आधुनिकतम उन्नत सूचना एवं प्रौद्द्योगिकी के दौर में विश्व-रंगमंच पर कई क्षणिकाएं-यवनिकाएं बड़ी तेजी से अभिनीत हो रहीं हैं . २१ वीं शताव्दी का प्रथम दशक सावधान कर चुका है कि दुनिया जिस राह पर चल रही है वो धरती और मानव मात्र की जिन्दगी को छोटा करने का उपक्रम मात्र है .जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देश और देश से बाहर दुनिया के कोने-कोने में तीव्रगामी परिवर्तनों की अनुगूंज सुनाई दे रही है .मानव-निर्मित नकारात्मक परिवर्तनों से न केवल प्राणी-जगत का अपितु स्वयम मानव-जाति का भविष्य ही खतरे में पड़ता जा रहा है . सबसे ज्यादा चिंता का विषय है- विज्ञान का प्रयोग . विज्ञान के प्रयोग मानवीय मूल्यों की चिंता किये बिना, विध्वंस तथा विनाश के पक्ष में ज्यादा किये जा रहे हैं .यह प्रवृत्ति विगत शताब्दी से ही परवान चढ़ रही है ;किन्तु तब दुनिया के सामने विज्ञान का एक मानवीय चेहरा भी हुआ करता था . सोवियत-साम्यवादी व्यवस्था में विज्ञान को ,कला को, और ज्ञान की तमाम विधाओं को ,मानवता के पक्ष में प्रयुक्त किया था.
सोवियत व्यवस्था के पराभव ने सारे समीकरणों को एक झटके में उलट कर सारी मानवता के विरोध में ला खड़ा कर दिया है .तथाकथित पैरोश्त्रोइका या ग्लास्त्नोस्त के आगाज से लेकर आज तक एक ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था के चलते न केवल समानता ,स्वतंत्रता ,बंधुत्व की शानदार मानवीय अवधारणाएँ संकुचित हुईं अपितु छद्म जन -कल्याण कारी प्रयोजनों को भी तिलांजलि दे दी गई .हालाँकि ये छद्म जन-कल्याणकारी अर्थतंत्र की व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ उठने वाले जन-उभार को रोकने के लिए सेफ्टी वाल्व का ही काम करती थी .किन्तु फिर भी यह मानवीय मुखौटा ही सही दुनिया भर में नव-स्वतंत्र राष्ट्रों को गाढे में खूब काम आया .अब तो इस मुखौटे को भी नौचा जा रहा है .अब पूंजीवाद अपने चरम पर पहुँचने को आतुर है; इसके महाविनाश की भविष्यवाणी भले ही कभी सच हो जाये किन्तु आज तो तमाम गरीब मुल्को में ,विकाशशील देशों में यहाँ तक कि कतिपय विकसित राष्ट्रों में इसका नंगा नाच देखा जा सकता है .विगत शताब्दी के उत्तरार्ध से ही पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने इस मुखौटे कि जगह कोई और विकल्प अजमाने कि राह खोजनी शुरूं कर दी थी दुनिया के दुर्भाग्य से और शैतान की करामात से उसे 'सभ्यताओं का संघर्ष 'मिल गया इसी दौरान उन्हें नव्य-उदारवादी चेहरे के पीछे अपनी पैशाचिक पहचान छिपाने की सूझी .इसी का परिणाम था कि जो अमेरिका दुनिया भर में आर्थिक नाकेबंदियों ,सैन्य-हस्तक्षेप के लिए बदनाम था और हथियारों का सबसे बड़ा निर्यातक बन बैठा था वो इस २१ वीं शताब्दी कि उषा-वेला में भयानक आर्थिक संकट में फंसता चला गया ..
अमेरिकी सब प्राइम संकट को धमाल मचाये हुए ४ साल हो चुके हैं ,सेंसेक्स के चढने-उतरने को अर्थव्यवस्था का वेरोमीटर मानने वाले अर्थशास्त्री पस्त हैं. मानव मूल्यों कि पैरवी करने वाले वाम-पंथी बुद्धिजीवी अब हासिये पर हैं ,असफल नीतियों को प्रचार माध्यमों कि विना पर कोरी लफ्फाजी से सराहा जा रहा है .भूमंडलीकरण ,वैश्वीकरण को श्रम-शक्ति से परे रखा जाता रहा है .यत्र-तत्र-सर्वत्र जन-संघर्षों को दबाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी का प्रयोग किया जा रहा है. माल्थस और एडम स्मिथ फ़ैल हो चुके हैं .जो कल तक विश्व का थानेदार था वो अब हर जगह अपने ही पालतू कुत्तों से परेशान है .
सामान्य वुद्धि बाला इन्सान भी जानता है कि महंगाई और भृष्टाचार पूंजीवादी आर्थिक-नीतियों कि असफलता हैं किन्तु हमारे देशज भारतीय नीति-निर्माता तो उन्ही सर्वनाशी दिवालिया नीतियों कि जय-जय कर कर रहे हैं .जैविक-खेती और व्युत्पन्नों के लालच ने वैज्ञानिक अनुसन्धान और सूचना-प्रौद्दोगिकी को आदमखोरों की मांद में धकेल दिया है. जब अमेरिका में खाद्यान्न संकट छाया तो जोर्ज बुश और कोंडलीजा राईस ने भारतीयों और चीनियों पर अधिक भोजन भट्ट होने का आरोप लगाया था, अब अमेरिकी युवकों की बेतहाशा वेरोजगारी से आक्रान्त बराक ओबामा जी और सुश्री हिलेरी क्लिंटन ने "नो टू बंगलुरु ....नो टू बीजिंग .".....का नारा बुलंद किया है ...
भारत के बारे में ,भारतीय नेताओं के बारे में , भारतीय जनता के बारे में ,भारत को संयुक-राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थाई सीट के लिए प्रस्तावित किये जाने के बारे में ,भारत के खिलाफ पाकिस्तान और अन्य दुश्मन ताकतों की साजिशों के बारे में अमेरिकन क्या सोच रखते हैं? यह जानने के लिए विकीलीक्स के खुलासे द्रष्टव्य हैं. इस सबके वावजूद की सारी दुनिया में पूंजीवादी आर्थिक उदारीकारण के दुष्परिणाम परिलक्षित होने लगे हैं .स्वयम भारत में अर्ध-सामंती, अर्ध-पूंजीवादी खच्चर व्यवस्था के परिणामस्वरूप एक तरफ तो देश की संपदा विदेशी एम् एन सी लूट कर ले जा रहे हैं, दूसरी ओर देश के भृष्ट नेता और पूंजीपति देश की संपदा को लूटकर विदेशी तिजोरियों में जमा कर रहे हैं. फिर भी भारत में मिस्र जैसे हालत नहीं बन पाने की वजह है की भारत में बेहतर न्यायपालिका है ,बेहतर मीडिया और बेहतर ट्रेड यूनियन आन्दोलन है . ,बेहतर लोकतंत्र है . शानदार धर्मनिरपेक्षता -अहिंसा -पर आधारित संविधान है .संसदीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में आम-चुनावों के माध्यम से भी पूंजीवादी व्यवस्था को बदला जा सकता है .इसमें देर भले ही हो पर मिस्र ,ट्युनिसिया ,अफगानिस्तान या पाकिस्तान जैसी गृह युद्ध की स्थिति भारत में कभी नहीं बन पायेगी और वो सुबह कभी तो आयेगी ....
श्रीराम तिवारी
निश्चय ही हम लोकतांत्रिक व्यवस्था से भारत में कम्युनिज्म ला सकते हैं,बस धार्मिक आडम्बर को तोड़ सकें तभी.
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