गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

अरब़ देशों की जनता के संघर्षों का परिणाम इतिहास के गर्भ में छिपा है......

     मिस्र की जनता क्या चाहती है यह तो वही जाने किन्तु विगत एक महीने के दरम्यान  वहां सेकड़ों कुर्वानियों और दमनात्मक कार्यवाहियों ने इतना फल तात्कालिक तौर पर दे दिया की हुस्नी मुबारक को सत्ता से बेदखल होना पड़ा. बाकि सब ज्यों का त्यों चलेगा ;जब तक की कोई क्रांतीकारी मार्गदर्शक नेत्रत्व इस जन -अभिव्यक्ति का सिलसिलेवार जनवादी -जनतांत्रिकरन नहीं करता . उससे पहले ट्यूनीसिया  में भी जनाक्रोश फट पड़ा था .मिस्र ,बहरीन, अल्जीरिया, और यमन के बाद इस सूची में अब लीबिया का नाम जुड़ गया है.यहाँ के वेनगाजी शहर में अभी १५ फरवरी को सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों और पोलिस में हिंसक झडपें होने की खबर है .इसी बीच सरकार ने इस आन्दोलन की हवा निकालने के उद्देश्य से आन्दोलनकारियों की एक बहुत बड़ी मांग मान ली है .वर्षों से जेलों में बंद विपक्षी -विद्रोही राजनीतिज्ञों को फ़ौरन रिहा किये जाने की संभावना है.किन्तु आन्दोलन की मशाल कहीं भी बुझने वाली नहीं .
       उधर बहरीन में आन्दोलन प्रदर्शन तेज होते जा रहे हैं .राजधानी मनामा में विगत दिनों मारे गए एक प्रदर्शनकारी की शवयात्रा में शामिल सेकड़ों लोग सरकार के खिलाफ नारे लगाकर आक्रोश व्यक्त करते हुए जब कब्रगाह की ओर बढ़ रहे थे तो पोलिस से हिंसक भिडंत हो गई. प्रधानमंत्री शेख खलीफा बिन सलमान अल खलीफा के इस्तीफे की मांग उठने लगी है.मिस्र की तरह यहाँ भी जनता की आँख में धुल झोंकने के लिए बहरीन के शाह और उनके चचा हमद बिन इसा अल खलीफा को उदारवादी मुखौटे के रूप में पेश किये जाने की तैयारियां  व्हाईट हाउस में चल रहीं हैं . यमन की राजधानी साना में १५-१६ फरवरी की दरम्यानी रात को सरकार विरोधी एवं समर्थक प्रदर्शन कारियों में भयंकर झडपें हुईं पोलिस ने मूकदर्शक बने रहकर मिस्र जैसे ही हालातों के मद्देनजर अपनी आगामी भूमिका के लिए पत्ते बचाकार रखे हैं .
             ईराक की जनता भी फिरसे सड़कों पर आने को आतुर है ,अरब जगत में जारी विद्रोह और जन आंदोलनों  की लहर में अधिकांश जनता शिरकत करने लगी है सभी जगह एक ही तरह का अजेंडा है -लोकतंत्र ,आजादी , भ्रष्टाचार ,महंगाई और बेरोजगारी .उत्तरवर्ती तेल के कुओं के लिए विख्यात शहर किरकुक और दक्षिण के वसरा शहर में भी आम जनता ,विद्यार्थी ,मजदूर और किसान इन आंदोलनों में एक स्वर में क्रांतीकारी नारे लगा रहे हैं .
       ये तमाम मुल्क जहां पर जनता के आन्दोलन पनप रहे हैं , पेट्रोलियम उत्पादन पर निर्भर हैं .चूँकि पेट्रोलियम क्षेत्र की अधिकांश कम्पनियां चंद मुठ्ठी भर शेखों की ऐयाशी का साधन बन कर रह गई हैं ,अमेरिका और यूरोप के मार्फ़त एम् एन सी के कब्जे में सारी संपदा सिमिटती जा रही है ,अतेव जिन्दा रहने के लिए इन देशों का मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग अपना हिस्सा मांगने के लिए उठ खड़ा होने के लिए मचल रहा है .
       इस जनयुगीन संघर्ष की धारा कहीं जन-क्रान्ति की ओर न मुड जाए अत;अमेरिका का प्रचार तंत्र कोरे लोकतंत्र की खबरें उड़ा रहा है .उक्त आंदोलनों के मंच पर पूंजीवाद के भडेतों को भेजा जा रहा है.ये निहित स्वार्थी तत्व पहले तो जनता की हाँ में हाँ मिलते हैं -महंगाई -बेरोजगारी -भ्रष्टाचार
और दमनात्मक व्यवस्था की मुखालफत करते हैं ,ताकि सत्ता में बैठा उनका पिठ्ठू सुरक्षित बच निकल जाये और बाद में लोकतंत्र की दुहाई के रूप में अपना कोई और वैकल्पिक सम्पर्क सूत्र सत्ता में फिट किया जाए चूँकि आम जनता को उचित मार्ग दर्शन और ईमानदार नेत्रत्व के साथ साथ बेतरीन रोड-मेप की भी आवश्यकता होती है. इन सबके अभाव में पूंजीवादी साम्राज्यशाही  इस आन्दोलन के कंधे पर अपनी बन्दूक रखकर 'लाभ- शुभ' के अजेंडे को आगे बढ़ाती है .
           यही वजह है कि सारी दुनिया में जनता के संघर्ष तो निरंतर जारी हैं किन्तु इसके परिणाम वैसे ही शून्य हैं जैसे कि ऊसर जमीन में बीज बोने का हश्र होता है .संघर्षरत जनता को लोकतंत्र का लालीपाप दिखाया  जाता है. जबकि दुनिया भर कि सारी बुराइयों कि जड़ यही लोकतंत्र सावित हो चूका है .गरीबी ,भुखमरी ,असमानता ,भ्रष्टाचार  ,और श्रम की लूट जितनी इस पूंजीवादी लोकतंत्र में होती है  -उतनी सामंतशाही और तानाशाही में भी नहीं .साम्यवादी सर्वहारा कि तानाशाही में तो ये बीमारियाँ जड़-मूल से समाप्त हो जाती हैं किन्तु दुनिया में जब तक एक भी मुल्क में पूंजीवादी लोकतंत्र नामक मृगमारिचिका होगी वह फिरसे प्रतिक्रान्ती को प्रेरित करने का काम करती रहेगी .
     अरब देशों कि जनता भी उसी वैश्विक बीमारी से ग्रस्त है जिसका नाम -उद्दाम सरमायेदारी है .इस व्यवस्था में वैज्ञानिक प्रगति तो खूब होती है किन्तु इस प्रगति के लाभों पर चंद शक्तिशाली दवंगों या शासकों  का ही होता है .वैश्विक आर्थिक संकट कि बीमारी का निदान भी वैश्विक ही है .सिर्फ आन्दोलन -प्रदर्शन -हड़ताल या हिंसक झडपों से इस बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता .जिस प्रकार मिट्टी के घड़े के छेद को मिट्टी से ,धातु के वर्तन-भांडों को धातु से और सोने के जेवर को सोने से सुधार जाता है उसी तरह वैश्विक आर्थिक संकट और प्रतिस्पर्धी व्यवस्थाओं के द्वंदात्मक संघर्ष को कठोर आर्थिक अनुशासनों  से ही रोका जा सकता है .इसके लिए मुनाफे पर आधारित निजी-संपत्ति के अधिकार कि कुर्वानी देनी होगी .सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर हो रही अय्याशी  और  बेजा-धांधली को रोकना होगा .
      मिस्र समेत अरब राष्ट्रों की जनता जिस राह पर चल पड़ी है वह  पूंजीवादी लोकतंत्र की   चकाचोंध रुपी मृग-तृष्णा  भर है.यह दिग्भ्रम है ,भ्रान्ति है ,इसे क्रांति कहना तो क्रांति का अपमान है .इन अनगड़ झडपों से तो यथास्थिति वाद ही ज्यादा सहनीय है.जिस आग में कूड़ा करकट जले ,पाप पंक मिटे .शैतान टले-तो वह क्रांति है .किन्तु जिस आग में किसी गरीब की झोपडी जले ,खेत की खडी फसल जले ,पशु जलें -तो यह प्रतिक्रांति है .जिस आग में उसकी  प्रचेता- अर्थात संघर्षशील जनता  ही घिरने लगे-आपस में गृह युद्ध की स्थिति आ जाये और शाशक वर्ग मौज करता रहे तो इस आग को क्या कहेंगे ? सत्ता परिवर्तन में नागनाथ की जगह सापनाथ जी आजायेंगे तो जनता को मौजूदा तकलीफों से निज़ात नहीं मिलने वाली .
   जब तलक आर्थिक -सामजिक -राजनैतिक बदलाव के लिए वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित व्यवस्था परिवर्तन के लिए वर्ग चेतना से लैस मेहनतकश मजदूर किसानो और ईमानदार-अनुशाषित  पढ़े लिखे नौजवानों का मजबूत संगठन नहीं होगा ,क्रांतियों की बलि वेदी पर बलिदान व्यर्थ जाते रहेंगे ...
                 श्रीराम तिवारी .

1 टिप्पणी:

  1. बात आपकी बिलकुल सही है परन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु संघर्ष की सीख देने का ढंग बदलना कामयाबी के लिए जरूरी है.

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