विगत दिनों मुंबई पोर्ट से दो समाचार एक जैसे आये.एक -विदेशी आयातित प्याज बंदरगाहों पर सड़ रही थी .कोई महकमा या सरकार सुध लेने को तैयार नहीं ;परिणामस्वरूप देश में निम्नआय वर्ग की थाली से प्याज लगभग गायब ही हो चुकी थी . दूसरा समाचार ये था कि पश्चिमी विकसित राष्ट्रों का परमाण्विक कचरा भारतीय बंदरगाहों से ; रातोंरात ऐसे उतारवा लिया कि किसी को भी कानों कान भनक भी नहीं लगी .वह खतरनाक परमाणुविक रेडिओ-धर्मी कूड़ा करकट कहाँ फेंका गया? मुझे नहीं मालूम ,उसके नकारात्मक परिणामों का सरकार और जनता ने क्या निदान ढूंढा वह भी मुझे नहीं मालूम .जिस किसी भारतीय दिव्य-आत्मा को मालूम हो सो सूचित करे .....
यह नितांत सोचनीय है कि एक ओर देश के बंदरगाहों पर विदेशी औद्योगिक कचरे को उतारा जा रहा है ,दूसरी ओर खुले आम कहा जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों को प्रदूषण-निर्यात से अमेरिका को तो भारी लाभ होगा ही आयातक राष्ट्रों को भी विकसित राष्ट्रों -G -२० से आधुनिकतम तकनालोजी और विश्व बैंक की कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्धि कि गारंटी का प्रलोभन .विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार सामर्स का कहना है कि ' हमें तीसरी दुनिया को प्रदूषण निर्यात करने कि जरुरत है' यह पूंजीवादी पश्चिमी राष्ट्रों कि क्रूरतम मानसिकता और उद्द्योग-जनित प्रदुषण संकट को विस्थापित करने की साम्राज्यवादी दादागिरी नहीं तो और क्या है ? उनका तर्क है की तीसरी दुनिया के अधकांश देश अभी भी औद्योगीकरण से कोसों दूर हैं, उनके समुद्रीय किनारों पर यदि किसी तरह का परमाणु कचरा फेंका जाता है तो इससे होने वाला वैश्विक पर्यावरण प्रदूषण उतना घातक नहीं होगा जितना कि उस सूरते-हाल में संभावित है; जब वो उन्नत राष्ट्रों की सरजमी पर ही पड़ा रहे या यूरोप अमेरिका के सामुद्रिक तटों पर दुष्प्रभावी विकिरणों से धरती को नष्ट करता रहे .उनका एक तर्क और भी है कि तीसरी दुनिया में मौत कि लागत कम है याने जिन्दगी सस्ती सो विषाक्त कचरा तीसरी दुनिया के देशों कि सर-जमीन पर उनके समुद्र तटों पर भेजना युक्तिसंगत है . प्रदूषित पदार्थों के सेवन से चाहे मछलियाँ मरें या इंसान उन्नत देशों के रहनुमाओं को लगता है कि यह सस्ता सौदा है क्योकि इन उन्नत देशों में मौत महंगी हुआ करती है .
पूंजीवादी मुनाफाखोरों की सभ्यता के निहितार्थ स्पष्ट हैं .२०० सालों से यह सिलसिला जारी है .ये तब भी था जब अधिकांश तीसरी दुनिया गुलाम थी .ये तब भी है जबकि लगभग सारी दुनिया आजाद है . प्रारंभ में तो व्यापार और आग्नेय अश्त्रों कि बिना पर यह पूंजीवादी निकृष्ट रूप सामने आया था ; बाद में निवेश ,कर्ज और अब प्रौद्योगिकी हस्तांतरण ने विकासशील देशों को पूंजीवादी सबल राष्ट्रों का लगभग गुलाम ही बना डाला है -यही नव्य उदारवाद की बाचिक परिभाषा हो सकती है .तीसरी दुनिया को एक ओर तो आउटडेट तकनीकी निर्यात की जाती है, दूसरी ओर जिन नकारात्मक आत्मघाती शर्तों पर विकासशील राष्ट्रों में औद्द्योगीकरन थोड़े हीले-हवाले से आगे बढ़ा उनमें ये शर्तें भी हैं की आप तीसरी दुनिया के लोग अपने जंगलात ,नदियाँ पर्वत स्वच्छ रखें ताकि हम पश्चिम के उन्नत राष्ट्र तुम्हारे देश में आकर उसे इसलिए गन्दा कर सकें की हमारे हिस्से के विषाक्त कचरे का निस्तारण हो सके और पर्यावरण संतुलन की जन-आकांक्षा के सामने हमें घुटने न टेकने पड़ें . विकासशील देशों के पर्यावरण संगठन जंगल बचाने या विकसित देशों के कचरे आयात करने से रोकने के अभियान को मजबूत बनाने के लिए विश्व-व्यापार संगठन पर न तो दबाव डाल रहे हैं और न ही इसमें निहित असमानता ,अन्याय एवं खतरनाक आर्थिक -राजनैतिक दुश्चक्र के खिलाफ कोई क्रांतीकारी सांघातिक प्रहार कर पा रहे हैं .यह विडम्बना ही है कि विकसित देशों के पर्यावरण संगठन अपनी सरकारों पर बेजा दबाव डालते हैं कि वे उनके देशों कि जिजीविषा कि खातिर विकासशील राष्ट्रों से अमुक-अमुक आयात बंद करें .उनके लिए कोस्टारिका ,भारत या बंगला देश कि शक्कर और शहद भी कडवी है, सो इन गरीब देशों के कपड़ों से लेकर खाद्यान्न तक में उन्हें जैविक-प्रदूषण नज़र आता है ये पर्यावरणवादी पाश्चात्य संगठन ये भूल जाते हैं कि तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के पिछड़ेपन ,अशिक्षा और तमाम तरह के प्रदूषण के लिए सम्पन्न और विकसित राष्ट्र ही जिम्मेदार हैं ;उन्ही के राष्ट्र हितैषियों कि करतूत से तीसरी दुनिया में कुपोषण ,भुखमरी ,जहालत और प्रदूषण इफरात से फैला पड़ा है .
विकाशशील देश इस भ्रम में हैं कि उनके यहाँ प्रौद्द्योगिकी आ रही है ,उनका आर्थिक उत्थान होने जा रहा है किन्तु वे प्रदूषण-समस्या के साथ-साथ बेरोजगारी और विषमता ही आयात कर रहे हैं .विकासशील देशों को ऐसा रास्ता ढूँढना होगा जो इस परिवर्तन कि प्रक्रिया को न केवल रोजगार मूलक बनाए अपितु धरती के स्वरूप को और ज्यादा हानि न पहुंचाए . तब अमेरिका में इंसानी-जिन्दगी महंगी और भारत में इतनी सस्ती न होगी कि भोपाल गैस काण्ड कि २५ वीं वर्षगाँठ पर असहाय अपंगता को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़े .....
श्रीराम तिवारी
C:\WINDOWS\hinhem.scr
यह नितांत सोचनीय है कि एक ओर देश के बंदरगाहों पर विदेशी औद्योगिक कचरे को उतारा जा रहा है ,दूसरी ओर खुले आम कहा जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों को प्रदूषण-निर्यात से अमेरिका को तो भारी लाभ होगा ही आयातक राष्ट्रों को भी विकसित राष्ट्रों -G -२० से आधुनिकतम तकनालोजी और विश्व बैंक की कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्धि कि गारंटी का प्रलोभन .विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार सामर्स का कहना है कि ' हमें तीसरी दुनिया को प्रदूषण निर्यात करने कि जरुरत है' यह पूंजीवादी पश्चिमी राष्ट्रों कि क्रूरतम मानसिकता और उद्द्योग-जनित प्रदुषण संकट को विस्थापित करने की साम्राज्यवादी दादागिरी नहीं तो और क्या है ? उनका तर्क है की तीसरी दुनिया के अधकांश देश अभी भी औद्योगीकरण से कोसों दूर हैं, उनके समुद्रीय किनारों पर यदि किसी तरह का परमाणु कचरा फेंका जाता है तो इससे होने वाला वैश्विक पर्यावरण प्रदूषण उतना घातक नहीं होगा जितना कि उस सूरते-हाल में संभावित है; जब वो उन्नत राष्ट्रों की सरजमी पर ही पड़ा रहे या यूरोप अमेरिका के सामुद्रिक तटों पर दुष्प्रभावी विकिरणों से धरती को नष्ट करता रहे .उनका एक तर्क और भी है कि तीसरी दुनिया में मौत कि लागत कम है याने जिन्दगी सस्ती सो विषाक्त कचरा तीसरी दुनिया के देशों कि सर-जमीन पर उनके समुद्र तटों पर भेजना युक्तिसंगत है . प्रदूषित पदार्थों के सेवन से चाहे मछलियाँ मरें या इंसान उन्नत देशों के रहनुमाओं को लगता है कि यह सस्ता सौदा है क्योकि इन उन्नत देशों में मौत महंगी हुआ करती है .
पूंजीवादी मुनाफाखोरों की सभ्यता के निहितार्थ स्पष्ट हैं .२०० सालों से यह सिलसिला जारी है .ये तब भी था जब अधिकांश तीसरी दुनिया गुलाम थी .ये तब भी है जबकि लगभग सारी दुनिया आजाद है . प्रारंभ में तो व्यापार और आग्नेय अश्त्रों कि बिना पर यह पूंजीवादी निकृष्ट रूप सामने आया था ; बाद में निवेश ,कर्ज और अब प्रौद्योगिकी हस्तांतरण ने विकासशील देशों को पूंजीवादी सबल राष्ट्रों का लगभग गुलाम ही बना डाला है -यही नव्य उदारवाद की बाचिक परिभाषा हो सकती है .तीसरी दुनिया को एक ओर तो आउटडेट तकनीकी निर्यात की जाती है, दूसरी ओर जिन नकारात्मक आत्मघाती शर्तों पर विकासशील राष्ट्रों में औद्द्योगीकरन थोड़े हीले-हवाले से आगे बढ़ा उनमें ये शर्तें भी हैं की आप तीसरी दुनिया के लोग अपने जंगलात ,नदियाँ पर्वत स्वच्छ रखें ताकि हम पश्चिम के उन्नत राष्ट्र तुम्हारे देश में आकर उसे इसलिए गन्दा कर सकें की हमारे हिस्से के विषाक्त कचरे का निस्तारण हो सके और पर्यावरण संतुलन की जन-आकांक्षा के सामने हमें घुटने न टेकने पड़ें . विकासशील देशों के पर्यावरण संगठन जंगल बचाने या विकसित देशों के कचरे आयात करने से रोकने के अभियान को मजबूत बनाने के लिए विश्व-व्यापार संगठन पर न तो दबाव डाल रहे हैं और न ही इसमें निहित असमानता ,अन्याय एवं खतरनाक आर्थिक -राजनैतिक दुश्चक्र के खिलाफ कोई क्रांतीकारी सांघातिक प्रहार कर पा रहे हैं .यह विडम्बना ही है कि विकसित देशों के पर्यावरण संगठन अपनी सरकारों पर बेजा दबाव डालते हैं कि वे उनके देशों कि जिजीविषा कि खातिर विकासशील राष्ट्रों से अमुक-अमुक आयात बंद करें .उनके लिए कोस्टारिका ,भारत या बंगला देश कि शक्कर और शहद भी कडवी है, सो इन गरीब देशों के कपड़ों से लेकर खाद्यान्न तक में उन्हें जैविक-प्रदूषण नज़र आता है ये पर्यावरणवादी पाश्चात्य संगठन ये भूल जाते हैं कि तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के पिछड़ेपन ,अशिक्षा और तमाम तरह के प्रदूषण के लिए सम्पन्न और विकसित राष्ट्र ही जिम्मेदार हैं ;उन्ही के राष्ट्र हितैषियों कि करतूत से तीसरी दुनिया में कुपोषण ,भुखमरी ,जहालत और प्रदूषण इफरात से फैला पड़ा है .
विकाशशील देश इस भ्रम में हैं कि उनके यहाँ प्रौद्द्योगिकी आ रही है ,उनका आर्थिक उत्थान होने जा रहा है किन्तु वे प्रदूषण-समस्या के साथ-साथ बेरोजगारी और विषमता ही आयात कर रहे हैं .विकासशील देशों को ऐसा रास्ता ढूँढना होगा जो इस परिवर्तन कि प्रक्रिया को न केवल रोजगार मूलक बनाए अपितु धरती के स्वरूप को और ज्यादा हानि न पहुंचाए . तब अमेरिका में इंसानी-जिन्दगी महंगी और भारत में इतनी सस्ती न होगी कि भोपाल गैस काण्ड कि २५ वीं वर्षगाँठ पर असहाय अपंगता को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़े .....
श्रीराम तिवारी
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