पिछले दो हफ्ते के दौरान मैंने भारत में अलग-अलग वर्ग के 500 से ज्यादा लोगों से पूछा होगा कि क्या वे नार्मन बोरलॉग को जानते हैं? यह तकलीफदेह बात है लेकिन, उनमें कोई भी बोरलॉग को नहीं जानता था जबकि हम सब की जिंदगी पर उनका भारी अहसान है.
नॉर्मन बोरलॉग ने कृषि विज्ञान में आधुनिक तकनीकें ईजाद कीं जिनसे गेहूं की उत्पादकता में 700 गुना तक बढ़ोत्तरी हुई. इसके साथ ही उन्होंने पूरी दुनिया के साथ ये तकनीकें मुफ्त में साझा कीं जिससे करीब एक अरब लोगों की जान भुखमरी से बचाई जा सकी. उनका योगदान यहीं तक सीमित नहीं रहा. उन्होंने सरकारों को आर्थिक नीतियों पर अहम सलाह दी ताकि अन्न की उपज बढ़े तो वह लोगों तक पहुंचे भी.
बोरलॉग का जन्म अमेरिका में आयोवा के एक सामान्य परिवार में हुआ था. मिनेसोटा विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उन्होंने गरीबी की तकलीफों को समझना और महसूस करना शुरू किया. ये अनुभव और ईसाई धर्म में उनकी सच्ची आस्था की बदौलत उनके दिल में गरीबों के लिए एक विशेष सहानुभूति पैदा हो गई और वे गरीबों की मदद करने के बारे में सोचने लगे.
ड्यूपॉन्ट में बोरलॉग के पास एक स्थायी नौकरी थी लेकिन, उन्होंने 1944 में इससे इस्तीफा दे दिया और मैक्सिको आ गए. यहीं उन्होंने गेहूं की उन किस्मों के विकास का काम शुरू किया जो रोग प्रतिरोधी थीं और जिनकी उत्पादकता पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा थी. 1963 तक उनकी ईजाद की हुई किस्मों का योगदान मैक्सिको के कुल गेहूं उत्पादन में 95 फीसदी तक हो गया. उत्पादन इतना बढ़ा कि बाद में मैक्सिको गेहूं का निर्यातक बन गया.
1970 के दशक की शुरुआत में भारत में अकाल पड़ा था. उस समय नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन (जिन्हें टाइम मैगजीन ने 20वीं शताब्दी के एशिया के 20 सबसे प्रभावशाली लोगों में स्थान दिया था) को यह जानकारी थी कि सुदूर लैटिन अमेरिकी देश मैक्सिको में क्या चल रहा है. वे भारत में भी बोरलॉग के काम का लाभ उठाना चाहते थे. इसी सिलसिले में उन्होंने बोरलॉग को भारत आमंत्रित कर दिया.
लियोन हेस्सेर ने अपनी किताब ‘द मैन हू फेड द वर्ल्ड’ में बोरलॉग के भारत से जुड़े एक वाकये का जिक्र किया है जो बताता है कि वे किस मिट्टी के बने हुए थे. उस समय इंदिरा गांधी सरकार में अशोक मेहता योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे. सरकार में वे दूसरे नंबर के ताकतवर व्यक्ति थे. बोरलॉग को भारत में उनसे ही मुलाकात करनी थी. उन्हें पता था कि जो गड़बड़ नीतियां अकाल के लिए जिम्मेदार हैं उनपर वे पूरी ईमानदारी से अपनी राय रखेंगे. लेकिन उन्हें डर भी था कि कहीं अपनी बेबाकबयानी के चलते उन्हें जल्दी से जल्दी देश छोड़कर जाने के लिए न कह दिया जाए. हालांकि यह डर भी उन्हें चुप नहीं करा पाया और उन्होंने ईमानदारी से सरकारी नीतियों के बारे में अपनी राय अशोक मेहता के सामने रख दी. बोरलॉग को इस बेबाकी के बदले देश छोड़कर जाने के लिए नहीं कहा गया और चमत्कारिक रूप से सरकार ने ही नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया. इनके चलते कुछ ही सालों में अकाल जैसी स्थितियां खत्म हो गईं.
बोरलॉग की ईजाद की गई गेहूं की नई किस्में भारत को व्यावसायिक रूप से 1966 में मिलीं. ऊंची उत्पादकता से युक्त और रोग प्रतिरोधी गेहूं के इन दानों ने कुछ ही सालों में भारत की जमीन पर चमत्कार कर दिया. 1966 से पहले भारत गेहूं का आयातक देश था. हमारा उत्पादन खुद अपनी आबादी के लिए पूरा नहीं पड़ता था और हमें अमेरिका से ‘फूड फॉर पीस’ कार्यक्रम के तहत लाखों टन गेहूं आयात करना पड़ रहा था. लेकिन नई किस्में आने के साथ ही पांच साल के भीतर भारत में गेहूं का उत्पादन दो गुना हो गया.
बोरलॉग की नई किस्मों और कृषि के उन्नत तरीकों से एशिया में सिर्फ भारत को ही फायदा नहीं हुआ. 1965 में पाकिस्तान में गेहूं का उत्पादन सिर्फ 46 लाख टन था जो 1970 में बढ़कर 84 लाख टन हो गया.
कुछ समय बाद ही बोरलॉग ने उच्च उत्पादकता वाली धान की कुछ किस्मों का विकास किया. ये ही बाद के सालों में धान क्रांति की बुनियाद बनीं. आज पूरी दुनिया में तकरीबन छह करोड़ हेक्टेयर जमीन पर गेहूं और धान के जो बीज बोए जाते हैं वे बोरलॉग की ईजाद की हुई किस्में हैं. यदि ये न होतीं तो दक्षिण अमेरिका का एक बड़ा हिस्सा और चीन अपनी आबादी के लिए अनाज की आपूर्ति नहीं कर पा रहे होते. आज चीन और भारत अपनी आबादी के लिए पर्याप्त गेहूं तो उपजाते ही हैं, साथ ही उसके निर्यातक भी हैं.
अनाज उत्पादन बढ़ाने और कृषि विकास की बोरलॉग की कोशिश में आधुनिक कृषि तकनीकों की अहम भूमिका रही. उनके तरीकों में कई चीजें शामिल थीं, मसलन सही मात्रा में उर्वरकों का इस्तेमाल, सिंचाई की सुविधा में सुधार और किसानों को आर्थिक रूप से सहारा देने के लिए अलग-अलग सरकारी उपाय जिनमें तय कीमत के बजाय कृषि उपज के लिए एक प्रतियोगी बाजार उपलब्ध करवाना भी शामिल था.
खेती में जेनिकली मॉडिफाइड फसलों के साथ-साथ उर्वरकों के प्रयोग का विरोध करने वाले लोग बोरलॉग के आलोचक रहे हैं लेकिन, उनके लिए भी चौंकाने वाली बात है कि बोरलॉग द्वारा विकसित की गई खेती की तकनीक तमाम संभव तौर-तरीकों में पर्यावरण के लिए सबसे सुरक्षित तकनीक है. ज्यादा से ज्यादा उत्पादन का मतलब था खेती के लिए कम जमीन की जरूरत यानी जंगलों की कम कटाई. इसकी जगह कम उत्पादन वाली परंपरागत खेती ही हो रही होती तो दुनिया की बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी करने के लिए विशाल पैमाने पर जंगलों को साफ करना पड़ता. इसके बाद भी इतना अनाज नहीं होता कि दसियों करोड़ लोगों को भुखमरी से बचाया जा सके.
स्वामीनाथन ने बोरलॉग के बारे में कहा था, ‘नॉर्मन बोरलॉग भूख से मुक्त दुनिया की इंसानी तलाश का जीवंत प्रतीक थे. उनका जीवन ही उनका संदेश है.’ बोरलॉग का जीवन ही उनका संदेश था लेकिन वे अपनी आवाज उठाने से भी कभी पीछे नहीं हटे. उनका कहना था, ‘आज मानवजाति के लिए जो सबसे बड़े खतरे हैं उनमें से एक है, विस्फोटक तरीके फैल रही लेकिन फिर भी छिपी हुई नौकरशाही. इससे एक दिन दुनिया का दम घुट सकता है.’
आज की नौकरशाही ने एक ऐसी सोच अपना ली है जो मानव जीवन के महत्व को कम करके आंकती है और इंसानों को दुनिया के लिए कैंसर जैसी बीमारी समझती है. आधुनिक समाज ने इंसान की कीमत 18वीं सदी के ब्रिटिश अर्थशास्त्री थामस माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत के हिसाब से तय कर दी है. यह सिद्धांत कहता है कि जनसंख्या ज्यामितीय (अंकों के गुणन के हिसाब से) तरीके से बढ़ती है और संसाधन अंकगणितीय (अंकों के क्रमिक योग के हिसाब से). इसका मतलब है कि एक समय के बाद जनसंख्या संसाधनों से बहुत ज्यादा हो जाती है. तब प्राकृतिक उपायों जैसे संक्रामक बीमारियों, आपदाओं या युद्ध आदि के जरिए जनसंख्या का विनाश होता है ताकि वह संसाधनों के अनुपात में कम हो जाए. बोरलॉग इस सिद्धांत के विरोधी थे. वे मनुष्य मात्र के लिए हमेशा खड़े रहे और उन्होंने जबर्दस्ती जनसंख्या नियंत्रण के समर्थकों को गलत साबित किया.
बोरलॉग को 2006 में भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था; पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने 1968 में उन्हें सितारा-ए-इम्तियाज पुरस्कार से नवाजा था; वे 1968 में इंडियन सोसाइटी ऑफ जेनेटिक्स एंड प्लांट ब्रीडिंग के मानद सदस्य चुने गए थे; बोरलॉग को 1978 में बांग्लादेश बोटैनिकल सोसाइटी और बांग्लादेश एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस का पहला मानद सदस्य बनाया गया था. इनके अलावा उन्हें कम से कम 48 और सम्मान मिले थे और ये उन देशों द्वारा दिए गए जिनके आम नागरिकों को किसी न किसी तरह से बोरलॉग के काम से फायदा पहुंचा था.
नॉर्मन बोरलॉग को 1970 में नोबेल पुरस्कार मिला था. इसके साथ वे उन छह विशेष लोगों में शुमार हो गए जिन्हें नोबेल के साथ-साथ यूएस कांग्रेसनल गोल्ड मेडल और यूएस प्रेजिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम दिया गया था. बोरलॉग 11 देशों के कृषि विज्ञान अकादेमियों के सदस्य भी थे और उन्हें 60 से ज्यादा मानद डॉक्टरेट की उपाधियां मिली थीं.
2009 में 95 साल की उम्र में डॉ; नॉर्मन बोरलॉग का निधन हो गया. वे आज इस दुनिया में नहीं है लेकिन, उनकी विरासत उस अनाज के रूप में हम भारतीयों के साथ आज भी है जिसे हम रोज इस्तेमाल करते हैं. यह विरासत उन विकसित कृषि पद्धतियों के रूप में हमारे साथ है जिनसे हम यह अनाज उपजाते हैं और यह विरासत उन अरबों लोगों के रूप में आज भी इस दुनिया में है जिनकी जान बोरलॉग की कोशिशों के चलते बच सकी थी.
हम भूखे थे और आपने हमारा पेट भरा. डॉ बोरलॉग, इसके लिए हम आपके आभारी हैं.
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