता ही है वर्ग संघर्ष का दावाग्नि भी सुलगने लगती है ,यही दावाग्नि आज ट्युनिसिया -तुर्की -जोर्डन -मिस्र और तमाम यूरेशिया में फ़ैल चुकी है .
      आर्थिक-संकट के कारणों को जनता के अवैज्ञानिक हिस्सों में सत्ता-परिवर्तन से जोड़कर देखा जा रहा है ,जबकि यह मामला पूरी तरह से आर्थिक और राजनैतिक नीतियों के अमल का है .इस सन्दर्भ में G -२० देशों के सतत सम्मेलनों में पूंजीवादी उपचारों को ही दुहराया जाता रहा है ;जबकि इन्ही सम्मेलनों में भारत ,चीन और अन्य पूर्व  और वर्तमान समाजवादी राष्ट्रों के आर्थिक उत्कर्ष की स्वीकारोक्ति भी विभिन्न मंचों पर ध्वनित हुई है .
         अमेरिका अब स्वयम ही आगे होकर आर्थिक संरक्षण का पैरोकार बनता जा रहा है लेकिन केवल 'buy only  american 'के नारे के साथ. दरअसल  दुनिया की आर्थिक समस्याओं का निदान पूंजीवाद के पास न तो था और न है ,जबकि वैश्विक समाजवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने के बाद पूंजीवाद का एकल-साम्राज्य सारे संसार को अपने आगोश में ले चुका था .वैश्विक समाजवाद की राह में एक अवरोध तब आया था जब फ़्रांसिसी क्रांती को कुचला गया था .उसके बाद दुनिया  ने और तेजी से समाजवाद की और कदम बढ़ाये तो लेनिन -स्टालिन के नेत्रत्व में सोवियत क्रांती सम्पन्न हुई .सोवियत क्रांती के पराभव उपरान्त दुनिया की जन-बैचेनी को सही दिशा और गति देने का काम आज के नौजवानों का है की वे मौजूदा आर्थिक संकट को सिर्फ मांग या पूर्ती अथवा सत्ता परिवर्तन के नजरिये से न देखते हुए दूरगामी -राजनैतिक ,सामाजिक  ,सांस्कृतिक और आर्थिक सरोकारों को वैज्ञानिक समाजवादी अहिंसक परिवर्तनों के सापेक्ष देखें. आज की तरूणाई को जानना होगा की परिवर्ती समाजवाद की प्रति-क्रन्तियाँ राजनैतिक और आर्थिक कारणों के कुचक्र का परिणाम थीं .पूंजीवाद का वर्तमान आर्थिक संकट एक ध्रुवीय  विश्व-व्यवस्था का परिणाम भी है इसमें कई इराक .अफगानिस्तान और मिस्र स्वाहा हुए हैं .जो बच गए वे कहीं न कहीं समाजवाद की  फटी-टूटी वैचारिक छतरी की छाँव का सहारा लेकर ही शेष रहे हैं वर्ना विश्व व्यापी आर्थिक संकट-रुपी अजगर  ने उन्हें भी निगल लिया होता ....
        श्रीराम तिवारी
  
                                                     

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