सोमवार, 28 सितंबर 2020

नफरत जिसने सिखाई उसे वे इस्लाम कहते हैं ...

न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 और मुंबई में 26/11 को हुए भयावह आतंकी हमले की तरह अगर ईस्वी सन् 1235 में उज्जैन में आज जैसे जागरूक मीडिया की मौजूदगी होती तो उस समय दुनिया भर की सबसे चर्चित सुर्खियाँ कुछ इस तरह की होतीं-
“उज्जैन के महाकाल मंदिर पर आतंकी हमला हुआ है… मंदिर को पूरी तरह नेस्तनाबूत कर दिया गया है… मंदिर के भीतर सदियों से जमा सोने-चांदी की मूर्तियों को लूट लिया गया है… राजा विक्रमादित्य की मूर्ति भी गिरा दी गई है…
हमले की जिम्मेदारी शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने ली है… उसका कहना है कि दिल्ली पर अब उसका कब्जा है और वही सुलतान है… उसके साथ बड़ी तादाद में आए हमलावरों ने सिर्फ उज्जैन ही नहीं विदिशा के भी बेमिसाल मंदिर मिट्‌टी में मिला दिए हैं… पूरे इलाके में दहशत का आलम है… हर जगह हमलावरों के मुकाबले में आए स्थानीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए हैं… इनकी संख्या अभी पता नहीं है।”
शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के इस्लामी बहेलियों ने एक दिन विदिशा को बरबाद करने के बाद उज्जैन को घेरा था। यह 1235 की घटना है। वे अपनी तलवारें चमकाते हुए राजा विक्रमादित्य और कालिदास की स्मृतियों से जगमगाते ज्योर्तिलिंग की तरफ दौड़े।
तब गलियों-बाज़ारों में पहली बार वही भयंकर शोर सुना गया था, जो आज के दौर में दुनिया के कोने-कोने में सुनाई देता रहा है-“अल्लाहो-अकबर।“ तब उज्जैन में अपनी अंतिम शक्ति को बटोरकर परमार राजाओं के सैनिक मजहबी जुनून से भरे इन विचित्र वीर तुर्कों से सीधे भिड़े होंगे और अपने सिर कटने तक उन्हें रोका होगा। कई लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए मजहब बदला होगा, जो कि उन दिनों एक ज़रूरी और आम घटना थी।
उज्जैन को तबाह करने का फैसला करते वक्त मुमकिन है इन हमलावर आतंकियों ने विक्रमादित्य का नाम सुना होगा, कालिदास उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर थे, भर्तहरि के बारे में उनके फरिश्तों को भी ज्ञान नहीं होगा, वराहमिहिर से उनका कोई लेना-देना नहीं था। मंदिरों में लदा सोना-चांदी और रत्न-भंडार लूटना उन्हें मजहबी हक से हासिल था। बुतों से इस कदर नफरत जिसने उन्हें सिखाई थी, उसे वे इस्लाम कहते थे।
उस दिन महाकाल मंदिर में ट्विन टॉवर जैसा ही हाहाकार मचा होगा। मध्य भारत में मालवा के इस विध्वंस पर मिनहाज़ सिराज की रिपोर्ट है–
“1234-35 में इस्लामी सेना लेकर उसने मालवा पर चढ़ाई की। भिलसा के किले और शहर पर कब्जा जमा लिया। वहाँ के एक मंदिर को, जो 300 साल में बनकर तैयार हुआ था और जो 105 गज ऊँचा था, मिट्‌टी में मिला दिया।
वहाँ से वह उज्जैन की तरफ बढ़ा और महाकाल देव के मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। उज्जैन के राजा विक्रमाजीत की मूर्ति, जिसके राज्य को आज 1316 साल हो चुके हैं और जिसके राज्य से ही हिंदवी सन् शुरू होता है, तथा पीतल की अन्य मूर्तियों और महाकाल देव की पत्थर की मूर्ति को दिल्ली लेकर आया।”
अब सवाल यह है कि उज्जैन से हाथी-घोड़ों पर ढोकर दिल्ली ले जाई गई इन विशाल मूर्तियों का क्या किया गया?
उज्जैन पर हुए हमले के 77 साल बाद सन् 1312 में मोरक्को का मशहूर यात्री इब्नबतूता दिल्ली पहुंचता है। वह नौ साल दिल्ली में रहा। उसने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के बाहर इन मूर्तियों को पड़े हुए अपनी आंखों से देखा था। उसने इसे जामा मस्जिद कहा है और इससे सटकर बनी कुतुबमीनार का भी जिक्र किया है। इब्नबतूता कुतुबमीनार के सामने खड़ा होकर बता रहा है-
“मस्जिद के पूर्वी दरवाजे के बाहर तांबे की दो बड़ी-बड़ी मूर्तियां पत्थर में जड़ी हुई जमीन पर पड़ी हैं। मस्जिद में आने-जाने वाले उन पर पैर रखकर आते-जाते हैं। मस्जिद की जगह पर पहले मंदिर बना हुआ था। दिल्ली पर कब्जे के बाद मंदिर तुड़वाकर मस्जिद बनवाई गई। मस्जिद के उत्तरी चौक में एक मीनार खड़ है, जो इस्लामी दुनिया में बेमिसाल है।”
गौर करें, मिनहाज़ सिराज और इब्नबतूता दोनों ही इन हमलों को इस्लामी सेना और इस्लामी दुनिया से जोड़कर स्पष्ट कर रहे हैं कि यह एक राज्य का दूसरे राज्य पर अपने राज्य की सीमाओं के विस्तार की खातिर हुए हमले नहीं, बल्कि यह इस्लाम की फतह के लिए किए गए हैं और इसके लिए किसी कारण की ज़रूरत नहीं है।
ये एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच किसी मसले पर लड़े गए युद्ध या आक्रमण नहीं थे। यह साफ तौर पर आतंकी हमले थे, क्योंकि जिस पर हमला किया जा रहा है, उसे पता ही नहीं है कि उसका कुसूर क्या है? कोई चुनौती नहीं, कोई मुद्दा नहीं। सीधे हमला। लूट और मारकाट।
आप कल्पना कीजिए कि तब विदिशा या उज्जैन के आम निवासियों को क्या पता होगा कि अजीब सी शक्ल-सूरत और अजनबी जबान वाले ये हमलावर हैं कौन, क्यों उन्हें कत्ल कर रहे हैं, क्यों मंदिर को तोड़ रहे हैं, क्यों उनके देवताओंं की मूर्तियों को इस बेरहमी से तोड़ा जा रहा है, बेजान बुतों से क्या खतरा है, हमारी संपत्तियाँ लूटकर क्यों ले जा रहे हैं?
You, Sushil Dongre, Shraddha Mishra Koushik and 1 other

धन्य है भारत की प्रगतिशीलता

चीन में संपन्न सांस्क्रतिक क्रांति के बावजूद वहाँ की अद्भुत और पुरातन 'चीन की दीवार' से लेकर खान-पान,सनातन परंपराएं,वेल्युज कला,साहित्य और संगीत तथा परिवार एवं समाज इत्यादि सब कुछ यथावत् सुरक्षित रखा गया है!चीन मैं हर पुरानी चीज को सर माथे लगाकर पहले से बेहतर बनानेके प्रयास जारी हैं!
किंतु भारत में संयुक्त परिवार तो पहले ही उजड़ गये,अब दामपत्य जीवन भी खतरे में है!पूर्वजों को याद करने और उनकी पुण्य स्म्रति मनाना भी जिन लोगों को पसंद नही,वे पत्नि द्वारा पति को और पति द्वारा पत्नि को सम्मान देंना भी प्रतिगामी समझते हैं! धन्य है भारत की प्रगतिशीलता! यहां हर उस शख्स को प्रगतिशील समझा जाता है,जो मानवीय मूल्यों और मर्यादाओं को ध्वस्त करने की बात करता है!

रविवार, 27 सितंबर 2020

किसान का मतलब जनता हैं।


किसान भाइयों और बहनों,
सुना है आप सभी ने 25 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है। विरोध करना और विरोध के शांतिपूर्ण तरीके का चुनाव करना आपका लोकतांत्रिक अधिकार है। मेरा काम सरकार के अलावा आपकी ग़लतियां भी बताना है। आपने 25 सितंबर को भारत बंद का दिन ग़लत चुना है। 25 सितंबर के दिन फिल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण बुलाई गई हैं। उनसे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो नशा-सेवन के एक अतिगंभीर मामले में लंबी पूछताछ करेगा। जिन न्यूज़ चैनलों से आपने 2014 के बाद राष्ट्रवाद की सांप्रदायिक घुट्टी पी है, वही चैनल अब आपको छोड़ कर दीपिका के आने-जाने से लेकर खाने-पीने का कवरेज़ करेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा आप उन चैनलों से आग्रह कर सकते हैं कि दीपिका से ही पूछ लें कि क्या वह भारत के किसानों का उगाया हुआ अनाज खाती है या यूरोप के किसानों का उगाया हुआ अनाज खाती है। बस यही एक सवाल है जिसके बहाने 25 सितंबर को किसानों के कवरेज़ की गुज़ाइश बनती है। 25 सितंबर को किसानों से जुड़ी ख़बर ब्रेकिंग न्यूज़ बन सकती है। वर्ना तो नहीं।
आप भारत बंद कर रहे हैं। आपके भारत बंद से पहले ही आपको न्यूज़ चैनलों ने भारत में बंद कर दिया है। चैनलों के बनाए भारत में बेरोज़गार बंद हैं। जिनकी नौकरी गई वो बंद हैं। इसी तरह से आप किसान भी बंद हैं। आपकी थोड़ी सी जगह अख़बारों के ज़िला संस्करणों में बची है जहां आपसे जुड़ी अनाप-शनाप ख़बरें भरी होंगी मगर उन ख़बरों का कोई मतलब नहींं होगा। उन ख़बरों में गांव का नाम होगा, आपमें से दो चार का नाम होगा, ट्रैक्टर की फोटो होगी, एक बूढ़ी महिला पर सिंगल कॉलम ख़बर होगी। ज़िला संस्करण का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि आप किसान अब राष्ट्रीय संस्करण के लायक नहीं बचे हैं। न्यूज़ चैनलों में आप सभी के भारत बंद को स्पीड न्यूज़ में जगह मिल जाए तो आप इस खुशी में अपने गांव में भी एक छोटा सा गांव-बंद कर लेना।
25 सितंबर के दिन राष्ट्रीय संस्करण की मल्लिका दीपिका जी होंगी।उस दिन जब वे घर से निकलेंगी तो रास्ते में ट्रैफिक पुलिस की जगह रिपोर्टर खड़े होंगे। अगर जहाज़ से उड़ कर मुंबई पहुंचेंगी तो जहाज़ में उनके अलावा जितनी भी सीट ख़ाली होगी सब पर रिपोर्टर होंगे। उनकी गाड़ी से लेकर साड़ी की चर्चा होगी। न्यूज़ चैनलों पर उनकी फिल्मों के गाने चलेंगे। उनके संवाद चलेंगे। दीपिका ने किसी फिल्म में शराब या नशे का सीन किया होगा तो वही दिन भर चलेगा। किसान नहीं चलेगा।
2017 का साल याद कीजिए। संजय लीला भंसाली की फिल्म पद़्मावत आने वाली थी। उसे लेकर एक जाति विशेष के लोगों ने बवाल कर दिया। कई हफ्ते तक उस फिल्म को लेकर टीवी में डिबेट होती थी। तब आप भी इन कवरेज़ में खोए थे। हरियाणा, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित कई राज्यों में इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए हिंसा हुई थी। दीपिका के सर काट लाने वालों के लिए 5 करोड़ के इनाम की राशि का एलान हुआ।वही दीपिका अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो जाएंगी तो चैनलों के कैमरे उनके कदमों को चूम रहे होंगे। उनकी रेटिंग आसमान चूम रही होगी। किसानों से चैनलों को कुछ नहीं मिलता है। बहुत से एंकर तो खाना भी कम खाते हैं। उनकी फिटनेस बताती है उन्हें आपके अनाज की मुट्ठी भर ही ज़रूरत है। खेतों में टिड्डी दलों का हमला हो तो इन एंकरों को बुला लेना। एक एंकर तो इतना चिल्लाता है कि उसकी आवाज़ से ही सारी टिड्डियां पाकिस्तान लौट जाएंगी। आपको थाली बजाने और डीजे बुलाने की ज़रूरत नहीं होगी।
2014 से आप किसान भाई भी तो यही सब न्यूज़ चैनलों पर देखते आ रहे थे। जब एंकर गौ-रक्षा को लेकर लगातार भड़काऊ कवरेज़ करते थे तब आपका भी तो ख़ून गरम होता था। आपको लगा कि आप कब तक खेती-किसानी करेंगे, कुछ धर्म की रक्षा-वक्षा भी की जाए। धर्म के नाम पर नफ़रत की अफ़ीम आपको थमा दी गई। विचार की जगह तलवार भांजने का जोश भरा गया। आप रोज़ न्यूज़ चैनलों के सामने बैठकर वीडियो गेम खेल रहे थे। आपको लगा कि आपकी ताकत बढ़ गई है। आपके ही बीच के नौजवान व्हाट्स एप से जोड़ कर भीड़ में बदल दिए गए। जैसे ही गौ-रक्षा का मुद्दा उतरा आपके खेतों में सांडों का हमला हो गया। आप सांडों से फ़सल को बचाने के लिए रात भर जागने लगे।
मैं गिन कर तो नहीं बता सकता कि आपमें से कितने सांप्रदायिक हुए थे मगर जितने भी हुए थे उसकी कीमत सबको चुकानी पड़ेगी। यह पत्र इसलिए लिख रहा हूं ताकि 25 सितंबर को कवरेज़ होने पर आप शिकायत न करें। आपने इस गोदी मीडिया में कब जनता को देखा है। 17 सितंबर को बेरोज़गारों ने आंदोलन किया, वे भी तो आपके ही बच्चे थे। क्या उनका कवरेज़ हुआ, क्या उनके सवालों को लेकर बहस आपने देखी?
याद कीजिए जब मुज़फ्फरनगर में दंगे हुए थे। एक घटना को लेकर आपके भीतर किस तरह से कुप्रचारों से नफ़रत भरी गई। आपके खेतों में दरार पड़ गई। जब आप सांप्रदायिक बनाए जाते हैं तभी आप ग़ुलाम बनाए जाते हैं। जिस किसी से यह ग़लती हुई है, उसे अब अकेलेपन की सज़ा भुगतनी होगी। आज भी दो-चार अफवाहों से आपको भीड़ में बदला जा सकता है। व्हाट्स एप के नंबरों को जोड़ कर एक समूह बनाया गया। फिर आपके फोन में आने लगे तरह तरह के झूठे मैसेज। आपके फोन में कितने मैसेज आए होंगे कि नेहरू मुसलमान थे। जो लोग ऐसा कर रहे थे उन्हें पता है कि आपको सांप्रदायिक बनाने का काम पूरा हो चुका है। आप जितने आंदोलन कर लो, सांप्रदायिकता का एक बटन दबेगा और गांव का गांव भीड़ में बदल जाएगा। गांव में पूछ लेना कि रवीश कुमार ने बात सही कही है या नहीं।
भारत वाक़ई प्यारा देश है। इसके अंदर बहुत कमियां हैं। इसके लोकतंत्र में भी बहुत कमियां हैं मगर इसके लोकतंत्र के माहौल में कोई कमी नहीं थी। मीडिया के चक्कर में आकर इसे जिन तबकों ने ख़त्म किया है उनमें से आप किसान भाई भी हैं। आप एक को वोट देते थे तो दूसरे को भी बगल में बिठाते थे। अब आप ऐसा नहीं करते हैं। आपके दिमाग़ से विकल्प मिटा दिया गया है। आप एक को वोट देते हैं और दूसरे को लाठी मार कर भगा देते हैं। आप ही नहीं, ऐसा बहुत से लोग करने लगे हैं। जैसे ही आपकी बातों से विकल्प की जगह ख़त्म हो जाती है, विपक्ष ख़त्म होने लगता है। विपक्ष के ख़त्म होते ही जनता ख़त्म होने लगती है। विपक्ष जनता खड़ा करती है। विपक्ष को मार कर जनता कभी खड़ी नहीं हो सकती है। जैसे ही विपक्ष ख़त्म होता है, जनता ख़त्म हो जाती है। मेरी इस बात को गाढ़े रंग से अपने गांवों की दीवारों पर लिख देना और बच्चों से कहना कि आपसे ग़लती हो गई, वो ग़लती न करें।
किसानों के पास कभी भी कोई ताकत नहीं थी। एक ही ताकत थी कि वे किसान हैं। किसान का मतलब जनता हैं। किसान सड़कों पर उतरेगा, ये एक दौर की सख़्त चेतावनी हुआ करती थी। हेडलाइन होती थी। अख़बार से लेकर न्यूज़ चैनल कांप जाते थे। अब आप जनता नहीं हैं। जैसे ही जनता बनने की कोशिश करेंगे चैनलों पर दीपिका का कवरेज़ बढ़ जाएगा और आपकी पीठ पर पुलिस की लाठियां चलने लगेंगी। मुकदमे दर्ज होने लगेंगे। भारत बंद के दौरान आपको कैमरे वाले ख़ूब दिखेंगे मगर कवरेज़ दिखाई नहीं देगा। लोकल चैनलों पर बहुत कुछ दिख जाएगा मगर राष्ट्रीय चैनलों पर कुछ से ज्यादा नहीं दिखेगा। अपने भारत बंद के आंदोलन का वीडियो बना लीजिएगा ताकि गांव में वायरल हो सके।
आपको इन चैनलों ने एक सस्ती भीड़ में बदल दिया है। आप आसानी से इस भीड़ से बाहर नहीं आ सकते। मेरी बात पर यकीन न हो कोशिश कर लें। मोदी जी कहते हैं कि खेती के तीन कानून आपकी आज़ादी के लिए लाए गए हैं। इस पर पक्ष-विपक्ष में बहस हो सकती है। बड़े-बड़े पत्रकार जिन्होंने आपके खेत से फ्री का गन्ना तोड़ कर खाते हुए फोटो खींचाई थी वे भी सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं। मैं तो कहता हूं कि क्यों भारत बंद करते हैं, आप इन्हीं एंकरों से खेती सीख लीजिए। उन्हीं से समझ लीजिए।
शास्त्री जी के एक आह्वान पर आपने जान लगा दी। उन्होंने एक नारा दिया जय जवान-जय किसान। उनके बाद से जब भी यह नारा लगता है कि किसान की जेब कट जाती है। नेताओं को पता चल गया कि हमारा किसान भोला है। भावुकता में आ जाता है। देश के लिए बेटा और अनाज सब दे देगा। आपका यह भोलापन वाकई बहुत सुंदर है। आप ऐसे ही भोले बने रहिए। सब न्यूज़ चैनलों के बनाए प्यादों की तरह हो जाएंगे तो कैसे काम चलेगा। बस जब भी कोई नेता जय जवान-जय किसान का नारा लगाए, अपने हाथों से जेब को भींच लीजिए।
आप तो कई दिनों से प्रदर्शन कर रहे हैं। न्यूज़ चैनल चाहते तो तभी बहस कर सकते थे। बाकी किसानों को पता होता कि क्या कानून आ रहा है, क्या होगा या क्या नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने तो कहा था कि न्यूज़ चैनल और अख़बार ख़रीदना बंद कर दें। वो पैसा आप प्रधानमंत्री राहत कोष में दे दें। आप माने नहीं। जो ग़ुलाम मीडिया का ख़रीदार होता है वह भी ग़ुलाम ही समझा जाता है। वैसे मई 2015 में प्रधानमंत्री जी ने आपके लिए किसान चैनल लांच किया है। उम्मीद है आप वहां दिख रहे होंगे।


पत्र लंबा है। आपके बारे में कुछ छपेगा-दिखेगा तो नहीं इसलिए भी लंबा लिख दिया ताकि 25 तारीख को आप यही पढ़ते रहें। मेरा यह पत्र खेती के कानूनों के बारे में नहीं है। मेरा पत्र उस मीडिया संस्कृति के बारे में हैं जहां एक फिल्म अभिनेता की मौत के बहाने बालीवुड को निशाने बनाने का तीन महीने से कार्यक्रम चल रहा है। आप सब भी वही देख रहे हैं। आप सिर्फ यह नहीं देख रहे हैं कि निशाने पर आप हैं।

वामपंथी उम्मीदवार की जमानत जब्त क्यों होती है

ट्रेड यूनियनों के राष्ट्रीय मंच पर जब जब किसानों मजदूरों के संयुक्त संघर्ष का आहवान होता है,तो संघर्ष में वामपंथी सबसे आगे होते हैं! किंतु जब मांग पूरी हो जाती है तो श्रेय कोई और ले उड़ता है!
जहां जहां अधिक जनांदोलन होते हैं, वहां उतनी ही बुरी तरह से वामपंथी उम्मीदवार की जमानत जब्त क्यों होती है? अभी कृषि बिल के विरोध में पंजाब,हरियाणा और यूपी बिहार में किसान आंदोलित हैं, किंतु मेरी भविष्यवाणी लिख कर रख ली जाए कि जहां जहां किसान आंदोलन हो रहा है वहां वहां वामपंथी उम्मीदवार की जमानत जब्त होगी! क्यों होती है
इसी तरह भारतके अधिकांस आंदोलनकारी मेहनतकश लोग दारू की एक बॉटल देने वाले दल या नेता को वोट देते हैं और अधिकांस कामकाजी महिलाएं एक -आध सस्ती साड़ी देने वाले नेता को वोट देकर भ्रस्ट दलों और नेताओं को जिता देते हैं!
चूंकि वामपंथी दलों के पास पैसा नही होता, पोलिंग बूथ पर बैठने को भाजपा की तरह भीड़ नही होती,कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की तरह अल्पसंख्यकों की जमात का समर्थन नही मिलता अत: पंजाब, हरियाणा,यूपी,एम पी में वामपंथ का खाता भी नहीं खुल पाता! स्वार्थी क्षेत्रिय दलों और कांग्रसियों द्वारा हर बार वामपंथियों को अकेला मरने को छोड़ दिया जाता है!
चीन में संपन्न सांस्क्रतिक क्रांति के बावजूद वहाँ की अद्भुत और पुरातन 'चीन की दीवार' से लेकर खान-पान,सनातन परंपराएं,वेल्युज कला,साहित्य और संगीत तथा परिवार एवं समाज इत्यादि सब कुछ यथावत् सुरक्षित रखा गया है!चीन मैं हर पुरानी चीज को सर माथे लगाकर पहले से बेहतर बनानेके प्रयास जारी हैं!
किंतु भारत में संयुक्त परिवार तो पहले ही उजड़ गये,अब दामपत्य जीवन भी खतरे में है!पूर्वजों को याद करने और उनकी पुण्य स्म्रति मनाना भी जिन लोगों को पसंद नही,वे पत्नि द्वारा पति को और पति द्वारा पत्नि को सम्मान देंना भी प्रतिगामी समझते हैं! धन्य है भारत की प्रगतिशीलता! यहां हर उस शख्स को प्रगतिशील समझा जाता है,जो मानवीय मूल्यों और मर्यादाओं को ध्वस्त करने की बात करता है!

हमलोग राजनीति करते हैं ।

एक बात मेरी समझ में कभी नहीं आई कि ये फिल्म अभिनेता (या अभिनेत्री) ऐसा क्या करते हैं कि इनको एक एक फिल्म के लिए 50 करोड़ या 100 करोड़ रुपये मिलते हैं?
सुशांतसिंह की मृत्यु के बाद भी यह चर्चा चली थी कि जब वह इंजीनियरिंग का टाॅपर था , तो फिर उसने फिल्म का क्षेत्र क्यों चुना था ?
जिस देश में शीर्षस्थ वैज्ञानिकों,डाक्टरों , इंजीनियरो,प्राध्यापकों,अधिकारियों इत्यादि को प्रतिवर्ष 10 लाख से 20 लाख रुपये मिलता हो,जिस देश के राष्ट्रपति की कमाई प्रतिवर्ष 1 करोड़ से कम ही हो ; उस देश में एक फिल्म अभिनेता प्रतिवर्ष 10 करोड़ से 100 करोड़ रुपये तक कमा लेता है । आखिर ऐसा क्या करता है वह ?
आखिर वह ऐसा क्या करता है और कितनी मेहनत करता है कि उसकी कमाई एक शीर्षस्थ वैज्ञानिक से सैकड़ों गुना अधिक होती है ? यह एक गंभीर चिंतन का विषय है!
आज तीन क्षेत्रों ने सबको मोह रखा है - सिनेमा,क्रिकेट और राजनीति । इन तीनों क्षेत्रों से सम्बन्धित लोगों की कमाई और प्रतिष्ठा उनकी औकात से अधिक है !ये क्षेत्र आधुनिक युवाओं के आदर्श भी हैं!जबकि वर्तमान में इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं ।
स्मरणीय है कि विश्वसनीयता के अभाव में चीजें प्रासंगिक नहीं रहतीं और जब चीजें महँगी हों,अविश्वसनीय हों,अप्रासंगिक हों ; तो वह व्यर्थ ही है,सोचिए कि यदि सुशांत या ऐसे कोई अन्य युवक या युवती आज इन क्षेत्रों की ओर आकर्षित होते हैं , तो क्या यह बिल्कुल अस्वाभाविक है ? मेरे विचार से तो नहीं! क्योंकि कोई भी सामान्य व्यक्ति धन , लोकप्रियता और चकाचौंध से प्रभावित हो ही जाता है!
बाॅलीवुड में ड्रग्स या वेश्यावृत्ति,क्रिकेट में मैच फिक्सिंग,राजनीति में गुंडागर्दी - इन सबके पीछे धन मुख्य कारक है और यह धन हम ही उन तक पहुँचाते हैं । हम ही अपना धन फूँककर अपनी हानि कर रहे हैं । यह मूर्खता की पराकाष्ठा है!
70-80 वर्ष पहले तक प्रसिद्ध अभिनेताओं को सामान्य वेतन मिला करता था । 30-40 वर्ष पहले तक भी इनकी कमाई बहुत अधिक नहीं थी । 30-40 वर्ष पहले तक क्रिकेटरों के भी भाव नीचे ही थे । 30-40 वर्ष पहले तक राजनीति इतनी गन्दी नहीं थी! धीरे-धीरे ये हमें लूटने में लगे रहे और हम शौक से खुशी-खुशी लुटते रहे । हम इन माफियाओं के चंगुल में फँसते रहे और अपने बच्चों का,अपने देश का भविष्य बर्बाद करते रहे!
50 वर्ष पहले तक भी फिल्में इतनी अश्लील नहीं बनती थीं,क्रिकेटर, नेता ,अभिनेता इतने अहंकारी नहीं थे आज तो ये भगवान बन बैठे हैं । अब आवश्यकता है इनको एक सुर से नकारने की ।
वियतनाम के राष्ट्रपति हो-ची-मिन्ह एक बार भारत आए थे । भारतीय मंत्रियों के साथ हुई मीटिंग में उन्होंने पूछा -" आपलोग क्या करते हैं ?",इन लोगों ने कहा - "हमलोग राजनीति करते हैं ।",उन्होंने फिर पूछा - " राजनीति तो करते हैं , लेकिन इसके अलावा क्या करते हैं ?"इन लोगों ने फिर कहा - " हमलोग राजनीति करते हैं ।",हो-ची मिन्ह बोले - " राजनीति तो मैं भी करता हूँ ; लेकिन मैं किसान हूँ , खेती करता हूँ । खेती से मेरी आजीविका चलती है सुबह-शाम मैं अपने खेतों में काम करता हूँ । दिन में राष्ट्रपति के रूप में देश के लिए अपना दायित्व निभाता हूँ ।"
स्पष्ट है कि भारतीय नेताओं के पास इसका कोई उत्तर न था । बाद में एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में 6 लाख से अधिक लोगों की आजीविका केवल राजनीति ही है!आज यह संख्या करोड़ों में है,कुछ महीनों पहले ही जब कोरोना से यूरोप तबाह हो रहा था,डाक्टरों को महीनों से थोड़ा भी अवकाश नहीं मिल रहा था ; एक पुर्तगाली डाॅक्टरनी ने खीजकर मरीजों से कहा था -" रोनाल्डो के पास जाओ न!जिसे तुम करोड़ों डाॅलर देते हो ; मैं तो कुछ हजार डाॅलर ही पाती हूँ !
मेरा दृढ़ विचार है कि जिस देश में युवा छात्रों का आदर्श वैज्ञानिक ,शोधार्थी,शिक्षाशास्त्री आदि न होकर उपर्युक्त लोग होंगे,उनकी स्वयं की आर्थिक उन्नति भले ही हो जाए, किंतु देश उन्नत नहीं होगा । जिस देश में अनावश्यक और अप्रासंगिक लोगों और वस्तुओ का वर्चस्व बढ़ता रहेगा!उस देश की समुचित प्रगति नहीं होगी! बल्कि धीरे-धीरे देश में भ्रष्टाचारियों देशद्रोहियों की संख्या ही बढ़ती रहेगी! ईमानदार लोग हाशिये पर चले जाएँगे! सच्चे राष्ट्रवादी कठिन जीवन जीने को अभिशप्त होंगे ।
नोट : - सभी क्षेत्रों में अच्छे व्यक्ति भी होते हैं । उनका व्यक्तित्व मेरे लिए हमेशा सम्माननीय रहेगा।

the ego is the source of thoughts."


अहंकार केवल तमाम दुखकष्टों का ही नहीं, सुखों का भी उत्पत्ति स्थान है जो विचारों के रुप में रहते हैं।
अहंकार सभी विचारों का मूल है।
हम कौन हैं?हम कहते हैं-आत्मा।यह हमारा अनुमान ही है(किसीको अनुभव हुआ हो तो अलग बात है)।
हम अहंकार हैं यह सबका अनुभव है और इसके लिये कोई अनुमान नहीं लगाना पडता।हम सब अहंकार का जीवन जी ही रहे हैं।
अब यह जानना बहुत महत्व रखता है कि अहंकार के रुप में हम विचारों का आदिकारण हैं या विचार हमारा आदिकारण है?
ऐसे तो आत्मा ही ,सत्य ही आदिकारण है सबका पर पहले हम अहंकार को तो समझ लें।इसका पता लगालें कि अहंकार सभी विचारों का स्रोत है।
ऐसे अहंकार भी विचार ही है पर यह इस तरह कार्य करता है कर्ता के रुप में जिससे यह विचार मालूम नहीं पडता।तो जैसा मालूम पडता है वैसा ही जानें।
क्या अहंकार की,कर्ताभोक्ता भाव की अनुपस्थिति में विचार आ सकते हैं?
जब तक "मैं" नहीं तब तक कुछ नहीं हो सकता।"मैं" हूं तो सब है।और यहां समझना है "मैं"(अहंकार)सभी विचारों का स्रोत हूँ।जब तक "मैं" हूं,विचार आयेंगे ही।मेरे मिटने,न रहने पर फिर विचारों का कोई काम नहीं।
तो "मैं" कैसे मिटूं?
कोई जल्दी नहीं।इस तरह मिटना चाहने से कुछ नहीं होता।पहले मैं जानलूं कि मैं हूँ तो विचार हैं,मैं नहीं तो विचार नहीं।
विचार दो तरह से चलते हैं।एक वे जो हम करते हैं मैं के रुप में,दूसरे वे जो उठते रहते हैं।वे दिनभर आते रहते हैं।
हम मैं की तरह प्रतिक्रिया करते रहते हैं।रागद्वेष, पसंदनापसंद करते हैं।उनमें खो ही जाते हैं उन्हें सच मानकर।
वे सच नहीं हैं।वे सब संस्कारों में से आते हैं।जैसे संस्कार वैसे विचार।फिर हम जो प्रतिक्रिया करते हैं कर्ताभाव से वह भी उन्हीं संस्कारों के अनुरूप होती है।
हमें कुछ नहीं करना है।हमें सिर्फ जानना है कि हम इन विचारों का स्रोत हैं।
इससे बहुत फर्क पडता है।अगर विचार स्रोत हैं तो हम उनमें डूबेंगे,मूर्छित होंगे,रागद्वेष पूर्ण प्रतिक्रिया करेंगे ही करेंगे।
अब इसका उल्टा हुआ।अब हम उठते विचारों का स्रोत हैं।हम सजगता पूर्वक,होश में रहकर उन विचारों को जानते रह सकते हैं।हम अपने मूल से जुड सकते हैं जिसे आत्मा(सेल्फ)कहा जाता है।हम स्वस्थ हो सकते हैं।स्वस्थ व्यक्ति में विचार नहीं उठते,न वह विचार करता है।
जो विचार उठते हैं उन विचारों में डूबकर विचार करना बहुत दूर ले जाता है।
अधिकांश लोगों की यही दशा है।
जो स्वस्थ होते हैं,उठते विचारों के जनक की तरह होते हैं वे उठते विचारों में डूबते नहीं अतः स्पष्ट समझने की क्षमता होती है उनमें।
हर आदमी में हो सकती है वह अहंकार की तरह तो जीए मगर सभी विचारों के मूलस्रोत की तरह जीए।
इसे साक्षी भी कह सकते हैं किंतु उसकी प्रक्रिया कुछ भिन्न है।हम फिलहाल इस तथ्य पर कार्य कर रहे हैं कि अहंकार सभी विचारों का मूल है।
इसमें खास यही जानना है कि विचार,संस्कारों में से उठते रहते हैं,अहंकार की तरह हम उनमें खोयेंगे तो कर्ताभोक्ता बनकर भटकेंगे।तब हम उठते विचारों के अनुरूप विचारकर्ता या भोक्ता बनेंगे।
यह ध्यान रहा कि भले अहंकार की तरह पर हम सभी उठते विचारों का स्रोत हैं,हम हैं इसलिए वे हैं तो हम विचारों पर निर्भर न होंगे अपितु विचार हम पर निर्भर होंगे।अब हम अस्तित्व रुप या आत्मरुप होंगे।
सीधे तो नहीं क्योंकि आत्मा या सत्य सबका आदिकारण है, हम अहंकार की तरह आत्मनिर्भर, स्वनिर्भर हो जाएं तब भी बडी बात है।
सिर्फ यह ध्यान रहे कि मैं बाहर-भीतर सब जगह से आते विचारों का स्रोत हूँ-अभीयहां जहां हूँ।वर्ना विचारों द्वारा तबवहां ले जाये जाने और तबवहां ही रखे जाने की पूरी संभावना होती है।
संसार और सत्य के बीच अहंकार कडी है।
है यह विचार का ही रुप मगर मनरुप होने से बडा भ्रामक है।यह परम सहायक बन सकता है।बस हम अहंकार के रुप में रहना स्वीकार करें और यह ध्यान रखें कि "मैं" सभी विचारों का मूलस्रोत हूं।सारे विचार वापस लौटकर हममें समाने लगेंगे,हम उन विचारों का पीछा न करेंगे जैसी कि हमारी आदत है।
उनमें डूबना और यथार्थ से बहुत दूर निकल जाना।
यह भी कहा जा सकता है अहंकार,आत्मा का यंत्र है,जीव,ईश्वर के हाथ यंत्र समान है,ईश्वर यंत्री है ,चलानेवाला।'ईश्वर:सर्वभूतहृद्देशैर्जुन तिष्ठति।भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि माया।'
तो यंत्र बन जाएं।यह भक्ति है,समर्पण है।
या फिर अहंकार की तरह,मैं की तरह अपने भीतर से उठनेवाले हर एक विचार का आदिकारण बन जाएं।
आप उनमें डूबेंगे नहीं, डूबना संभव भी नहीं होगा।आप अकर्ता होंगे।स्वस्थता,स्थिरता घटेगी।डूबता तो कर्ताभाव से सोचनेवाला ही है।वह सदा अस्थिर,अस्वस्थ बना रहता है।
अहंकार को वैसे ही सर्वश्रेष्ठ होना पसंद है तो वह इस तरह सर्वश्रेष्ठ क्यों नहीं हो जाता कि मैं सभी विचारों का उद्गम हूँ, मूलस्रोत हूँ, मैं हूँ तो सब है,मैं नहीं तो कुछ नहीं?
"The ego is the source of thoughts."

फासीवाद (फासिज्म) के बारे में डॉ.लॉरेंस ब्रिट का महत्वपूर्ण रिसर्च-


डॉ.लॉरेंस ब्रिट एक प्रख्यात राजनीतिक विज्ञानी हैं,उन्होंने फासीवादी शासनों जैसे हिटलर (जर्मनी), मुसोलिनी (इटली ) फ्रेंको (स्पेन), सुहार्तो (इंडोनेशिया), और पिनोचेट (चिली) का अध्ययन किया है और उन्होंने फासिज्म पर निम्नलिखित 14 लक्षणों की निशानदेही की है;
1. शक्तिशाली और सतत राष्ट्रवाद — फासिस्ट शासन देश भक्ति के आदर्श वाक्यों, गीतों, नारों , प्रतीकों और अन्य सामग्री का निरंतर उपयोग करते हैं. हर जगह झंडे दिखाई देते हैं जैसे वस्त्रों पर झंडों के प्रतीक और सार्वजानिक स्थानों पर झंडों की भरमार.
2. मानव अधिकारों के मान्यता प्रति तिरस्कार — क्योंकि दुश्मनों से डर है इसलिए फासिस्ट शासनों द्वारा लोगो को लुभाया जाता है कि यह सब सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वक्त की ज़रुरत है. शासकों के दृष्टिकोण से लोग घटनाक्रम को देखना शुरू कर देते हैं और यहाँ तक कि वे अत्याचार, हत्याओं, और आनन-फानन में सुनाई गयी कैदियों को लम्बी सजाओं का अनुमोदन करना भी शुरू कर देते हैं.
3. दुश्मन या गद्दार की पहचान एक एकीकृत कार्य बन जाता है — लोग कथित आम खतरे और दुश्मन – उदारवादी; कम्युनिस्टों, समाजवादियों, आतंकवादियों, आदि के खात्मे की ज़रुरत प्रति उन्मांद की हद तक एकीकृत किए जाते हैं.
4. मिलिट्री का वर्चस्व — बेशक व्यापक घरेलू समस्याएं होती हैं पर सरकार सेना का विषम फंडिंग पोषण करती है. घरेलू एजेंडे की उपेक्षा की जाती है ताकि मिलट्री और सैनिकों का हौंसला बुलंद और ग्लैमरपूर्ण बना रहे.
5. उग्र लिंग-विभेदीकरण — फासिस्ट राष्ट्रों की सरकारें लगभग पुरुष प्रभुत्व वाली होती हैं. फासीवादी शासनों के अधीन, पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को और अधिक कठोर बना दिया जाता है. गर्भपात का सख्त विरोध होता है और कानून और राष्ट्रीय नीति होमोफोबिया और गे विरोधी होती है
6. नियंत्रित मास मीडिया – कभी कभी तो मीडिया सीधे सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है, लेकिन अन्य मामलों में, परोक्ष सरकार विनियमन, या प्रवक्ताओं और अधिकारियों द्वारा पैदा की गयी सहानुभूति द्वारा मीडिया को नियंत्रित किया जाता है. सामान्य युद्धकालीन सेंसरशिप विशेष रूप से होती है.
7. राष्ट्रीय सुरक्षा का जुनून – एक प्रेरक उपकरण के रूप में सरकार द्वारा इस डर का जनता पर प्रयोग किया जाता है.
8.धर्म और सरकार का अपवित्र गठबंधन — फासिस्ट देशों में सरकारें एक उपकरण के रूप में सबसे आम धर्म को आम राय में हेरफेर करने के लिए प्रयोग करती हैं. सरकारी नेताओं द्वारा धार्मिक शब्दाडंबर और शब्दावली का प्रयोग सरेआम होता है बेशक धर्म के प्रमुख सिद्धांत सरकार और सरकारी कार्रवाईयों के विरुद्ध होते हैं.
9. कारपोरेट पावर संरक्षित होती है – फासीवादी राष्ट्र में औद्योगिक और व्यवसायिक शिष्टजन सरकारी नेताओं को शक्ति से नवाजते हैं जिससे अभिजात वर्ग और सरकार में एक पारस्परिक रूप से लाभप्रद रिश्ते की स्थापना होती है.
10. श्रम शक्ति को दबाया जाता है – श्रम-संगठनों का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर दिया जाता है या कठोरता से दबा दिया जाता है क्योंकि फासिस्ट सरकार के लिए एक संगठित श्रम-शक्ति ही वास्तविक खतरा होती है.
11. बुद्धिजीवियों और कला प्रति तिरस्कार – फासीवादी राष्ट्र उच्च शिक्षा और अकादमिया के प्रति दुश्मनी को बढ़ावा देते हैं. अकादमिया और प्रोफेसरों को सेंसर करना और यहाँ तक कि गिरफ्तार करना असामान्य नहीं होता. कला में स्वतन्त्र अभिव्यक्ति पर खुले आक्रमण किए जाते हैं और सरकार कला की फंडिंग करने से प्राय: इंकार कर देती है.
12. अपराध और सजा प्रति जुनून – फासिस्ट सरकारों के अधीन कानून लागू करने के लिए पुलिस को लगभग असीमित अधिकार दिए जाते हैं. पुलिस ज्यादितियों के प्रति लोग प्राय: निरपेक्ष होते हैं यहाँ तक कि वे सिविल आज़ादी तक को देशभक्ति के नाम पर कुर्बान कर देते हैं. फासिस्ट राष्ट्रों में अक्सर असीमित शक्ति वाले विशेष पुलिस बल होते हैं.
13. उग्र भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार — फासिस्ट राष्ट्रों का राज्य संचालन मित्रों के समूह द्वारा किया जाता है जो अक्सर एक दूसरे को सरकारी ओहदों पर नियुक्त करते हैं और एक दूसरे को जवाबदेही से बचाने के लिए सरकारी शक्ति और प्राधिकार का प्रयोग किया जाता है. सरकारी नेताओं द्वारा राष्ट्रीय संसाधनों और खजाने को लूटना असामान्य बात नहीं होती.
14.चुनाव महज धोखाधड़ी होते हैं — कभी-कभी होने वाले चुनाव महज दिखावा होते हैं. विरोधियों के विरुद्ध लाँछनात्मक अभियान चलाए जाते है और कई बार हत्या तक कर दी जाती है , विधानपालिका के अधिकारक्षेत्र का प्रयोग वोटिंग संख्या या राजनीतिक जिला सीमाओं को नियंत्रण करने के लिए और मीडिया का दुरूपयोग करने के लिए किया जाता है.

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

मशीन बन गए हैं हम सब,

जाने क्यूँ,
अब शर्म से,
चेहरे गुलाब नहीं होते।
जाने क्यूँ,
अब मस्त मौला मिजाज नहीं होते।
पहले बता दिया करते थे,
दिल की बातें।
जाने क्यूँ,
अब चेहरे,
खुली किताब नहीं होते।
सुना है,
बिन कहे,
दिल की बात,
समझ लेते थे।
गले लगते ही,
दोस्त हालात,
समझ लेते थे।
तब ना फेस बुक था,
ना स्मार्ट फ़ोन,
ना ट्विटर अकाउंट,
एक चिट्टी से ही,
दिलों के जज्बात,
समझ लेते थे।
कुछ तो ऐंसे होते थे
जो लिफाफा देखकर
मजमून भांप लेते थे
सोचता हूँ, इस भयानक
कोरोना वायरस महामारी
के निर्मम दौर में,
हम कहाँ से कहाँ आ गए?
प्राणों की रक्षार्थ
जिजीविषा की चाह में
चिंता करते हुए,
भावनाओं को ही खा गये!
अब भाई भाई से,
समस्या का समाधान,
कहाँ पूछता है,
अब बेटा बाप से,
उलझनों का निदान,
कहाँ पूछता है,
बेटियां नहीं पूछती,
माँ से गृहस्थी के सलीके,
अब कौन गुरु के,
चरणों में बैठकर,
ज्ञान की परिभाषा सीखता है।
परियों की बातें,
अब किसे भाती है,
अपनों की याद,
अब किसे रुलाती है,
अब कौन,
गरीब को सखा बताता है,
अब कहाँ,
कृष्ण सुदामा को गले लगाता है
जिन्दगी में,
हम केवल व्यावहारिक हो गये हैं,
मशीन बन गए हैं हम सब,
इंसानियत जाने कहाँ खो गये हैं!

-सुकरात उबाच

1. एक ईमानदार आदमी हमेशा एक बच्चा होता है.
2. जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं बस इतना जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता।
3. शादी या ब्रह्मचर्य, आदमी चाहे जो भी रास्ता चुन ले, उसे बाद में पछताना ही पड़ता है.
4. मित्रता करने में धीमे रहिये, पर जब कर लीजिये तो उसे मजबूती से निभाइए और उसपर स्थिर रहिये.
5. मृत्यु संभवतः मानवीय वरदानो में सबसे महान है।
6. चाहे जो हो जाये शादी कीजिये. अगर अच्छी पत्नी मिली तो आपकी ज़िन्दगी खुशहाल रहेगी ; अगर बुरी पत्नी मिलेगी तो आप दार्शनिक बन जायेंगे.
7. सौंदर्य एक अल्पकालिक अत्याचार है.
8. इस दुनिया में सम्मान से जीने का सबसे महान तरीका है कि हम वो बनें जो हम होने का दिखावा करते हैं.
9.लंबी ज़िन्दगी नहीं, बल्कि एक अच्छी ज़िन्दगी को महत्ता देनी चाहिए.
10. अधिकतर, आपकी गहन इच्छाओं से ही घोर नफरत पैदा होती है.
-सुकरात उबाच
You, Anamika Tiwari, LN Verma and 18 others