सन - २००१ में ९/११ को ट्विन टॉवर- वर्ल्ड ट्रेड सेंटर अमेरिका पर हुए आत्मघाती आतंकी हमले में जो २९९६ लोग मारे गए थे वे सभी कामकाजी और निर्दोष मानव थे .उनमें से शायद ही कोई निजी तौर पर उन हमलावरों की कट्टरवादी सोच या उनके आतंकी संगठन से दूर का भी नाता -रिश्ता रखता हो .दिवंगतों के प्रति परोक्ष रूप से इस्लामिक आतंकवाद को जिम्मेदार माना गया और इस बहाने बिना किसी ठोस सबूत के ईराक को बर्बाद कर दिया गया. क्या अब दुनिया भर के शांतिकामी लोग संतुष्ट हैं कि ट्विन टावर के दोषियों पर कार्यवाही की जा चुकी है ?
क्या अब यह मान लिया जाये कि जो कुछ भी ९/११ को और ३०-१२-२००६ {सद्दाम को फांसी] को जो हुआ उसमें तादात्मयता वास्तव में पाई गई ? क्या मुद्दई, मुद्दालेह ,और गवाह सब इतिहास में चिन्हित किये जा चुके हैं ? इन सवालों के जवाब कब तक नहीं दिए जायेंगे, भावी पीढियां भी तब तलक इतिहास से सबक सीखना पसंद नहीं करेंगी .
वैसे तो यह प्राकृतिक स्थाई नियम है कि दुनिया के हर देश में ,हर समाज में ,हर मजहब-कबीले में ,हर पंथ में -उसे ख़त्म करने के निमित्त उसका शत्रु उसी के गर्भ से जन्म लेता है .यह सिद्धांत इतना व्यापक है कि अखिल-ब्रह्मांड में कोई भी चेतन-अचेतन पिंड या समूह इसकी मारक रेंज से बाहर नहीं है .इस थ्योरी का कब कहाँ प्रतिपादन हुआ मुझे याद नहीं किन्तु इसकी स्वयम सिद्धता पर मुझे कोई संदेह नहीं .भारत के पौराणिक आख्यान तो अनेकों सन्दर्भों के साथ चीख-चीख कर इसकी गवाही दे ही रहे हैं ; अपितु वर्तमान २१ वीं शताब्दी में व्यवहृत अनेकों घटनाएँ भी इसे प्रमाणित करती हुई इतिहास के पन्नों में दर्ज होती जा रहीं हैं .
मार्क्स-एंगेल्स की यह स्थापना कि सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म होता है और यह पूंजीवाद ही सामंतशाही को खत्म करता है ..इसे तो सारी दुनिया ने देखा-सुना-जाना है , इसी तरह उनकी यह स्थापना कि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा जो पूंजीवाद को खा जायेगा यह अभी कसौटी पर खरे उतरने के लिए बहरहाल तो प्रतीक्षित है किन्तु यह एक दिन अवश्य सच होकर रहेगी. अधुनातन वैज्ञानिक भौतिक-अनुसंधानों की रफ्तार तेज होने , संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के अति-उन्नत होते जाने, लोकतान्त्रिक,अभिव्यक्ति सम्पन्न उदारवादी पूंजीवाद के लचीलेपन ने उसे दीर्घायु तो बना दिया किन्तु अमरत्व पीकर तो कोई भी नहीं जन्मा. एक दिन आएगा तब ये व्यवस्था भी नहीं रहेगी .तब हो सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था का स्वरूप वैसा न हो जो सोवियत संघ में था ,या जो आज चीन -क्यूबा -वियतनाम -उत्तर कोरिया में है .किन्तु वह जो भी होगी इन सबसे बेहतर और सबसे मानवीकृत ही होगी .साम्यवाद से नफरत करने वाले चाहें तो उसे कोई और नाम देकर तसल्ली कर सकते हैं .किन्तु बिना सोचे समझे, बिना जाने-बूझे पूंजीवाद रुपी कुल्हाड़ी का बेत बन जाने से अच्छा था कि अपेक्षित जन- क्रांति को एक अवसर अवश्य देते .
क्या अब यह मान लिया जाये कि जो कुछ भी ९/११ को और ३०-१२-२००६ {सद्दाम को फांसी] को जो हुआ उसमें तादात्मयता वास्तव में पाई गई ? क्या मुद्दई, मुद्दालेह ,और गवाह सब इतिहास में चिन्हित किये जा चुके हैं ? इन सवालों के जवाब कब तक नहीं दिए जायेंगे, भावी पीढियां भी तब तलक इतिहास से सबक सीखना पसंद नहीं करेंगी .
वैसे तो यह प्राकृतिक स्थाई नियम है कि दुनिया के हर देश में ,हर समाज में ,हर मजहब-कबीले में ,हर पंथ में -उसे ख़त्म करने के निमित्त उसका शत्रु उसी के गर्भ से जन्म लेता है .यह सिद्धांत इतना व्यापक है कि अखिल-ब्रह्मांड में कोई भी चेतन-अचेतन पिंड या समूह इसकी मारक रेंज से बाहर नहीं है .इस थ्योरी का कब कहाँ प्रतिपादन हुआ मुझे याद नहीं किन्तु इसकी स्वयम सिद्धता पर मुझे कोई संदेह नहीं .भारत के पौराणिक आख्यान तो अनेकों सन्दर्भों के साथ चीख-चीख कर इसकी गवाही दे ही रहे हैं ; अपितु वर्तमान २१ वीं शताब्दी में व्यवहृत अनेकों घटनाएँ भी इसे प्रमाणित करती हुई इतिहास के पन्नों में दर्ज होती जा रहीं हैं .
मार्क्स-एंगेल्स की यह स्थापना कि सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म होता है और यह पूंजीवाद ही सामंतशाही को खत्म करता है ..इसे तो सारी दुनिया ने देखा-सुना-जाना है , इसी तरह उनकी यह स्थापना कि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा जो पूंजीवाद को खा जायेगा यह अभी कसौटी पर खरे उतरने के लिए बहरहाल तो प्रतीक्षित है किन्तु यह एक दिन अवश्य सच होकर रहेगी. अधुनातन वैज्ञानिक भौतिक-अनुसंधानों की रफ्तार तेज होने , संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के अति-उन्नत होते जाने, लोकतान्त्रिक,अभिव्यक्ति सम्पन्न उदारवादी पूंजीवाद के लचीलेपन ने उसे दीर्घायु तो बना दिया किन्तु अमरत्व पीकर तो कोई भी नहीं जन्मा. एक दिन आएगा तब ये व्यवस्था भी नहीं रहेगी .तब हो सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था का स्वरूप वैसा न हो जो सोवियत संघ में था ,या जो आज चीन -क्यूबा -वियतनाम -उत्तर कोरिया में है .किन्तु वह जो भी होगी इन सबसे बेहतर और सबसे मानवीकृत ही होगी .साम्यवाद से नफरत करने वाले चाहें तो उसे कोई और नाम देकर तसल्ली कर सकते हैं .किन्तु बिना सोचे समझे, बिना जाने-बूझे पूंजीवाद रुपी कुल्हाड़ी का बेत बन जाने से अच्छा था कि अपेक्षित जन- क्रांति को एक अवसर अवश्य देते .
यह सर्वविदित है कि एक बेहतर शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन, जाति-विहीन समाज व्यवस्था के हेतु से दुनिया भर के मेहनतकश निरंतर संघर्षरत हैं ,इस संघर्ष को विश्वव्यापी बनाये जाने कि जरुरत है .अभी तो सभी देशों और सभी महाद्वीपों में अलग-अलग संघर्ष और अलग-अलग उदेश्य होने से कोई दुनियावी क्रांति कि संभावना नहीं बन सकी है .इस नकारात्मक अवरोधी स्थिति के लिए जो तत्व जिम्मेदार हैं वे 'सभ्यताओं का संघर्ष ', आर्थिक मंदी ' 'लोकतंत्र 'के मुखौटे पहनकर दुनिया भर के प्रगतिशील जन-आंदोलनों कि भ्रूणह्त्या करते रहे हैं .जिस तरह कंस मामा ने इस आशंका से कि मेरा बधिक मेरी बहिन कि कोख से जन्म लेगा सो क्यों न उसको जन्मते ही मार दूं ? इसी प्रकार पूंजीवादी वैश्विक-गंठजोड़ बनाम विश्व बैंक ,अमेरिका , आई एम् ऍफ़ ,पेंटागन ,सी आई ए और चर्च की साम्राज्यवादी ताकतों ने कभी अपने पूंजीवाद-रुपी कंस को बचाने के लिए ;कभी चिली ,कभी क्यूबा ,कभी भारत ,कभी बेनेजुएला ,कभी सोवियत संघ ,कभी वियतनाम और कोरिया इत्यादि में जनता की जनवादी-क्रांतियों की जन्मते ही हत्याएं कीं हैं .हालाँकि श्रीकृष्ण रुपी साम्यवादी क्रांती अजर अमर है और पूंजीवाद रुपी कंस को यम लोक जाना ही होगा .
पूंजीवादी साम्राज्यवाद अपने विरुद्ध होने वाले शोषित सर्वहारा के संघर्षों की धार को भौंथरा करने के लिए समाज के कमजोर वर्ग के लोगों में अपनी गहरी पेठ जमाने की हर सम्भव कोशिश करता है .पहले तो वह संवेदनशील वर्गों में आपस का वैमनस्य उत्पन्न करता है ,फिर उन्हें लोकतंत्र के सपने दिखाता है ,जब जनता की सामूहिक एकता तार-तार हो जाती है तो क्रांति की लौ बुझाने के लिए फूंक भी नहीं मारनी पड़ती .पूंजीवाद का सरगना अमेरिका है ;वह पहले सद्दाम को पालता है कि वो ईरान को बर्बाद कर दे ,जब सद्दाम ऐसा करते-करते थक जाए या पूंजीवादी केम्प के इशारों पर नाचने से इनकार कर दे तो कभी रासायनिक हथियारों के नाम पर ,कभी ९//-११ के आतंकी हमले के नाम पर सद्दाम को बंकरों से घसीटकर फाँसी पर लटका दिया जाता है .आदमखोर पूंजीवाद पहले तो अफगानिस्तान में तालिबानों को पालता है ,ताकि तत्कालीन सोवियत सर्वहारा क्रांति को विफल किया जा सके ,यही तालिबान या अल-कुआयदा जब वर्ल्डट्रेड सेंटर ध्वस्त करने लगें तो 'सभ्यताओं के संघर्ष' के नाम पर लाखों निर्दोष इराकियों ,अफगानों तथा पख्तूनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है . भले ही इस वीभत्स नरसंहार में हजारों अमेरिकी नौजवान भी बेमौत मारे जाते रहेँ. इन पूंजीपतियों कि नजर में इंसान से बढ़कर पूँजी है ,मुनाफा है ,आधिपत्य है ,अभिजातीय दंभ है .
पूंजीवादी साम्राज्यवाद कभी क्यूबा में ,कभी लातीनी अमेरिका में , कभी मध्य-एशिया में और कभी दक्षिण- एशिया में गुर्गे पालता है .हथियारों के जखीरे बेचने के लिए बाकायदा दो पड़ोसियों में हथियारों कि होड़ को बढ़ावा देता है जब दो राष्ट्र आपस में गुथ्म्गुथ्था होने लगें तो शांति के कबूतर उड़ाने के लिए सुरक्षा-परिषद् में भाषण देता है .जो उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता उसे वो धूल में मिलाने को आतुर रहता है .व्यपारिक ,आर्थिक प्रतिबंधों कि धौंस देता है .
दक्षिण एशिया में भारत को घेरने कि सदैव चालें चलीं जाती रहीं हैं .एन जी ओ के बहाने ,मिशनरीज के बहाने ,हाइड एक्ट के बहाने अलगाववाद ,साम्प्रदायिकता और परमाण्विक संधियों के बहाने भारत के अंदर सामाजिक दुराव फैलाया जाता है . बाहर से पड़ोसियों को ऍफ़ -१६ या अधुनातन हथियार देकर , आर्थिक मदद देकर भारत को घेरने कि कुटिल-चालें अब किसी से छिपी नहीं हैं .
जो कट्टरपंथी आतंकवादी तत्व हैं वे अमेरिकी नाभिनाल से खादपानी अर्थात शक्ति अर्जित करते हैं . अधिकांश बाबा ,गुरु और भगवान् अमेरिका से लेकर यूरोप तक अपना आर्थिक-साम्राज्य बढ़ाते हैं .ये बाबा लोग नैतिकता कि बात करते हैं .देश कि व्यवस्था को कोसते हैं किन्तु पूंजीवाद या सरमायेदारी के खिलाफ ,बड़े जमींदारों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते .कुछ कट्टरपंथी तत्व चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक अपने-अपने धरम मजहब को व्यक्तिगत जीवन से खींचकर सार्वजनिक जीवन में या राजनीति में भी जबरन घसीट कर देश कि मेहनतकश जनता में फ़ूट डालने का काम करते हैं .प्रकारांतर से ये पूंजीवाद कि चाकरी करते हैं .पूंजीवाद ही इन तत्वों को खाद पानी देता है इसीलिये आम जनता के सरोकारों को -भूंख ,गरीबी ,महंगाई ,बेरोजगारी ,लूट ,हत्या ,बलात्कार और भयानक भ्रष्टाचार इत्यादि के लिए किये जाने वाले संयुक्त संघष -को वांछित जन -समर्थन नहीं मिल पाता.यही वजह है कि शोषण और अन्याय कि व्यवस्था बदस्तूर जारी है .देश कि आम जनता को ,मजदूर आंदोलनों को चाहिए कि राजनैतिक -आर्थिक मुद्दों के साथ - साथ जहाँ कहीं धार्मिक या जातीय-वैमनस्य पनपता हो ,धर्मान्धता या कट्टरवाद का नग्न प्रदर्शन होता हो ,देश की अस्मिता या अखंडता को खतरा हो ,वहां-वहां ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वर्ग-संघर्ष की चेतना से लैस होकर प्रभावशाली ढंग से मुकबला करें .कौमी एकता तथा धर्म-निरपेक्षता की शिद्दत से रक्षा करें .किसी भी क्रांति के लिए ये बुनियादी मूल्य हैं ,पूंजीवादी-सामंती ताकतें इन मूल्यों को ध्वस्त करने पर तुली हैं और यही मौजूदा दौर की सबसे खतरनाक चुनौती है .इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की एकता और उसके सतत संघर्ष द्वारा ही सक्षम हुआ जा सकता है. .
श्रीराम तिवारी
का.बिलकुल ठीक कहा आपने -धार्मिक आडम्बर वाद पर प्रहार किये बिना जनांदोलनों को सफल नहीं बनाया जा सकता.निजी स्तर पर मैं अपने ब्लाग में ऐसा ही कर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ,हमारी सोच के लोग कम ज़रूर हैं किंतु हमें पक्का यकीं है की हम सच्चाई के रास्ते पर हैं ,अतएव अंत में विजय हमारी ही होगी .......
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